हमने पूरा कच्छ घूम लिया, लेकिन उस महामानव की स्थली अब तक नहीं देखी थी जिसके शाप से अरब सागर का टुकड़ा रण में तब्दील हो गया था। इसे आप मिथक मान सकते हैं, लेकिन इतिहास के पास कोई वैकल्पिक व्याख्या भी नहीं है क्योंकि मिथकों के भौगोलिक साक्ष्य यहाँ जिन्दा हैं। बिलकुल बनारस की तरह। या बेबीलोन या पेकिंग की तरह।
कच्छ का धिनोधर पर्वत। कभी यह ज्वालामुखी हुआ करता था। इसकी ढलानों पर लावे की जमी हुई परतें साफ़ देखी जा सकती हैं। बड़ी इच्छा थी कि इस पर्वत के पास चलें, हजारों साल पीछे जाकर रण को रण बनता हुआ देखें। इंटरनेट बमुश्किल दो-एक सैलानियों के भयाक्रान्त कर देने वाले तिलिस्मी तजुर्बे, कुछ तस्वीरें, कुल जमा इतना ही था जो अपनी ओर खींचता भी था और रोकता भी था। स्थानीय किंवदंतियां ऐसी थीं कि कभी हिम्मत नहीं हुई वहाँ जाने की, लेकिन भुज में दलपत जी ने जब ढाढ़स बँधाया और कहा कि वहाँ जाकर एक दिन में ही उजाला रहते लौटा जा सकता है तो हमने योजना बना ली।
भुज से यह जगह बहुत दूर नहीं है लेकिन यहाँ आमतौर से कोई जाता नहीं है। सैलानी सर्किट के तो यह बाहर है ही, अन्वेषियों के नक्शे में भी इसका विवरण नहीं मिलता। गोकि मारियान पोस्तांस से लेकर एल. एफ. रशब्रुक विलियम्स तक सभी ने घिनोधर पर्वत और बाबा धोरमनाथ की कहानी का वर्णन किया है, लेकिन इतना तय है कि इनमें से कोई भी वहाँ गया नहीं था।
धिनोधर पर्वत भुज से कोई 50 किलोमीटर दूर रण की ओर है। जीपीएस पर सब कुछ साफ़ था। हमें जहाँ जाना था, उस जगह का नाम है थान जागीर। थान के बारे में भुज के आम लोग कम ही जानते हैं। हमने बिलकुल सही राह पकड़ी थी। नखतराणा से दूरी कोई 18 किलोमीटर दिखा रही थी। सामने पर्वत भी दिख रहा था। जब पर्वत के ठीक सामने पहुँचे तो तलहटी में तीन-चार मन्दिर बने हुए थे और कुछ गाड़ियाँ लगी हुई थीं। नेट पर देखी दो तस्वीरों को याद किया। इस तो पक्का था कि यह वो जगह नहीं हो सकती।
पीछे से राज्य परिवहन की एक बस आ रही थी। हमने उतरकर उसके ड्राइवर से पता किया। वह बस यहीं तक आती थी और इसके बाद मुड़ जाती थी। उसने बताया कि इस जगह का नाम नानी अरल है। हम पीछे जिस गाँव को छोड़ आए थे वहाँ नानी अरल लिखा तो था, लेकिन गूगल मैप पर रूट देखते वक्त यह जगह पड़ने के चलते हम आश्वस्त थे कि सही जा रहे हैं। मामला ठीक उलट निकला। यह घिनोधर के आगे का हिस्सा था। आबादी वाला हिस्सा। आबादी भी क्या, बस एक गाँव ।
थान जाने के दो तरीक़े थे। या तो इस पहाड़ पर चढ़कर उस पार उतरा जाए। चढ़ने के लिए बाकायदा सीढ़ियाँ तो बनी थीं लेकिन यह काम जितना सरल दिखता था उतना था नहीं, कम से कम दो घंटा लग जाता पहाड़ पार करने में। इसका दूसरा तरीका यह था कि हम जिस रास्ते आए थे उसी से वापस लौटते और नखतराणा वाले सम्पर्क मार्ग से सीधे निकलकर पहाड़ के पीछे जाते। यह दूरी कोई तीसेक किलोमीटर बनती थी। मौसम का मिजाज और वक़्त की नजाकत को देखते हुए यही तरीका अपनाया गया। हम जैसे ही नखतराणा से आ रही सड़क पर जा मिले और सीधे बढ़ने लगे, एक बार को ऐसा लगा कि हम पर्वत से दूर होते जा रहे हैं। वह रास्ता हमें वास्तव में पर्वत से दूर ही ले जा रहा था लेकिन इसका कोई विकल्प नहीं था। चलते रहना था। उस सड़क पर एक भी प्राणी नहीं था जिससे कहा जा सके– भाई साब, थान जाना है!
बाबा धोरमनाथ, गुरु गोरखनाथ के शिष्य थे और नाथ सम्प्रदाय के योगी, जिन्होंने इस सम्प्रदाय के भीतर कनफटे योगियों की परम्परा की शुरुआत की। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कनफटे योगियों की परम्परा से हैं। हम दरअसल उनकी मातृभूमि जा रहे थे। कम लोगों को पता है कि गोरखपुर का गोरखनाथ पीठ कनफटे योगियों का मुख्य पीठ नहीं है। वहाँ की परम्परा गृहस्थ और संन्यासी योगियों से ताल्लुक रखती है। इसमें कनफटा एक अलग ही सम्प्रदाय है जिसका लेना-देना गुजरात के कच्छ में स्थित धिनोधर पर्वत से है, जिसके ऊपर बाबा धोरमनाथ ने 12 साल तक सिर के बल तपस्या की थी। धोरमनाथ कोई मिथकीय चरित्र नहीं हैं क्योंकि उनके उत्तराधिकारी बाबा ग़रीबनाथ के कच्छ के तत्कालीन शासक रायधन के साथ बड़े अच्छे रिश्ते थे। यह लिखित इतिहास का अंश है।
बाबा धोरमनाथ उत्तर भारत में काफ़ी मान्य थे। वे कच्छ में साधना के लिए सही जगह ढूँढ रहे थे। यहाँ मांडवी के पास रायपुर में उन्हें एक शान्त जगह दिखाई दी। उन्होंने बारह वर्ष की साधना यहाँ शुरू कर दी। उन्हें उम्मीद थी कि रायपुर का स्थानीय चावड़ा शासक उनके शिष्य का ख़याल रखेगा। उनके शिष्य का काम अपने और गुरु की आजीविका के लिए सामान जुटाना था। रायपुर के लोग मतलबी निकले कि किसी ने भी ग़रीबनाथ को भिक्षा नहीं दी। शासक की ओर से भी कोई तवज्जो नहीं मिली। मजबूरी में ग़रीबनाथ को लकड़ी काटकर बेचने का काम शुरू करना पड़ा। उससे जितनी भी कमाई होती, ग़रीबनाथ अपने और गुरु के लिए अनाज का जुगाड़ कर पाते थे। वहाँ एक अकेली बूढ़ी औरत थी जिसे इनकी हालत देखकर तरस आया। उसने गुरु-चेले के लिए रोटी पकानी शुरू कर दी। जब कभी जलावन कम पड़ जाती, वह अपने हिस्से की रोटी उन्हें दे देती थी। इस तरह कैसे भी करके बारह वर्षों का समय पूरा हुआ।
धोरमनाथ जब साधना से उठे और उन्हें सारी बात पता चली तो उनके आक्रोश का पारावार न रहा। उन्होंने बूढ़ी औरत से शहर छोड़कर चले जाने को कहा। उसके बाद उन्होंने रायपुर शहर को जो शाप दिया, लोग उसे आज भी अपनी जबान पर रखते हैं– 'पट्टन सो डट्टन, माया सो मिट्टी' यानी सारी सम्पन्नता धूल में मिल जाए, सारी माया मिट्टी बन जावे। देखते-देखते भूकम्प आया। सारे भवन मिट्टी में मिल गए। समुद्र कोसों पीछे चला गया। नगर सूख गया। लोग मांडवी में पलायन कर गए। अच्छा-ख़ासा व्यापारिक बन्दरगाह चौपट हो गया। रायपुर के पास मांडवी की खाड़ी सूख गई।
रायपुर को अपने पैरों की धूल बना देने वाले धोरमनाथ ने अगली साधना के लिए रण के क्षेत्र का रुख किया और उनके क़दम घिनोधर पर्वत पर ठहरे जिसके ऊपर से समूचे रण को आज भी एक नजर में देखा जा सकता है। उन्होंने इस पर्वत के ऊपर अपने सिर के बल अगले बारह साल तक घोर तपस्या की। यह तपस्या इतनी कठोर थी कि खुद देवता नीचे उतर आए और उन्होंने घोरमनाथ में तप तोड़ने का आग्रह किया। धोरमनाथ ने कहा कि वे तप तो तोड़ दें लेकिन आँख खुलने पर उनकी पहली निगाह जिस जगह पर पड़ेगी वह जगह सूखकर बंजर हो जाएगी। इसका इलाज यह निकाला गया कि वे तप तोड़ने के बाद धिनोधर के उत्तर में अरब सागर की ओर देखें जहाँ जानमाल का नुकसान होने की गुंजाइश नहीं है। उन्होंने वैसा ही किया। जहाँ तक उनकी नज़र गई, अरब सागर सूख गया। समुद्री जीव-जन्तु और पानी के जहाज सूखी मिट्टी और कीचड़ में निस्सहाय दबे रह गए। यही दलदली इलाक़ा आज कच्छ के रण के नाम से जाना जाता है।
तपस्या के बाद धोरमनाथ धिनोधर की तलहटी में आए और यहाँ उन्होंने अपना मठ स्थापित किया। साथ ही कनफटे योगियों के सम्प्रदाय का आरम्भ किया। इसकी बागडोर उन्होंने ग़रीबनाथ को थमाई और महाप्रयाण कर गए।
अब मसला यह है कि इस कहानी को कैसे समझा जाए। धोरमनाथ जब कच्छ में आए उस वक़्त चावड़ा शासक हुआ करते थे। इसी दौर में अरब सागर उत्तर में किसी भयंकर भूकम्पीय घटना के चलते काफ़ी पीछे हट गया था। जाहिर है, लोगों को यदि पता रहा होगा कि कोई योगी यहाँ तपस्या कर रहा है तो उन्होंने इस घटना को उसके तप से जोड़कर कहानी बना दी होगी। अब धोरमनाथ वास्तविक चरित्र थे या नहीं, इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना तय है कि उनके अवसान के बाद कनफटे योगियों के प्रमुख बने बाबा ग़रीबनाथ 12वीं सदी के लिखित इतिहास में दर्ज हैं, जब रत्तो रायधन या 'लाल' रायधन कच्छ का शासक हुआ करता था। रायधन के नाम के आगे लाल इसलिए लगाते हैं क्योंकि जंग के वक्त वह अपनी पगड़ी पर एक लाल कपड़ा बाँधने का आदी था। रायधन के बारे में लोक में बहुत कुछ सुनने को नहीं मिलता, सिवाय इसके कि बाबा गरीबनाथ से उसके रिश्ते काफ़ी अच्छे थे। इसकी एक वजह थी।
रायधन अपने राज में कुछ जाट कबायलियों से बहुत परेशान था और उनसे निपटना चाहता था। वह जानता था कि बाबा गरीबनाथ के पास चमत्कारिक और दैवीय शक्तियाँ हैं। ग़रीबनाथ खुद इन जाटों से परेशान थे क्योंकि जाट उन्हें पसन्द नहीं करते थे और साधु होने के नाते उनका सम्मान भी नहीं करते थे। जब ग़रीबनाथ योग में लीन होते, जाटों के बच्चे उन्हें पत्थर मारा करते थे। रायधन और ग़रीबनाथ दोनों ही जाटों से हलकान थे तो यह स्वाभाविक ही था कि ग़रीबनाथ ने अपनी थोड़ी सी ताक़त रायधन के साथ लगा दी। इस ताक़त को पाकर रायधन जाटों को भगा पाने में कामयाब हो गए और कच्छ के क्षेत्र पर उनका दोबारा क़ब्ज़ा हो गया।
यह कहानी आज भी लोक का हिस्सा है। इसे लोग कच्छी भाषा में ग़रीबनाथ की शौर्यगाथा के नाम से गाते हैं और रायधन की कच्छ पर दावेदारी में मदद के लिए उनका शुक्रिया अदा करते हैं। रायधन ने इस मदद के बदले ग़रीबनाथ को धिनोधर पर्वत के नीचे कनफटा सम्प्रदाय का पहला मठ स्थापित करने के लिए एक विशाल भूखंड दान कर दिया। कनफटे सम्प्रदाय को दान में मिली जमीन का यह सबसे पहला दर्ज रिकॉर्ड है। इसी जगह को कालान्तर में थान जागीर के नाम से जाना गया।
अभिषेक श्रीवास्तव की किताब कच्छ कथा यहाँ उपलब्ध है।