उधर के लोग
राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, अजय नावरिया के उपन्यास 'उधर के लोग' का एक अंश। इस उपन्यास में बाजार की भयावहता, वेश्यावृत्ति, यौन-विकार, विचारधाराओं की प्रासंगिकता, प्रेम, विवाह और तलाक पर खुलकर बात की गई है।

शाम को सब बारात की तैयारी में लगे थे। घोड़ी और बाजे दरवाजे पर खड़े थे। बाजे वाले बाजा बजा रहे थे। अब सभी जल्दी में थे। छह बज गए थे पर संगीता का कोई अता-पता नहीं था। रिंकू के हल्दी लग चुकी थी। उसे नहलाकर कपड़े पहनाए जा रहे थे। इस काम में जीजा सहायक बने हुए थे। आज ही के मौके पर जीजा, साले को झुककर जूते पहनाता है, सूट या शेरवानी पहनाता है, घोड़ी पर चढ़ने में मदद करता है। साले, गालियाँ देते जाते हैं और जीजा से काम करवाते जाते हैं। जीजा भी पलटकर गालियाँ देता है और साला हँसता है। दोनों एक-दूसरे की गालियों का बुरा नहीं मानते। यह मौका ही ऐसा होता है और रिश्ता भी।

रिंकू गालियाँ नहीं दे रहा था, न ही बुआ के दामाद यानी हमारे जीजा। ये पढ़े-लिखे लोग थे।

‘‘भैया, भाभी कब आएगी।’’ रिंकू ने मुझसे पूछा था।

‘‘मुझे पता नहीं, तू पूछ ले।’’ रिंकू को मोबाइल देते हुए कहा था।

‘‘हाँ भाभी, कब तक पहुँचोगे? कहीं देवरानी के घर तो नहीं पहुँच गई।’’ रिंकू हँस रहा था। ‘अच्छा...अच्छा ठीक है।’’

‘‘क्या कह रही थी?’’ मैंने फोन लेते हुए पूछा।

‘‘बाहर है...अभी गली में घुसी है...आ रही हैं।’’

रिंकू शेरवानी पहनकर तैयार था। उसने कटार लटका ली थी। माथे पर लता ने तिलक लगा दिया था। मीना काजल ढूँढ़ रही थी। काजल माँ ने कहीं रख दिया था और भूल गई थी। पड़ोस की दुकान से, काजल की डिबिया खरीद लाने के लिए, एक के बाद एक, तीन लड़के बुआ और माँ भगा चुकी थी, पर काजल नहीं आया था।

दरवाजे पर ढोल बजने लगा था। अफरा-तफरी बढ़ गई थी। जीजा गुलाबी रंग का पटका, रिंकू के कंधों और कमर पर लपेट चुके थे। वह हाथ में सेहरा लिए खड़े थे।

तभी सीढ़ियों से आयशा उतरी थी। सभी की नजर उस पर ठहर गई थी। वह ‘सी ब्लू’ रंग में थी। वह मेरे लिए अब तक की सबसे नई आयशा थी। जेवर का पीला रंग, उसके गोरे रंग में, और उजास भर रहा था।

‘‘मैं कैसी लग रही हूँ, मास्टरजी।’’ उसने पास आकर धीमे-से पूछा था, ताकि कोई न सुन सके। ‘‘आपके फेवरेट रंग को चुना है मैंने।’’ वह मेरी पसन्द जानती थी।

‘‘एकदम ऐश्वर्या राय जैसी।’’ रिंकू मेरे बोलने से पहले ही बोल पड़ा, उसने उसके सवाल को धीमी आवाज के बावजूद सुन लिया था। ‘‘आयशाजी एकदम अप्सरा जैसी लग रही हो।’’

मैं कुछ भी न बोल सका था। मेरी कमजोरी...वक्त पर, न बोल पाने की।

सभी मेहमानों की नजरें घूम-घूमकर उसी पर आ टिकती थीं। मेहमानों की पूरी फौज में ऐसी सुन्दर स्त्राी और न थी। सभी उसकी खूबसूरती की बातें कर रहे थे। बाहर से भी पुरुष मेहमान, उसे बार-बार, किसी बहाने से देखने के लिए अन्दर आ रहे थे। एक सात साल का लड़का अपनी माँ से जिद कर रहा था कि मैं आयशा दीदी से शादी करूँगा। यह उसका जादू था।

क्या जो उम्रदराज पुरुष मेहमान भी, किसी बहाने से उसे देखने को खाँसते हुए किसी बहाने से बार-बार भीतर आ रहे थे, वे बुरी नजरवाले थे...या फिर यह सौन्दर्य की प्राकृतिक भूख थी उनकी?

इसी बीच संगीता ने घर में कदम रखा था। उसकी पैर की पाजेब की खुशबू और इत्रा की खनक ने जैसे आयशा के तिलिस्म को छनाक से तोड़ दिया था। क्या यह संगीता है? मैं सच में, एक बार उसे पहचान नहीं सका था। चमकती पीकॉक ब्लू साड़ी में, आज संगीता अपने बेहतरीन रूप में थी।

आकर्षण के केन्द्र का विकेन्द्रीकरण हो गया था।

‘‘अरे मेरी लाडो, तुझे नजर लग जाएगी।’’ बुआ ने बढ़कर उसकी बलैयाँ ली थीं। संगीता पर हाथों की उँगलियाँ उसारकर, अपने सिर से उँगलियाँ चटकाई थीं।

‘‘ओह दीदी, आपने कितनी देर कर दी।’’ आयशा ने आगे बढ़कर संगीता का हाथ थामा था। दोनों की ही आँखों में एक-दूसरे के लिए ईर्ष्यामिश्रित प्रशंसा जैसा कुछ था।

‘‘मैं जो इतनी देर से सूनी आँख लिए बैठा हूँ कि कब भाभी आएँगी, कब काजल लगाएँगी?’’ रिंकू ने संगीता का मान करते हुए कहा।

‘‘बड़े झूठे हैं ये, काजल की डिब्बी यहाँ है नहीं और भाभी पर एहसान रख रहे हैं।’’ मीना बढ़कर संगीता के पास जा खड़ी हुई थी।

‘‘झूठे तो यहाँ एक से बढ़कर एक हैं।’’ संगीता चूकी नहीं थी। यह ताना था। उसने मेरी तरफ देखा था। कोई और मेहमान भले न समझा हो, अम्मा, रिंकू, मीना और मैं इसका ताना समझ गए थे।

‘‘बहुत सुन्दर लग रही हो।’’ संगीता मेरे पास-से गुजरी तो मैंने धीमे-से कहा।

‘‘अकेले में आयशा से भी यही कहा होगा।’’ संगीता के गुस्से की आँच लगी थी मुझे।

‘‘उसी से पूछ लो।’’ पलटकर जवाब दिया था मैंने।

फिर मीना और संगीता ने रिंकू की एक-एक आँख में काजल लगाया था।

मारुति वैन और बस पर ‘राहुल संग सुमन’ के कम्प्यूटर टाइप्ड पोस्टर चिपका दिए थे। लड़के, औरतें, आदमी सब ढोल पर नाचने लगे थे।

बारात निकासी के लिए तैयार थी तभी जयंत, सुशील, असलम और फीरोज आए थे। कई पुलिसवाले और भी थे। कांस्टेबिल वर्दी में थे। बाकी सभी सादी वर्दी में थे।

‘‘लड़कीवाले के घर ही पहुँच जाते, नवाबों।’’ मैं देखते ही खुशी से चिल्लाया था।

हम सबने एक-दूसरे को गले लगाया था। जयंत और फीरोज से गले मिलते वक्त, मैंने उन्हें अतिरिक्त कसा था, उन्होंने भी। क्या यह हमारा भेद-भाव था, दोस्तों में? पर यह स्वाभाविक था, अनायास था। संगीता और आयशा मेरे पीछे आ खड़ी हुई थी।

‘‘भाभी कहाँ है?’’ जयंत ने पूछा था। वह मेरे विवाह के वक्त यहाँ नहीं था, इसीलिए वह संगीता को पहचानता भी नहीं था।

‘‘संगीता, ये जयंत है।’’ मैंने मुड़कर संगीता से परिचय कराया था। ‘‘ये संगीता है।’’

‘‘भाभीजी, जय भीम।’’ जयंत ने आदत के अनुसार अभिवादन किया था।

‘‘जय भीम।’’ संगीता ने जवाब दिया।

‘‘और आप, इनकी बहन हैं।’’ जयंत आयशा से मुखातिब हुआ था।

जयंत को कभी पराई औरतों से बात करने में झिझक नहीं होती थी। वह आदमियों से बात करने में जैसा सहज रहता था, वैसा ही औरतों से बात करने में भी रहता था। औरतों को लेकर उसके मन में कोई आकर्षण-विकर्षण नहीं रहता था। स्त्रियों उसको लेकर प्रभावित हैं या नहीं, इसके लिए भी वह कभी सचेत नहीं रहता था। यह सहजता की खुशबू, शुरू से उसके व्यवहार में थी। पुरुषोचित ग्रन्थियों से मुक्त था वह।

‘‘नहीं...।’’ आयशा कहते हुए संगीता की तरफ हो गई थी।

‘‘आप यहाँ...।’’ सुशील आयशा की तरफ बढ़ा था। उसके बरताव में पुलिसिया रौब था।

‘‘यह मेरी दोस्त है...आयशा। ...तुम जानते हो सुशील इन्हें।’’ मैंने कहा, पर आयशा आगे नहीं बढ़ी। वह संगीता की ओट में हो गई थी कुछ।

‘‘यह जयंत, असलम, फीरोज और ये सुशील, पुलिसिया आदत है इसकी।’’ मैंने एक-एक करके सबसे मिलवाया था।

‘‘मैं अभी आती हूँ दीदी।’’ कहकर आयशा घर की तरफ बढ़ गई थी। सुशील भी पीछे-पीछे बढ़ने को हुआ था पर मैंने उसका हाथ पकड़ लिया था।

‘‘ये रंडी है साली। मैं जानता हूँ इसे। हमारे अफसर की रखैल है।’’ सुशील के साथ, हम भीड़ से कुछ हटकर शामियाने में आ खड़े हुए थे। मेरे यह पूछने पर कि क्या तुम उसे जानते हो, सुशील ने जवाब दिया था।

‘‘यहाँ वो मेरी मेहमान है। मैं उसके लिए जिम्मेदार हूँ। तुम उसे नहीं पहचानोगे।’’ मेरा स्वर कुछ सख्त और आदेशात्मक था।

‘‘क्या मुसलमान है?’’ असलम ने पूछा था।

‘‘अरे नहीं, हिन्दू है साली। बंगालन है। बड़ी ऊँची चीज है, हर किसी को हाथ नहीं रखने देती। हाइ प्रोफाइल है।’’ सुशील हँसा था। ‘‘तेरे जैसे आदमी से कैसे फँस गई। जादूगरनी है साली, पर तेरे जादू से बड़ा जादू किसके पास है...।’’

‘‘अन्धे के हाथ बटेर।’’ असलम ने जोड़ा था।

‘‘यही मजे ले रहा है भाई। औरत और रखैल दोनों साथ-साथ। भाग है साले का?’’ सुशील ने चुटकी ली।

‘‘सुशील, तुम मेरा दुख नहीं समझ पाओगे।’’ मैंने उदास नजरों से उसकी तरफ देखा था।

‘‘भाई तेरा दुख मुझे दे दे, मैं सँभाल लूँगा, बड़ा खूबसूरत दुख है।’’ असलम, सुशील के पाले में खड़ा था। वे इस वक्त कुछ भी गम्भीर सुनने-समझने को तैयार न थे।

‘‘कुछ बीयर-शीयर का इन्तजाम है या नहीं?’’ फीरोज ने बात बदलने की कोशिश की थी। वह जानता था कि ये दोनों थोड़ी देर में अश्लीलताओं पर आने से परहेज नहीं करेंगे।

‘‘मास्टरजी, मैं आ जाऊँ।’’ आयशा उधर ही आ गई थी, जिधर हम खड़े थे।

‘‘हाँ-हाँ आ जाओ।’’ मैंने मरे मन से कहा था। मैं चाहता नहीं था कि वह आए।

‘‘हाय एवरीबडी।’’ उसने आकर इस बार बेखौफ सबसे हाथ मिलाया था। ‘‘क्या नाम बताया था इनका?’’ कुछ देर पहले, दुबकनेवाली आयशा नहीं थी ये।

‘‘सुशील।’’ सुशील ने खुद नाम बताया था, आगे बढ़कर। उसके चेहरे पर लालसा थी।

‘‘एडीशनल पुलिस कमिश्नर बी.एन. कौशिक को जानते हैं आप।’’ वह बेखौफ बोली थी।

‘‘हाँ हाँ, बिलकुल हमारे सीनियर हैं।’’ उसकी आवाज में अपनापे की उत्तेजना आई।

‘‘उनकी रखैल हूँ मैं।...बूढ़ा आदमी, जवान लड़की के लिए कुछ भी कर सकता है।...समझते हैं न आप सुशील जी।’’ वह रुक गई थी, शायद अपनी बात का असर देखने के लिए।

‘‘मतलब।’’ सुशील को शायद उसकी इस बात से धक्का लगा था।

‘‘मतलब ये कि आप हमारे मास्टरजी के दोस्त हैं, हमारे मेहमान हैं। इस फंक्शन में आप मुझे दोबारा नहीं पहचानेंगे, तो मुझे सुविधा रहेगी।’’ वह लौट गई थी, उसने सुशील के जवाब का इन्तजार भी नहीं किया था। वह इतनी नम्रता से बोली थी कि हमें इसे समझने में वक्त लगा था कि यह धमकी थी।

‘‘यह दिल की बहुत अच्छी है। विपदाओं की मारी है, जयंत।’’ मैंने कहा।

‘‘सारी रंडियों के पास कहानियाँ होती हैं, सुनाने को।’’ असलम बोला था।

‘‘खूबसूरत बहुत है, बहुत मासूम।’’ फीरोज बहुत देर बाद बोला था। ‘‘तुम्हें इससे बचना चाहिए। आग जब तक वश में है तब तक दोस्त होती है, बेकाबू होने पर राख भी कर सकती है।’’ मैं फिरोज का आशय समझ गया था। वह मेरा सच्चा हितैषी था।

‘‘मुझे आग से खेलने का शौक है।’’ यह असलम था। ‘‘ये इश्क नहीं आसाँ, इतना ही समझ लीजै, इक आग का दरिया है, और डूब के जाना है।’’...ये आग हमें दे दे ठाकुर...।’’ वह फिल्मी अन्दाज में मुझसे बोला था।

‘‘आज बिना पिये ही शेर शुरू।’’ फीरोज हँसा था।

‘‘ये साला, पिलाएगा नहीं तो शेर क्या इन्तजार करते रहेंगे।’’ असलम ने बनावटी गुस्सा प्रकट किया था।

‘‘असलम तुम मेरे साथ आओ।’’ कहकर मैं घर की तरफ बढ़ा था। ऊपरवाले कमरे से दो बोतल व्हिस्की और चार बोतल बीयर की हम उठा लाए थे। एक बोतल मैंने असलम से सुशील के साथ आए चार सादी वर्दीवालों को दिला दी थी। हमारे लिए एक बोतल काफी थी। पीनेवाले असलम, सुशील और मैं ही थे। जयंत ने बीयर भी छोड़ दी थी। फीरोज एक से ज्यादा बीयर पी नहीं पाता था आज भी। बीयर हमने गाड़ी में ही डाल दी, ताकि वर्दीवाले सिपाही, अगर पीना चाहें तो हमारी गैर-हाजिरी में चुपचाप पी सकें।

‘‘जल्दी-जल्दी खींच लो। बारात पहुँच गई होगी।’’ जयंत ने कहा था। हम दो-दो पैग लगा चुके थे।

बारात जा चुकी थी। बाराती बस से गए थे। कई लोग अपनी-अपनी कार से गए थे।

‘‘अरे शहर में इतना ट्रैफिक है कि घंटा-भर लगेगा, वहाँ पहुँचने में।’’ फीरोज ने कुछ लड़खड़ाती आवाज में कहा था।

‘‘दो-तीन बोतल और डाल लेते हैं गाड़ी में। क्या पता कोई और आ जाए?’’ मैं नशे की झोंक में आ चुका था। जल्दी-जल्दी पीने से यह तो होना ही था।

‘‘बिलकुल, किफायती का मतलब मक्खीचूस होना नहीं होना चाहिए।’’ फीरोज ने कहा था। वह आधी बीयर में ही पठान हो चुका था अब तक।

‘‘गरीबी दिखाना, गरीब होने से ज्यादा शर्मनाक होती है।’’ असलम ने जोड़ा।

‘‘कर्ज की पीते थे मय और समझते थे, रंग लाएगी अपनी फाकामस्ती एक दिन।’’

‘‘मैं और लाता हूँ। जयंत तू आ मेरे साथ।’’ मैंने जयंत के कन्धे पर धौल मारी।

‘‘साले बेवड़ों के बीच में सूफी को नहीं फँसना चाहिए। बिना मतलब की बेगार करनी पड़ती है।’’ जयंत ने चलते हुए कहा था।

‘‘साले बाप-दादों का काम ही तो कर रहा है।’’ सुशील ने छेड़ा था।

‘‘साले गटर तो साफ नहीं किया था।’’ जयंत ने चलते-चलते, मुड़कर जवाब दिया था।

‘‘ये कसाई साले, सबसे ज्यादा पत्थर दिल हैं।’’ फीरोज भी पीछे से चिल्लाया था।

‘‘निगार का क्या हुआ?’’ जयंत ने मुझसे पूछा था। बाकी लोग पीछे छूट गए थे।

‘‘होना क्या था...निकाह कराके हैदराबाद रुखसत हो गई। ये साला अभी तक उसी के इन्तजार में मजनूँ बना बैठा है।’’ मुझे नशा चढ़ने लगा था।

‘‘वजह क्या रही?’’

‘‘वही कास्ट...ये फीरोज साला डरपोक भी है उसने तो कहा भी था, काजी से चुपके-चोरी निकाह पढ़ाने को, पर ये ही राजी नहीं हुआ। कहता था, बिना मतलब खून-खच्चर हो जाएगा। साले प्यार भी करते हो, फटती भी है।’’

‘‘तुझे भी करंट लग चुका है।’’ उसने शायद मेरी भाषा को लक्ष्य करके कहा था।

‘‘हाँ, यार बहुत दिनों बाद पी है, इतनी।’’ मैं सँभल गया था।

‘‘कम पीना। असलम और सुशील से बराबरी मत करना। अभी जब फीरोज पेशाब करने गया था, तो असलम ने उसकी बीयर में से थोड़ी पीकर, शराब मिला दी थी।’’

‘‘तू अपना ध्यान रख, तेरे घर का काम है।’’ जयंत ने मेरा कन्धा थपथपाया।

‘‘अच्छा वोे इतना तभी हिल रहा था...चल मजा आएगा...तू आज हम सबका ध्यान रखना बे पुलिसिये, तेरा घर नहीं है क्या ये, तेरा भाई नहीं है रिंकू।’’

‘‘कराओ सालो, बेगार करवाओ, इससे तो अच्छा होता कि मैं भी थोड़ी-सी पी लेता।’’ जयंत हँसने लगा था।

‘‘तो पी ले तू भी...तुझे किसने रोका है, तेरे भाई की शादी है।’’ मेरी जवान अब कुछ लड़खड़ाने लगी थी।

‘‘एक बार शुरू करने के बाद, ऐसे ही रोज पीने के मौके बन जाते हैं या बना लिए जाते हैं...शुरू करके छोड़ना मुश्किल है, शुरू न करना आसान है।’’

‘‘है तो बहुत खूबसूरत।’’ फीरोज कह रहा था, बोतल लेकर हम लौटे, तो उनके बीच आयशा की ही बात चल रही थी।

‘‘इसमें कोई शक नहीं, ऐसी खूबसूरत वेश्या मैंने पहले कभी नहीं देखी।’’ जयंत ने फीरोज से सहमति जताई। ‘निगार तो फेल है इसके सामने।’’ जयंत ने उकसाया।

‘‘अरे वो...वो धोखेबाज क्या बेचती है, इसके आगे...ये तो कोहिनूर है...वो तो काँच थी काँच, काँच क्या पत्थर थी साली।’’ फीरोज जयंत के उकसावे में आ गया था। उसकी बहक कुछ और बढ़ गई थी। ‘पत्थर क्या...क्या होता है वो...चल छोड़ याऽऽर।’’

‘‘तुमने इसे नंगा नहीं देखा, वरना गश खा जाते।’’ मैं खुद को रोकना चाहता था, पर नहीं रोक सका। शराब मुझे इसलिए भी पसन्द नहीं थी। नशे ने मेरी मर्दाना शेखी के इलाके को उकसा दिया था, जबकि औरतें ऐसी बातें हमेशा छिपाती हैं आपस में भी।

‘‘मजा ले रखा है बेटे इसका मतलब।’’ असलम चिल्लाया। ‘‘इतनी देर से संत बन रहे थे।’’

‘‘भाई यकीन करो...सिर्फ देखा था, किया...।’’ कहते हुए मेरी आवाज में शर्म घुल गई थी। सफाई व्यर्थ थी पर फिर भी...।

‘‘हम तो दूध पीते हैं न बे।’’ फीरोज ने पीठ पर धौल जमाई थी।

‘‘यारो मानो चाहे, मत मानो, सच इतना ही है।’’ मैं खुद को सँभालने लगा था।

‘‘तेरे बराबर चूतिया कोई नहीं, अगर ये सच है तो।’’ असलम ने लानत भेजने के अन्दाज में हाथ फेंका, ‘न वो मेरे दिल से बाखबर थे, न उनको अहसासे आरजू था, मगर निजामे वफा था कायम कुशुदे राजे निहाँ से पहले।’’

‘‘काम की आँधी चलती है, तो ज्ञान के दीपक बुझ जाते हैं।’’ जयंत ने जोड़ा, ‘तेरे कैसे जले रह गए?’’

‘‘देर हो रही है यारो, चलो अब निकलते हैं।’’ मैंने बात बदलनी चाही।

‘‘रुक यार।’’ मुझे आगे बढ़ता देख, सुशील ने हाथ पकड़ लिया। ‘‘रिंकू को जो मिलना है, वो मिल ही जाएगा, हम तेरी वजह से हैं यहाँ।’’

‘‘सुशील थोड़ी बारात में मस्ती करेंगे यार।’’

मैं समझ गया था कि सुशील को काफी चढ़ गई है। वह इस बीच बातचीत में भी शामिल नहीं था। वह चुपचाप पिए जा रहा था। जब से आयशा उसे धमकाकर गई थी, वह अनमना हो गया था। क्या वाकई वह डर गया था?

‘‘यार मेरे मन में एक सवाल है...ये औरत साली सबसे ज्यादा खूबसूरत किस वक्त लगती है?’’ सुशील ने मेरा हाथ दबाया, जैसे किसी आशय से दबाया जाता है। ‘‘इस सवाल का जवाब दे फिर चलते हैं।’’

‘‘तुझे चढ़ गई है, मेरे भाई।’’ मैंने जान छुड़ानी चाही। मुझे लगा था कि वह आयशा के बारे में कुछ पूछेगा।

‘‘नहीं तू जवाब देगा, तभी मैं यहाँ से हिलूँगा...ये अंगद का पैर है।’’ कहकर सच में सुशील ने एक पाँव धरती पर जमा दिया। मुझे हँसी आ रही थी उसकी इस बचकाना हरकत पर।

‘‘अब नहीं मानेगा भाई सुशील।’’ असलम ने उकसाया। ‘‘ये शुरू का जिद्दी है।’’

‘‘अब तो तुझे बताना ही पड़ेगा, ये पूछकर ही पाँव हटाएगा अब तो।’’ फीरोज लड़खड़ाती आवाज में और उकसाने लगा।

‘‘नहीं भाई मैं जिद्दी नहीं हूँ।’’ कहते हुए, सुशील ने जाने क्या सोचकर पैर हटा लिया।

मुझे अजीब लगा था। मनुष्य कितना अप्रत्याशित व्यवहार कर सकता है यह सच में अकल्पनीय है।

‘‘चलो, चलो, फिर निकलते हैं।’’ जयंत सबको धक्का मारने लगा।

‘‘एक मिनट यार जयंत।’’ सुशील ने जयंत को रोका। ‘‘बता दे मेरे भाई।’’ सुशील मेरी ठोड़ी पर उँगलियों से पुचकारने लगा।

‘‘मेरे ख्याल से तब...।’’ कहते हुए मैंने एक बार सबकी आँखों में झाँका। सबकी आँखों में उत्सुकता थी, लालसा थी और बेचैनी थी। आश्चर्यजनक रूप से जयंत भी उनसे बाहर नहीं था। उसके कान भी आँख बन गए थे और आँख कान। ‘‘जब वह किसी से प्रेम में, सहमति से, अपने अमृत को छोड़ने के, ठीक दो-एक पल होती है।’’

‘‘बहुत खूब, बहुत खूब।’’ जयंत ने मेरी पीठ ठोकी। ‘‘भाई वात्स्यायन पढ़ रहे हैं?’’

‘‘ये साला हमेशा पढ़ी-लिखी भाषा में बोलता है...सीधे नहीं बोल सकता कि जब रिस रही होती है।’’ असलम ने चिल्लाकर बदमजगी पैदा कर दी।

‘‘तू चुपकर यार...बात के असर को मत खराब कर।’’ सुशील ने असलम की ओर देखते हुए, मँुह पर उँगली रखी। ‘‘और बदसूरत?’’

‘‘हाँ यार बदसूरत भी बता दे।’’ फीरोज धीमी आवाज में फुसफुसाया।

‘‘कोई इनसान बदसूरत नहीं होता...न औरत...न आदमी...हाँ वे हिंसक हो सकती हैं?’’

‘‘कब?’’ यह भी फीरोज की लपलपाती आवाज थी, जैसे आग की लपट उठती है।

‘‘अपने अमृत को छोड़ने के ठीक...दो एक पल पहले।’’ मैं जोश में आ गया था। यह सुनाने का नशा था या शायद मर्दाना सन्तुष्टि।

मैंने कभी कामसूत्रा नहीं पढ़ा था, पर स्त्रियों के अनुभव को, मैंने बहुत सजग-भाव से देखा था, कई-कई बार।

ये मेरे अपने अनुभव थे, गलत या सही जैसे भी, पर मेरे अपने। उन अन्तिम क्षणों के ठीक पहले, पैर पटकती, स्त्रियों की हिंसा और तत्पश्चात उनकी अतुलनीय मासूम, मादक सुन्दरता को, मैंने झेला और भोगा था।

‘‘अबे यार, इसे थोड़ा और दारू डालो। इसकी उतर गई है, सोच-समझ के बात कर रिया है।’’ यह असलम था। वह वाकई ज्यादा चढ़ा गया था।

‘‘आयशा भी हिंसक है।’’ फीरोज ने पूछा था।

‘‘आयशा भली लड़की है।’’ मैंने खुद को सँभाल लिया था। वह मेरी दोस्त थी।

‘‘हर पत्थर में चमकता हीरा है। हर स्मित में कालजयी पीड़ा है।’’ यह सुशील था।

‘‘मुक्तिबोध ब्राह्मण थे।’’ मैंने कहा।

‘‘सारे ब्राह्मण बुरे नहीं हैं।’’ सुशील ने स्वीकारा था।

‘‘उन्होंने गैर-ब्राह्मण से विवाह ही नहीं किया था, बल्कि खुद को डी-कास्ट भी किया था।’’ जयंत ने जोड़ा।

‘‘आयशा भी ब्राह्मण है?’’ सुशील ने पूछा।

सबकी आँखों में सवाल था? लेकिन मैं चुप रहा।

 

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