अप्रैल 26, 2012। इंदौर छोड़े तीसरा दिन।
गढ़वाल के जोशीमठ (1875 मी.) में यह हमारा दूसरा फेरा है। सात बरस पूर्व इससे पहली मुलाक़ात हुई थी। कालिंदी खाल अभियान से लौटती यात्रा में तब जोशीमठ में इस तरह ढुके जैसे अमूल बटर में छुरी। जो चाकू से लिपटा उसे चाटा अटरली-बटरली-डिलिशियस कहा। और बाहर। ठहरकर देखने, परखने, गोकि इससे बाक़ायदा जुड़ने का मौसम अब बना है। कारण कि कुछ दिन गुज़ारने होंगे यहाँ। कितने? ठीक-ठीक ख़बर नहीं। शायद तीन-चार दिन खप जाएँ। वैसे उम्मीद तो थी कि सोनी हमारा स्वागत पनपतिया अनुमति पत्रक के साथ करेगा। पर यह न हो सका। मालूम पड़ा कि एस.डी.एम. साहब के हस्ताक्षरों के उपरान्त ही वह पत्रक जारी हो सकेगा। किन्तु साहब को अचानक डी. एम. महोदय ने चमोली (या शायद गोपेश्वर) बुला लिया है। अगले कुछ दिनों में बदरीविशाल के पट जो खुलने वाले हैं। छह माह की नींद से बदरीनाथ को जगाया जाएगा। उत्सव मनेगा। हर कोई चाहेगा कि रावल के बाद भगवान की नज़र उस पर पड़े। इस प्रथम दृष्टि का बड़ा महत्त्व है। सो देश भर के अतिविशिष्ट लोगों का जमावड़ा होने वाला है। कि जब नारायण नैन खोलें तो उन्हें दिलखुश चेहरों के दीदार हों। ऐसे शुभ अवसरों पर आमजनों को कौन क़रीब फटकने दे? सूरत उनकी रोतली और हाल मुर्दनी। नींद से जागे प्रभु को सबसे पहले चिरकुट-चिन्दीचोर लोगों के चेहरे क्यों दिखें? लिहाज़ा इन्हें देवालय से दूर रोकने हेतु चमोली में योजनाओं को मुकम्मल जामा पहनाया जा रहा है। एस.डी.एम. भी वहीं गए हैं।
चुनाँचे हम सामान्यजन जेहन में वही कुछ लिये जोशीमठ में बैठे हैं, जिसके संग जीवन गुजारा जाता है। बोले तो शंका-कुशंका और आलम-ए-बेबसी। इन हालात में समय भी घनीभूत हो जम सा जाता है। न टस, न मस। बिलकुल ठस्स। ऐसे ठोस समय को काटना बड़ा कठिन पर हैं कुछ औज़ार। जैसे कोई जायकेदार किताब आगोश में लिये पसर जाना। किसी फूल से बतियाना, पाखी को सुनना। या किसी पहाड़ को देखते रहना-अनिमिष! पर हाय! यह कुछ भी तो सम्भव नहीं। हम जोशीमठ में बीच बाज़ार जो ठहरे हैं। यहाँ दूर तक न कोई पेड़, न परिंदा फूल गर हैं भी तो क्यारियों में क़ैद गूँगे, बेबस सूनी नजर से उस हिमालय को तकते जो क़रीब होकर भी कितना दूर चला गया सा लगता है। मानो हिमालय के बीचोबीच बसे क़स्बे में न होकर वे किसी पोस्टर प्रदर्शनी के दरमियान हों।
पर जोशीमठ सदा से ऐसा नहीं था। विगत अस्सी कम पाँच बरसों में उसकी तबीयत बदली है। बक़ौल दादा शिपटन 1934 ई. के जोशीमठ में आधे मील की छेंटी पर दो बाज़ार, एक स्कूल, एक अस्पताल, पोस्ट ऑफ़िस तथा इक्का-दुक्का बड़े मकान हुआ करते थे। उन बड़े मकानों के अलावा वहाँ सब क़स्बानुमा था। लोग भी और उनकी जीवनचर्या भी। तब क़स्बे के गँवठी मकान थे सादा तबीयत। पत्थरों की दीवारें, पत्थरों की ही छत। दुमंजिला। ऊपरी माला इनसानों के लिए, नीचे वाला जानवर, घास आदि के लिए। इनसानी दुनिया में जानवरों का हिस्सा बराबर का। पर अब सब बदल गया है। नीचे जानवर, ऊपर आदमी वाले पत्थर-निर्मित दुमंजिला घर अब गुम हैं। सारा क्षेत्र आधुनिक तर्ज में बने बहुमंजिला इमारतों से अँटा है। दो बाज़ारों के बीच का वह अवकाश भी तो ढूंढे नहीं मिलता।
तंग सड़कें अब धुआँ छोड़ती गाड़ियों से बेजार हैं। और गलियाँ अँटी हैं रामनामी चादर ओढ़े लोगों से। दिल तो नहीं मानता पर लोग इन्हें साधु मानते हैं, सो अपन भी उन्हें यही कहेंगे। इन साधुओं की दृष्टि बुझी, दीदे राख रंग झुर्रीदार चेहरा ऐसा जैसे मैला-कुचैला सूती रूमाल। बेतरतीब दाढ़ी, रूखी जटाएँ। कलाई और गले में रुद्राक्ष माल। इन साधुओं की जायदाद में शुमार एक अदद पोटली। जिसमें कुछ लत्ते, एक कमंडल, पीतल (या एल्युमिनियम) की तश्तरी। कहने की आपाधापी में इनकी सबसे ख़ास पहचान तो बताना छूट ही रही है। वो यह कि इनके हाथ में होती है चिलम और इनको घेरे रहती है एक विचित्र गंध-पसीने और गाँजे की मिली-जुली गंध।
ये साधु बदरीधाम के इलाके में नए नहीं। पहले भी रहे होंगे। बल्कि थे ही। पर हमारे दादा शिपटन के शौक़ शायद पेट तक ही सीमित थे। उसने मुर्गा, गोश्त, अंडा और घी की तो बार-बार ढुँढ़ाई मचाई पर नशे के सामान का जिक्र तक नहीं निकाला। यदि तलाशता तो शायद तब के साधु भी उसे मायूस भी नहीं करते। बात निकली तो गाँजा प्रेमी साधुओं को लेकर बदरीधाम के रावल जी की चिन्ताएँ मुझे याद आ रही हैं। यह वाक़िया शायद 1965-67 का है। तब गुरु की तलाश में भटकता एक पठान नवयुवक रावल जी से रूबरू हुआ। उस समय रावल साहब ने उस पठान युवक, जो आगे चलकर योगी श्री एम. के नाम से विख्यात हुआ, को दो बड़े महत्त्व की बातें कहीं। पहली-हिमालय में भव-गंगा पार कराने का दावा करने वाले तो कई मिलेंगे, पर उनके जाने ऐसा कोई गुरु हिमालय में नहीं रहता। दूसरी- हर हाल में भगवा वस्त्रधारी उन साधुओं से बचना है, जो गाँजे के नशे में देखी दुनिया का वर्णन कर उस जैसे पढ़े-लिखे युवकों को बरगलाते हैं।
ख़ैर, गुरु-वुरु वाली बात पर कुछ कहना मेरे बस का नहीं, पर चिलमधारी साधुओं की जमात में निश्चित ही इज़ाफ़ा हुआ है। कई देशी-परदेशी युवा (अब अधेड़ भी) गाँजे की ललक से साल दर साल यहाँ आते हैं। ट्रैक पर निकलते हैं। साथ चल रहे स्थानीय और नेपाली भरिक मोटा पैसा ले इनके लिए नशे का इन्तज़ाम करते हैं। सनद रहे इसलिए कह दूँ कि यह सब सुनी-सुनाई बात नहीं, हमारा आप देखा है।
चलिए, हटिए जनाब इन बातों में कुछ नहीं रखा। जो बदलाव होने हैं सो होने हैं। लोग कहते हैं, समय की माँग है। वैसे 'समय' कहाँ खड़े होकर माँगता है, और भावनाएँ किन लोगों की आहत होती हैं, इसकी ख़बर किसी को नहीं। तथापि इन दोनों जुमलों ने सारे देश को बासती में झोंक रखा है। पर लोग जब उन तक नहीं करते, तब एक मेरे रोने-चिल्लाने से क्या तो हासिल होगा! वैसे भी अपन तो ठहरे पाखी। प्रवासी पाखी। दो-चार दिनों का डेरा अपना। इन चन्द दिनों को खामखयाली में बरबाद करना ठीक नहीं। सो, चलिए अपन थोड़ा बाज़ार घूमते हैं। यहाँ जो नृसिंह मन्दिर है और जो शंकाराचार्य का मठ है उनकी ढुँढ़ाई-सुँढ़ाई करते हैं। कुछ खाना-खुना करते हैं। और करते हैं पान पुन का इन्तज़ाम भी। दोस्तो, दुमदार शब्दों को सुन चौंकिए मत। अब ऐसे जुमलों से हमारा सामना बारम्बार होने वाला है। इस तरह बोलने की इधर रवायत जो ठहरी। जैसे चाय की तलब होने पर वे कहेंगे 'कुछ चाय-चुई पी लें सर', या आवाजाही के वास्ते वे ढूँढ़ेंगे 'टैक्सी टुक्सी'। खैर, यहाँ की हवा में तिरते इन जुमलों को मुल्तवी रख हम आगे बढ़ लें तो बेहतर वरना यह फ़ेहरिस्त चन्द्रकान्ता संतति की सी लम्बी हो जावेगी।
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