जब मैं अपने बीते दिनों पर एक नजर डालता हूँ तो मुझे अनुभव होता है कि राजनीति के क्षेत्र में मेरा प्रवेश वास्तव में सामाजिक कार्यों में हमारी निरन्तर भागीदारी और झुकाव का स्वाभाविक विकास था। हमारे अपने परिवार की राजनीतिक प्रतिबद्धता को देखते हुए कांग्रेस पार्टी में नहीं बल्कि पीजेंट्स एंड वर्कर्स पार्टी ऑफ इंडिया (पीडब्ल्यूपी) में शामिल होना चाहिए था। हालाँकि हमारी माता जी ने पुणे के लोकल बोर्ड के सदस्य का चुनाव कांग्रेस पार्टी के टिकट से ही जीता था परन्तु वह वैचारिक रूप से पीडब्ल्यूपी के ही समीप थी। मेरे बड़े भाई वसन्त राव पीडब्ल्यूपी पार्टी के सक्रिय सदस्य थे और उन्होंने 1960 के मध्यावधि लोक सभा चुनाव में संयुक्त महाराष्ट्र समिति के टिकट से चुनाव लड़ा था।
1940 के दशक के उत्तराद्र्ध और 1950 के दशक के पूर्वाद्र्ध में पीजेंट्स पार्टी एक वामपंथी राजनीतिक शक्ति के रूप में देखी जाती थी, यद्यपि वर्तमान महाराष्ट्र में इसका प्रभाव कुछ ही पॉकेटों तक सीमित हो गया है। पीडब्ल्यूपी पार्टी का निर्माण केशवदास जेधे, शंकरराव मोरे और दत्ता देशमुख ऐसे कद्दावर नेताओं ने कांग्रेस से अलग होकर किया था। इस नई पार्टी की स्थापना का उनका उद्देश्य माक्र्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा को प्रोन्नत करना था। इन तीन नेताओं की मंडली कांग्रेस की आर्थिक नीतियों से असन्तुष्ट थी। पीडब्ल्यूपी में 1951 में विभाजन हो गया और केशवदास जेधे कांग्रेस में पुन: वापस चले गए। वर्तमान में मेरी बहन सरोज के पति एन.डी. पाटिल उस पार्टी को नेतृत्व प्रदान कर रहे हैं।
मेरे घर में समय-समय पर बाई, वसन्तराव, शंकरराव मोरे, केशवराव जेधे, रघुनाथराव खादीलकर और तुलसीदास जादव के बीच जो वार्तालाप होता था, उसमें अनेक वैचारिक और सैद्धान्तिक प्रश्नों पर बहस में मैं भी सहभागी होता था। मोरे और खादीलकार को व्यापक रूप से बुद्धिजीवी होने का सम्मान प्राप्त था। चूँकि मेरी उम्र के लोगों की बात सुनी नहीं जाती थी, इसलिए मैं बड़े ध्यान से तल्लीन होकर उनकी बातें सुनता था। इन लोगों में केशवराव जेधे व्यापक जनाधार वाले व्यक्ति थे और उनके साथ कोई भी आसानी से बात कर सकता था, जाधव भी ऐसे ही व्यक्ति थे।
नाना पाटिल और कर्मवीर भाउराव जैसे क्रान्तिकारी नेता भी अक्सर ही हमारे घर आते रहते थे। भाउराव एक सन्त की तरह थे और वह राजनीति में सक्रिय नहीं थे परन्तु शिक्षा और सामाजिक सुधार के क्षेत्र में उनका बड़ा अग्रणी कार्य था और उनको इस क्षेत्र का अग्रदूत कहा जा सकता है। संक्षेप में कहा जाए तो राजनीतिक सक्रियता और सामाजिक सुधार की सक्रिय समानान्तर धाराओं का नियमित आवागमन मेरे घर में था। दोनों धाराओं के प्रवक्ता अपने-अपने क्षेत्र के प्रकाश स्तम्भ थे और सरलता से प्रभावित होनेवाला व्यक्ति किसी भी तरफ जा सकता था।
मैं उस समय भी सामाजिक सक्रियता के महत्त्व को मानता था और आज भी इसके महत्त्व को स्वीकार करता हूँ इसीलिए तो मैं आज भी सामाजिक कार्यों में सक्रिय हूँ। मैं जब कॉलेज का छात्र था, मैंने उसी समय सक्रिय राजनीति को चुन लिया था। सम्भवत: मैंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उस उम्र में भी मैं यह समझ गया था कि राजनीति ही वह केन्द्र है जहाँ सामाजिक सुधार सहित सभी महत्त्वपूर्ण फैसले लिए जाते हैं और उनका अन्तिम निर्णय वहीं होता है। जब तक निर्णय लेनेवाली प्रक्रिया का आप हिस्सा न बनें तब तक आप प्रभावशाली कैसे हो सकते हैं?
19वीं सदी के अन्त में और 20वीं सदी के प्रारम्भ में लोकमान्य तिलक, और गोपाल गणेश अगरकर उस ओजस्वी बहस के साक्षी बने जिसमें दो तरह की स्वतंत्रता की बात थी—ब्रिटिश शासकों से राजनीतिक आजादी या राजनीतिक सुधार में से किसको प्राथमिकता देनी चाहिए। हालाँकि अगरकर सामाजिक सुधार के सच्चे पुरजोर समर्थक थे, तो तिलक स्वतंत्रता आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। वह तर्क पेश करते कि एक बार भारत स्वतंत्रता प्राप्त कर ले, फिर समाज सुधार को और भी प्रभावकारी तरीके से लागू किया जा सकता है।
दशकों बाद महाराष्ट्र के प्रथम कांग्रेसी मुख्यमंत्री और कांग्रेस के लीडर वाई.बी. चव्हाण ने कहा कि वह भी विश्वास करते हैं कि सामाजिक सुधारों को सर्वाधिक प्रभावशाली तरीके से राजनीति के द्वारा ही लागू किया जा सकता है। वाई.बी. चव्हाण ने मुझे मेरी युवावस्था में सर्वाधिक प्रभावित किया। उनके अतिरिक्त पंडित जवाहरलाल नेहरू की भी छाप हमारे ऊपर पड़ी। हालाँकि मैं पीडब्ल्यूपी के नेताओं की ईमानदारी, सत्यनिष्ठा और सादगी की प्रशंसा करता था परन्तु धीरे-धीरे मैं इस बात से सहमत होता गया कि भारत का भविष्य कांग्रेस के हाथों में ही सुरक्षित है और इसी के नेतृत्व में विकास सम्भव है। 1958 में किसी समय मैंने पुणे के कांग्रेस भवन में पार्टी की सक्रिय सदस्यता लेने के लिए प्रवेश किया।
बीएमसीसी कॉलेज में अपनी शिक्षा के अन्तिम वर्ष में कॉलेज जिमखाना के महासचिव पद की जिम्मेदारी उठाते हुए मैंने छात्रों को सम्बोधित करने के लिए परिसर में वाई.बी. चव्हाण को आमंत्रित करने की पहल ली। वह उस समय एक प्रसिद्ध राजनीतिक व्यक्तित्व और कद्दावर नेता थे। वह एक बहुत अच्छे वक्ता भी थे। वह जो कुछ कहते, वह उनके समर्पण और दिल से निकली हुई बात होती। उन्होंने हमारे कॉलेज में एक ओजपूर्ण, उत्साहवद्र्धक भाषण दिया। वह सचेत थे कि मैंने उनको विद्यालय में बुलाने की पहल की है, इसलिए अपना भाषण समाप्त करने के बाद उन्होंने मुझे मंच पर बुलाया और कहा कि ऐसे नौजवानों को चाहिए कि वे कांग्रेस में शामिल हों और राजनीतिक में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए आगे आएँ। मैंने पहले ही
यह काम प्रारम्भ कर दिया था परन्तु चव्हाण साहेब के शब्दों ने हमारा उत्साहवद्र्धन किया और मेरे आत्मविश्वास में वृद्धि की।
कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ग्रहण करने के बाद मैं पुणे के पार्टी कार्यालय में अक्सर जाने लगा। हमारी ही तरह के अन्य युवक भी दीवारों से घिरे कांग्रेस भवन के एक छोटे परिसर में अपना अधिक समय आपसी बातचीत में बिताते जिसे हम लोग ‘कट्टा कांग्रेस’ कहते। [‘कट्टा’ शब्द मराठी की बोलचाल की भाषा का शब्द है जिसका अर्थ सार्वजनिक स्थल पर कुछ लोगों की मीटिंग से है।] चाय-पकौड़े के साथ हम लोग राजनीति और नेताओं के विषय में चर्चा करते। हम लोगों का अधिकतर सम्बन्ध स्थायी वरिष्ठ कांग्रेसी नेता भाउ साहेब शिराले और राम भाउ तेलंग जैसे लोगों से रहता। वे कांग्रेस का मजबूत स्तम्भ थे और पुणे म्युनिसिपल कारपोरेशन (पीएमसी) की राजनीति में उनकी गहरी पैठ थी। इन लोगों के सान्निध्य में हमने बहुत समीप से यह अध्ययन किया कि जमीनी स्तर पर राजनीति कैसे होती है।
इसी समय पुणे म्यूनिसिपल कारपोरेशन (पीएमसी) की कमेटी में चेयरमैन पद के चुनाव का भी समय पूरा हो रहा था। चूँकि कांग्रेस और इसकी मुख्य विपक्षी पार्टी संयुक्त महाराष्ट्र समिति (एसएमएस) के सदस्यों की संख्या लगभग बराबर थी इसलिए ऊँट किसी भी करवट बैठ सकता था। चुनाव की पूर्व बेला पर भाउ साहेब ने मुझको बगैर यह बताए कि हम कहाँ जा रहे हैं, मुझे कार में बैठने को कहा। इसके बाद हम लोगों ने एसएमएस के एक सभासद को अपनी कार में बिठाया और पुणे से 40 किलोमीटर दूर एक डाक बँगले में पहुँच गए। कुछ समय बाद वह सभासद व्याकुल हो उठा और पुणे वापस जाने की बात करने लगा। हालाँकि भाउ साहेब ने उसके बहानों पर ध्यान नहीं दिया और उसको वार्तालाप में उलझाए रखा। उस अँधेरे बँगले के बाहर मुझे सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गई। मैं मुस्तैदी से चौकीदार की भूमिका निभाता रहा। दूसरे दिन सुबह जब पीएमसी में वोटिंग होनी थी तब हम एसएमएस के उस सभासद के साथ पुणे वापस आ गए। उसकी पार्टी एक वोट से चुनाव हार गई। स्थानीय अखबारों ने एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और उसके सहयोगियों द्वारा सभासद को ‘अगवा’ करने की कहानी छापी। अखबारों ने छापा कि इसी कारण एसएमएस की हार हो गई। अखबार की यह खबर पढ़कर मैं आतंकित हो गया और भागा-भागा सीधे भाउ साहेब के पास पहुँचा।
मैंने भाउ साहेब से कहा, ‘हम लोगों को अब क्या करना चाहिए? यदि कल अखबारों में मेरा नाम छपा, तो कॉलेज मुझे निश्चित रूप से सस्पेंड कर देगा और मुझे घर से भी निकाल दिया जाएगा?’
भाउ साहेब ने बिलकुल स्पष्ट और शान्त भाव से कहा, ‘तुम किस बारे में बात कर रहे हो? मैं कुछ नहीं समझ पा रहा हूँ कि तुम क्या कह रहे हो?’
मैं और भी आतंकित हो गया, ‘सभी अखबारों ने सभासद के ‘अगवा’ करने की कहानी छापी थी। यदि उन्होंने यह सब भी छाप दिया कि हम सब आपकी कार में गए थे...’
उन्होंने मेरी बात काटते हुए आश्चर्य और भय-भरी मुद्रा में कहा, ‘इधर आओ! तुम क्या कह रहे हो? मैं तो पिछले तीन दिन से अपने घर से बाहर ही नहीं निकला हूँ। मैंने अपने घर से बाहर कदम भी नहीं रखा।’ इसके बाद मैं शान्त हो गया और भाउ साहेब ने मुझे घर वापस जाने को कहा। सौभाग्य से सारा मामला एक-दो दिन में शान्त हो गया।
महाराष्ट्र में 1962 में सम्पन्न हुए विधान सभा चुनाव में मुझे सक्रिय राजनीतिक भागीदारी का अवसर प्रदान किया। एम.जी. बर्वे (आईसीएस) और पुणे म्यूनिसिपल कारपोरेशन के पूर्व कमिश्नर बहुत ही सच्चे और ईमानदार व्यक्ति थे, उनको पुणे की एक विधान सभा सीट—शिवाजी नगर से कांग्रेस का उम्मीदवार घोषित किया गया। उनके प्रमुख विरोधी उम्मीदवार जनसंघ पार्टी के रामभाउ म्हालगी थे। मुझे बहुत सरल कार्य सौंपा गया था। मुझे अपने दोस्तों के साथ साइकिल से जाकर पूरे शहर के विभिन्न प्रमुख स्थानों पर पोस्टर चिपकाना था। मैं अपनी टीम में सबसे लम्बा था इसलिए उपयुक्त स्थान पर मेरे साथी साइकिल को दोनों तरफ से मजबूती से पकड़ लेते और मैं सीट पर खड़ा होकर पोस्टर चिपकाता।
वोटरों के नाम की पर्ची लिखना और उनको वितरित करना एक अति महत्त्वपूर्ण और केन्द्रीय कार्य था। एक दिन शाम को पुणे में प्रभात रोड की बस्ती में एक घर का दरवाजा खटखटाया। घर के दरवाजे पर लगी नेम प्लेट से पता चला था कि यह घर बिग्रेडियर राने का है। एक उम्रदराज भद्र पुरुष ने दरवाजा खोला उनका विचित्र चेहरा कुछ अधिक बड़ा लग रहा था। मैंने कहा, ‘हम लोग कांग्रेस के कार्यकर्ता हैं। हम अपनी पार्टी के लिए आपसे वोट और समर्थन की आशा करते हैं।’
‘कांग्रेस? इसे भूल जाओ। मैं तुम्हारी पार्टी को कभी भी वोट नहीं दूँगा।’ यह उनका प्रतिकारपूर्ण उत्तर था।
कुछ वर्षों बाद मुझे ज्ञात हुआ कि मेरी शादी ब्रिगेडियर राने की पोती प्रतिभा से हुई है।
इसी बीच बर्वे चुनाव में विजयी हो गए और महाराष्ट्र सरकार में उनको वित्तमंत्री की जिम्मेदारी सौंपी गई।
इसी वर्ष भारत-चीन युद्ध छिड़ गया था। पूरे देश में देशभक्ति की एक लहर-सी चल पड़ी थी। हम पुणे के युवक भी कुछ करने का विचार बना रहे थे। चूँकि हम लोगों के पास सभी विद्यालयों में संगठन था इसलिए हम लोगों ने चीन के विरोध में एक लम्बा मार्च निकालने का फैसला लिया।
इस रैली को सम्बोधित करने के लिए हमने सबसे पहले पुणे विश्वविद्यालय (वर्तमान में सावित्री बाई फुले विश्वविद्यालय) के तत्कालीन उपकुलपति दत्तो वामन पोतदार से सम्पर्क किया। उन्होंने असहमति व्यक्त की, शायद उनको इस रैली की सफलता पर विश्वास न हुआ हो।
हम लोगों ने रैली की शानदार सफलता के लिए हर सम्भव प्रयास किया और हमें आश्चर्यजनक परिणाम प्राप्त हुआ। जैसे-जैसे प्रदर्शन सड़कों से होकर गुजरता, हर तरफ से झुंड के झुंड लोग शामिल होते गए। जब हम लोग अपने निर्दिष्ट ऐतिहासिक स्थान शनिवारवाड़ा पहुँचे तो रैली का दूसरा छोर कम से कम तीन किलोमीटर दूर था।
वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी और पूर्वमंत्री एन.वी. गाडगिल (काका साहेब) इस आयोजन में मुख्य अतिथि थे और वक्ताओं में मैं भी था। काका साहेब ने शानदार रैली की भूरि-भूरि प्रशंसा की और वक्ताओं की भी तारीफ की।
उन्होंने कहा, ‘मुझे फिर भरोसा हो रहा है कि महाराष्ट्र का भविष्य तुम्हारे जैसे युवाओं के हाथ में सुरक्षित है।’ और उन्होंने शाबाशी देते हुए मेरी पीठ थपथपाई।
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