किसान दिवस पर ऐतिहासिक आन्दोलन की याद
वर्तमान में भारत में केवल 6 परसेंट किसानों को एमएसपी मिलता है और यह भी उनके कुल उत्पादों के 35 परसेंट के लिए ही। इस तरह से देखें तो केवल 2 परसेंट उत्पादों को एमएसपी हासिल है। यानी न तो एमएसपी किसान आयोग की सिफारिशों के हिसाब से दिया गया और न ही सभी फसलों के लिए दिया गया (वैसे भी एमएसपी की आधिकारिक सूची में केवल 23 फीसदी फसलें शामिल हैं लेकिन ज्यादातर क्रियान्वयन केवल गेहूँ और धान के लिए ही होता है)। स्वामीनाथन रिपोर्ट मंडी के लिए प्रति वर्ग किलोमीटर की परिभाषा सुझाती है। फिलहाल हम इसके मुताबिक निकलने वाली संख्या के 25-30 फीसदी पर हैं। यानी हमने अभी तक मंडी ही उपलब्ध नहीं कराई है किसानों को। फिर सवाल उठता है कि किसानों को मंडी कहाँ उपलब्ध है? इसका जवाब है—केवल वहीं जहाँ एमएसपी तक किसानों की पहुँच है। यानी मोटे तौर पर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी।

किसान दिवस पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, मनदीप पुनिया की किताब 'किसान आन्दोलन : ग्राउंड जीरो' का एक अंश

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30 नवम्बर, 2020 की सर्द शाम थी जब सूरज ढल रहा था, पूर्णिमा का चाँद अपनी बारी के इन्तजार में था। आज गुरु पर्व था और किसान सिंघु बॉर्डर पर लगे दिल्ली के पाँच गुरुद्वारों का लंगर छक रहे थे।

नेशनल हाईवे पर अभी-अभी बसे इस विशाल लम्बवत गाँव में लोहे के घर थे—ट्रैक्टर और ट्राॅली। किसानों के बीच यह आम चर्चा थी कि यह रेला 35 किलोमीटर लम्बा है। कोई 15 किलोमीटर बताता, तो कोई 20 किलोमीटर। इस तरह समझ में आया कि अब भी हरियाणा-पंजाब के किसानों का यह गाँव बसने की प्रक्रिया में था। इस गाँव में देश के दूसरे राज्यों के किसानों की बस्तियाँ भी बसने वाली थीं।

छह दिन किसानों के साथ दिन-रात रहने के बाद मैं 1 दिसम्बर की रात अपने गाँव झज्जर चला गया। अगले दिन यानी 2 दिसम्बर की सुबह हरियाणा से दिल्ली की ओर कूच कर रहे जत्थों को आते देखा तो मैंने उन्हें कवर किया। इसका मतलब था कि अभी तक हमने जो देखा, वो सिर्फ ट्रेलर था, पिक्चर अभी बाकी है।

बसा कैसे जाता है, उसकी अब तक हुई तैयारियाँ देखिए—एक ट्रैक्टर, उसके भीतर, नीचे, ऊपर बिछे गद्दे, गद्दों पर पुआल, भीतर सारी घरेलू सामग्री। सिलिंडर से लेकर राशन तक, अचार से लेकर मसाले तक, पानी से लेकर दूध तक, बाजे से लेकर डीजे तक—जीवन का हर रंग इन ट्रैक्टरों में समाहित।

हर कदम पर चूल्हा लगा हुआ है। कहीं दूध फाड़कर पनीर बनाया जा रहा है। कहीं खीर। कहीं लड्डू बँट रहे हैं। कहीं ब्रेड-पकौड़े और चाय। सैकड़ों रसोइयों से एक साथ धुआँ उठ रहा है। धुएँ में उठती सोंधी गंध ने प्रदूषण के मामले में दिल्ली की सबसे खराब सीमाओं में एक सिंघु बॉर्डर के इलाके को पंजाब का देहात बना डाला है। यह दृश्य अद्भुत है। अभूतपूर्व भी। दिल्ली में ऐसा पहले नहीं देखा गया।

वहाँ मौजूद किसी भी किसान से पूछता कि क्या प्लान है तो एक ही तरह का जवाब मिलता कि यहीं रहना है। कब तक? जब तक सरकार मान नहीं जाती। नहीं मानी तो? यहीं बैठे रहेंगे। अजीब बात है। दिल्ली में लोग अपनी आवाज सुनाने आते हैं और लौट जाते हैं। यहाँ लौटने की बात ही कोई नहीं कर रहा था। हरनाम सिंह बताते हैं कि अकेले पंजाबी ही हैं जो कच्छ के भूकंप से लेकर कश्मीर की बाढ़ और सुनामी तक राशन-पानी लेकर मदद करने निकल पड़ते हैं। उनके साथी बताते हैं कि पंजाबी किसी में भेदभाव नहीं करता। यहाँ भी नहीं करेगा। पूरी तैयारी है।

ऐसी क्या वजह है? केवल किसान बिल या कुछ और भी? इसके बाद मामला राजनीतिक मोड़ ले लेता है। बुजुर्ग 15 लाख के जुमले से शुरू कर के बीएसएनएल की बिक्री तक आते हैं और मूर्त से अमूर्तन का सैद्धान्तिक सफर करते हुए उस िबन्दु तक पहुँचते हैं जहाँ उनके विचारों को देशद्रोही ठहराया जाने लगता है।

साईबाबा का नाम पंजाब के किसान के मुँह से सुनकर एकबारगी विश्वास नहीं होता। यह किसान कवि वरवर राव का नाम ले रहा है। उसी कड़ी में ये सुधा भारद्वाज और मेधा पाटकर को भी गिनवाता है। उसे नहीं पता कि मेधा कल यहीं से होकर गई हैं और उनके आन्दोलन का हिस्सा हैं। वह एक स्वर में इन सबके नाम लेकर बताता है कि आज तो बोलने को ही देशद्रोह बना दिया गया है।

यह किसी भी सामान्य पत्रकार के लिए चौंकाने वाली बात हो सकती है, लेकिन पंजाब के किसान आन्दोलन से परिचित लोगों के लिए नहीं। पंजाब के पिछले विधानसभा चुनाव में मेरे एडिटर अभिषेक श्रीवास्तव की डॉ. दर्शनपाल से मुलाकात और लम्बी बात हुई थी। डॉ. दर्शनपाल क्रान्तिकारी किसान यूनियन के अध्यक्ष हैं और सरकार से वार्ता कर रहे प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा हैं। उस वक्त उन्होंने अभिषेक को एक काम की बात कही थी, जिसका मतलब सिंघु बॉर्डर पर किसानों से बात करके समझ आता है। उन्होंने कहा था कि पंजाब का किसान मूवमेंट बहुत मजबूत है, लेकिन वह राजनीतिक मूवमेंट नहीं बन पा रहा है। किसानों की चेतना को उनकी जमीन से विस्तारित करके व्यापक राजनीतिक सवालों तक ले जाने का कार्यभार अभी अधूरा है।

एक जवाब हमें विक्की से भी मिलता है। विक्की पंजाब यूनिवर्सिटी के छात्र हैं। ट्रैक्टरों के बीच खाली जगह में बैठकर उनका समूह पोस्टर बना रहा है। विक्की ‘जय जवान, जय किसान’ के नारे को अपने तरीके से परिभाषित करते हुए बताते हैं कि कैसे आज नौजवानों के रोजगार का सवाल और किसानों के सवाल आपस में जुड़ चुके हैं।

किसान आन्दोलन और रोजगार आन्दोलन का संगम बाप-बेटे की लड़ाई का साझा हो जाना है। यह समझदारी पूरे आन्दोलन में साफ दिखती है जिसकी अगुवाई तो बुजुर्ग कर रहे हैं, लेकिन कार्रवाई की कमान उन्होंने नौजवानों की अगली पीढ़ी को दे रखी है। नौजवान अपने बुजुर्गों की बात का सम्मान करना जानता है। उसे अपनी सीमाएँ भी पता है और आन्दोलन में अपनी भूमिका भी मालूम है।

इनमें सिर्फ लड़के नहीं, लड़कियाँ भी शामिल हैं। इसमें सिर्फ छात्र ही नहीं, कलाकार और कवि भी शामिल हैं। यह लड़ाई पुरुष सत्ता के खिलाफ है। यह लड़ाई रचनात्मकता के पक्ष में है। आम तौर से किसान सोचते ही पुरुष किसान की छवि दिमाग में आती है, लेकिन महिला खेतिहर की भूमिका खेती-बाड़ी में कहीं ज्यादा अहम होती है। यहीं पैदा होता है जेंडर का सवाल। यह आन्दोलन इस सवाल को भी सम्बोधित करने की कोशिश कर रहा है, लेकिन काफी हद तक नाकाम रहा है।

कह सकते हैं कि जो आन्दोलन हमें ऊपर से पंजाब और हरियाणा के किसानों का दिख रहा है, उसकी राजनीतिक चेतना का प्रसार इतना हो चुका है कि परिवार की बुनियादी इकाई उसमें पूरी तरह शामिल है। बाप की लड़ाई, बेटे की लड़ाई, बेटी की लड़ाई और उसके माध्यम से माँ की लड़ाई सब एक संग गुँथी हुई हैं। इसीलिए पंजाब और हरियाणा का किसान अकेले नहीं, उसका पूरा परिवार इस आन्दोलन के मोर्चे पर है।

फगवाड़ा से आए एक बुजुर्ग बताते हैं, “गाँव में हम बोलकर आए हैं कि इन्तजार मत करना। हम जा रहे हैं।” पठानकोट से आए एक युवा कहते हैं, “बड़े-बूढ़े जब साथ हैं तो हमें किस बात का डर। जैसा वे कहेंगे वैसा हम करेंगे।” जसमीत ने 26 नवम्बर को कई बैरिकेड अपने ट्रैक्टर से तोड़े थे। उनकी हिम्मत उनके शब्दों में झलकती है, लेकिन इस हिम्मत की सीमा यह है कि अपनी ओर से कोई वार नहीं करना है। और यह सीमा उन्होंने खुद तय की है।

खेती-किसानी को बचाने के लिए पंजाब और हरियाणा में परिवारों के एक साथ होने के पीछे कुछ ऐतिहासिक कारण भी हैं, जो यूपी-बिहार के टूटते परिवारों और समाजों में नहीं दिखते। एक बुनियादी कारण है औसत सम्पन्नता का ज्यादा होना। यह सम्पन्नता हिन्दी पट्टी के बाकी राज्यों से ज्यादा क्यों है, इसे सुखजीत सिंह अच्छे से समझाते हैं— पूर्वी उत्तर प्रदेश या बिहार का सामान्य निवासी इस सम्पन्नता को नहीं समझ पाता। उसे स्कॉर्पियो, एसयूवी, ट्रैक्टर आदि का दृश्य एकबारगी डराता है। किसान की अपनी मानसिक परिभाषा में वह इस दृश्य को फिट नहीं कर पाता। यह सच है कि इस सम्पन्नता की अपनी जाति है और वर्ग भी, जैसा कि कुछ विश्लेषकों ने इशारा किया है।

मंडी और एमएसपी के सवालों को सिर्फ इसलिए अनदेखा नहीं किया जा सकता कि इसके साथ “जमीन की मालिकी वाले” किसानों की समस्या जुड़ी है। भारत के किसान आन्दोलनों का चरित्र देखें तो पश्चिमी यूपी से लेकर कर्नाटक तक ऐतिहासिक रूप से सफल आन्दोलन इन्हीं किसानों के ही रहे हैं। ऐसे आन्दोलनों ने अतीत में देश की सत्ताओं को बनाने-बिगाड़ने का काम भी किया है। किसान आन्दोलन का राजनीतिक आन्दोलन बन जाना एक ऐसा स्वप्न है जो बरसों पहले इस देश में विभाजनकारी और अस्मितावादी राजनीति के चक्कर में पीछे चला गया था। मौजूदा किसान आन्दोलन इस बात का संकेत है कि वह दौर एक बार फिर लौट सकता है। दशकों तक खेती-किसानी को कवर करने वाले पत्रकार पी. साईनाथ भी मान रहे हैं कि यह आन्दोलन केवल किसानों का नहीं, पूरे समाज का है। इसके साथ पूरे समाज को खड़ा होना होगा।

गुरु पूर्णिमा को देर शाम सिंघु बॉर्डर पर बत्तियाँ जल गई थीं। गुरु पर्व मनाने के लिए किसानों ने उन बैरिकेडों पर भी मोमबत्तियाँ जलाई थीं जिन्होंने उन्हें रोका था और जिन्हें उन्होंने अपने ट्रैक्टरों से तोड़ा था। बिलकुल यही दृश्य यूपी के बॉर्डर पर भी था। बैरिकेड के उस पार जवान और इस पार किसान, बीच में प्रकाश, और आकाश में पूर्णिमा का दमकता चाँद।

रिंग रोड से दाईं तरफ नीचे की ओर बुराड़ी के विशाल मैदान में अँधेरा था। तने हुए सफेद सरकारी तम्बुओं के बीच फँसा हुआ अँधेरा। इसी अँधेरे से भागकर बुराड़ी ले जाने के लिए बेचैन किसान नेता बार-बार सिंघु बॉर्डर की ओर जा रहे हैं। उधर सरदार वीएम सिंह उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के किसानों का इस अँधेरे में आह्वान करने के बाद इस बात से नाराज हैं कि सरकार ने उन्हें बातचीत के लिए नहीं बुलाया।

उस शाम अभिषेक मुझे समझा रहे थे, “आन्दोलन आगे भी ले जाते हैं, पीछे भी। ऊपर भी ले जाते हैं, नीचे भी। मौजूदा आन्दोलन केवल किसानों का आन्दोलन नहीं है, इस मुल्क के मुस्तकबिल को तय करने का आन्दोलन है। अब खतरा इस बात का है कि इसे किसानों की एक अदद माँग पर लाकर न पटक दिया जाए। मान लीजिए कि कल को सरकार इन कानूनों में संशोधनों के लिए तैयार हो जाए और योगेन्द्र यादव, राजेवाल, कक्का और दूसरे बड़े किसान नेताओं (संयुक्त किसान मोर्चा की तालमेल कमेटी के सदस्य) ने किसानों को दबाव में लेकर इसे स्वीकार करने को राजी कर लिया, तब? आप कितने साल बाद उम्मीद करते हैं कि किसानों का जत्था दोबारा राशन-पानी लेकर दिल्ली आएगा?”

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