एक अकेला दुख
राजकमल ब्लॉग के इस अंक में पढ़ें, ममता कालिया के कहानी संग्रह 'पचीस साल की लड़की' से उनकी कहानी 'एक अकेला दुख।’

चिलक, चोट या झटका। नहीं, इन तीनों से बड़ा अनुभव। यह आज की शाम है उमस और पसीने से भरी। कितने दिन बीते हैं होली को। बस पन्द्रह। होली का अगला रोज था। होली  के दिन शहर जितना रंग और मिठास से पगा था, परीवा के रोज उतना ही सन्नाटा खिंचा था हर तरफ। बिलकुल कर्फ्यू का माहौल। पता नहीं लोग घरों में आराम कर रहे थे या दूसरों के घरों को आबाद।

उस दिन का खयाल आज भी नीता को दहला देता है। विचार के पेट में तीखा दर्द उठा था। पत्नी ने सामान्य पेट-दर्द समझ उसे दवा की टिकिया दे दी। दर्द बढ़ता गया। विचार ने पास के डॉक्टर बहल को फोन किया। नौकर ने जवाब दिया—डॉक्टर साब घर पर नहीं हैं। आज दवाखाने की छुट्टी है। कई अन्य डॉक्टरों को फोन करने पर भी यही जवाब मिला। हारकर विचार को वही करना पड़ा जो हर बार करना पड़ता था, पर वह चाहता नहीं था। अपनी छोटी बहन, नीता को फोन।

नीता आनन-फानन जॉर्जटाउन पहुँच गई। पसीने से भीगा उसका सर्वांग देखकर विचार समझ गया कि वह किस स्पीड से स्कूटर दौड़ाकर लाई है। दर्द पेट के गढ़े में शूल चला रहा था। वह किसी तरह स्कूटर की पिछली सीट पर बैठा। उसके शिथिल हाथों का भार नीता के नाजुक कन्धों पर आ गिरा।

आज शाम के इस झुटपुटे में नीता को बेहद मलाल है। उसके कूड़ दिमाग का कब और कैसे इतना सरकारीकरण हो गया कि वह भाई को प्राइवेट नर्सिंग होम की जगह जवाहरलाल नेहरू अस्पताल ले गई। रास्ते में जो स्पीड ब्रेकर पड़े, उन पर विचार कैसे कराहा था। आज भी उन स्पीड ब्रेकरों से गुजरते नीता को वह कराह सुनाई देती है। उसका मन करता है कुदाल लेकर वह इन सीमेंट के फोड़ों को समतल कर दे।

भाभी मीना दो घंटे बाद हॉस्पिटल पहुँचीं। परीवा के दिन रिक्शे भी तो नहीं चलते। गुड्डू कहीं गया हुआ था। जैसे ही लौटा भाभी उसकी मोपेड पर दौड़ी आईं।

विचार के गॉल ब्लैडर में स्टोन था। ऑपरेशन और वह भी हार्ट पेशेंट का, जिसकी बाइपास सर्जरी को महज दो साल पाँच महीने बीते हों। डॉ. सिपाहा ने कह दिया—“देखिए हम इन्हें 40 प्रतिशत से ज्यादा चांस नहीं देते। लीजिए, ये कागजात साइन कीजिए।”

ओह, डॉक्टर 40 प्रतिशत या कोई भी प्रतिशत आपके पेशे की भाषा है पर जिसका मरीज इस वक्त लाल कम्बल से ढँका ओ.टी. के गलियारे में लेटा है, उसके कलेजे से पूछो, वह कैसे रोके अपनी हिलकियाँ। यह तो शत-प्रतिशत उसका भाई है, पिता के निधन के बाद आधा पिता, आधा भाई। उसका सबसे अच्छा दोस्त जो न सिर्फ उसके सपने समझता है वरन् उसकी हताशाएँ भी।

मीना ने गुड्डू से पेन लेकर कागजात पर हस्ताक्षर कर दिए।

विचार की स्ट्रेचर ट्राली अन्दर गई, उसके पीछे सक्शन मशीन और ऑक्सीजन सिलिण्डर।

बेंच पर बैठे प्राणी देख सकने के सिवा और क्या कर सकते हैं। आस्तिकों का कहना है कि यह समय प्रार्थनाओं का होता है। जब अपना मनोबल समाप्त हो जाए, तब रेंगता हुआ मनुष्य ईश्वर की शरण में जाए। यही भक्ति और आस्था है, इसी में से चमत्कार पैदा होता है।

नीता के लिए वर्तमान एक चुनौती तो अतीत एक शरण-स्थल है। इस पल जब उसे विचार के क्राइसिस के बारे में सोचना चाहिए, उसे क्यों याद आ रहा है वह दिन, जब उसके पैर के पंजे में फोड़ा निकला था और विचार उसे पीठ पर लादकर स्कूल ले गया था या वहवाला दिन जब उसे नींद आ गई थी और आधी रात तक जागकर विचार ने उसका होमवर्क पूरा किया था।

तभी गुड्डू की रुँधी आवाज आई—“बुआ, यह देखो क्या हो रहा है?”

दो वार्ड बॉय आगे-पीछे ओ.टी. से निकले। एक, सक्शन मशीन घसीटकर ले जा रहा था तो दूसरा ऑक्सीजन सिलिण्डर। कलेजा मुँह को आ गया। खेल खत्म। दोनों उपकरणों की जरूरत समाप्त। गुड्डू को इंगित किया।

वह वार्ड बॉय के पीछे दौड़ा।

लौटते हुए उसके चेहरे पर अद्भुत चमक थी, उम्मीदों की हरियाली। उस एक क्षण में गुड्डू विचार का प्रतिरूप हो गया था। वार्ड बॉय कल की सिलिण्डर और सक्शन मशीन ले जा रहे थे।

उसके बाद न कोई आवाज न जुम्बिश। मनहूस सन्नाटा। घड़ी की टिक-टिक के साथ क्या सलूक किया जाए, यह भी काबिले बहस सवाल। जिनके अजीज ओ.टी. में टेबिल पर हों, वे बेंच पर बैठे क्या करें। डॉक्टर की दी हुई 40 प्रतिशत आशा में उछलें या काल की ली हुई 60 प्रतिशत आशंका में गर्क हो जाएँ।

संकट का कोई घोषित पल नहीं होता। भय का मारा खुद ही तय कर लेता है, यह है वह निर्णायक क्षण, इसमें कुछ होना है या नहीं होना है। नीता को अचानक पेट में हौल हुआ। बाकायदा पेट पर ब्लेड की चिलक। आह, भैया को काटा जा रहा है, उसे रुलाई उमड़ आई। उसने देखा गुड्डू भी दीवार पर बाँह टिकाए सुबुक रहा है। एकाएक वह उठी, महामाता की तरह। गुड्डू की पीठ उसका आशीष बिन्दु बन गई।

“तुम एक बहादुर पापा की सन्तान हो। देखा, बाइपास सर्जरी वह कैसे झेल गए। हँसते-हँसते। और होली पर तुम्हारे दोस्तों को कैसे दही की गुझिया सजा-सजाकर खिलाई थी, यह मेरे भैया हैं, इन्हें कुछ होगा थोड़े ही। देखना, अभी घंटे भर में होश में आ जाएँगे।”

बेंच के दूसरे छोर पर मीना चुपचाप बैठी शून्य में ताक रही थी।

“भाभी, तुम क्या सोच रही थीं। तुम उठकर न मुझ तक आईं न गुड्डू तक।”

“मैं दुर्गा सप्तशती का पाठ कर रही थी, देवी माँ जो चाहें करें।”

नीता स्तम्भित देखती रह गई इस स्त्री को, जिसकी माँग में भाई का दिया सिन्दूर और कलाइयों में चूड़ियाँ जगमगा रही थीं। इतनी ठंडी निर्विकारता दुर्गा सप्तशती के पाठ से उपजती है तो वह कल से ऐलान कर देगी कि घर-घर दुर्गा-द्रोही पैदा हों।

नीता को याद आया, बाइपास सर्जरी के बाद भाई का भाभी पर वह झुकना, भाभी का अनखना।

“मीना, तुमने गोली आधी करके नहीं रखी, मैं नहीं खाता।”

“मीना, अनार का जूस कसैला लगता है, चखकर देखो।”

“मीना, मेरे आने के बाद बाजार मत जाया करो, आई वाण्ट यू।”

भाभी मीना हर बात पर अपने पतले होठ कसकर भींच लेतीं। कहती कुछ नहीं पर यन्त्र की तरह आग्रहों का रूपान्तरण कर देतीं।

विचार झुँझलाते—

“यह मेरे आने से पहले ही, जग में पानी, मेज पर दवा और तश्तरी में फल क्यों सजा दिए हैं मीना। यह निपटा देने जैसी बात हुई न। मैं घर का हूँ या आन-गाँव का।”

भाभी मीना कुछ नहीं बोलतीं। उनके पतले होठ कुछ और भिंचकर फैल जाते।

चुप्पी एक चिक की तरह होती है, महीन तीलियों से बुनी। उसके आर-पार दिखाई नहीं देता।

जब विचार घर आ गए, बहुत से परिचितों का आना कम हो गया। उन्होंने सोच लिया, सेवा के लिए पत्नी है, दौड़-भाग के लिए बेटा है, सलाह के लिए बहन है, एक मरीज को इससे अधिक और क्या चाहिए।

घर में अभी होली की गुझिया समाप्त भी नहीं हुई थीं कि मातम मन गया। जाते समय विचार ने कोई नाटक, कोई चीख-पुकार नहीं की। सोते-सोते उनके दिल ने यकायक टिक-टिक करना बन्द कर दिया। उनकी मौत का समय किसी को नहीं पता चला, सिवा उनकी ऑटोमैटिक घड़ी के जो दो चालीस पर जाम हो गई।

वह सुबह विलाप और प्रलाप की थी। एक बदहवास सुबह। मीना का गोरा चेहरा सुतकर सफेद हो गया। गुड्डू ने अभी पूरा कद भी नहीं निकाला था, असमय झुक गए उसके कन्धे।

नीता अलग घर में रहती थी। घर के कपाट खुले छोड़ वह भागी चली भाई के घर। उसके हजार शगुनोंवाला घर नाम-अनाम लोगों की आवाजाही से भरा था। आँगन के पौधे कुचले पड़े थे, बर्फ की सिल्लियों से पानी बह-बहकर कमरे को गलतागल्त कर रहा था। विचार कर्लऑन के गद्दे से उठाकर रखा जा चुका था नीचे, जमीन पर जहाँ अगरबत्तियों से उठता मनहूस धुआँ था और धुन्ध।

अन्तिम संस्कार के बाद ही दृश्य पर भाभी मीना के घरवालों का प्रवेश हुआ था, माँ, भाई और मामा। अगर शहर में फैला समाज अपनी शोकमग्नता में विचार के परिवार को नश्वरता से जुड़े नैराश्य में ला रहा था जो घरवाले उसे नैरन्तर्य की अनिवार्यता का एक नया पाठ पढ़ाने आ गए। उन्होंने हर समस्या को खड़े से लोक लिया अपनी अंजलि में, श्राद्ध कर्म, मकान की बकाया किस्तें, गुड्डू का एम.बी.ए. में दाखिला और आगामी जीवन की जवाबदेही।

नीता की आँखों के नदी-नाले देखनेवाला यहाँ कोई नहीं था। अकेली बहन का दु:ख भी अकेला। यहाँ तो सब भाभी मीना के पुनरुत्थान में जुटे थे। मामा ने अपनी समस्त काली कमाई की शक्तियों का आान किया—“मैं गुड्डू को एम.बी.ए. कराऊँगा।”

नानी ने अपना संचित धन न्योछावर किया—“मैं मीना के घर की बकाया किस्तें दूँगी।”

भाई ने अपनी व्यवसाय बुद्धि का परिचय दिया—“मीना को हम एक पल भी बेसहारा नहीं छोड़ेंगे।”

नीता बैठी सोचती रही—“क्या इन इन्तजामों से भाभी का जीवन-साथी वापस आएगा। वह तो वहाँ घाट पर, पीपल की डाल पर लटका हुआ है एक भीगी थैली में।” और उसका अपना लुटा हुआ लड़कपन जो भाई के रहते जब-तब ठुनकता था, मचलता था, निहाल होता था। दोनों मिल-बैठकर जब जगजीत सिंह की आवाज में ढूँढ़ निकालते थे अपने-अपने अतीत के पल-प्रतिपल।

सिर्फ उनतीस दिन बाद की बात है, नीता जार्जटाउन के उस घर में पहुँची थी कि आज भाभी को उसकी जरूरत होगी। आज भैया-भाभी की शादी की बाईसवीं सालगिरह थी। कितनी अकेली होंगी वे। वह बैठी रहेगी भाभी को बाँहों में थामे।

घर में नल उसी रफ्तार से बह रहा था। कमरा पुराने सुर में सजा था। टीवी के ऊपर विचार के चित्र पर चन्दन का हार था पर भाभी की आँखें सूखी थीं। वे अलमारी से भैया के कपड़े उठाकर बक्से में रख चुकी थीं। अलमारी के हर हैंगर पर गुड्डू के कपड़े टँगे थे। मेज पर शर्बत के जूठे गिलास थे, कैलेंडर में एक नया दिन था हालाँकि घड़ी अपने पुराने अन्दाज में टिक-टिक कर रही थी। विचार की ऑटोमैटिक घड़ी गुड्डू की कलाई पर चमक रही थी।

मीना बेटे से कह रही थी—“इतने चने भिगो देते हो, खाते नहीं हो, कम भिगोया करो न।”

“मैं तो खाता हूँ, तुम भी खाया करो न माँ। तुम स्ट्राँग हो जाओगी। आई वाण्ट ए स्ट्रांग मम्मा।”

मीना के पतले होठ निश्चय में भिंचकर फैल गए—“मैं पहले ही बहुत स्ट्रांग हूँ गुड्डू।”

नीता को अपनी उपस्थिति मूर्ख और असंगत लगी। क्यों आती है वह लौट-लौटकर शोक मनाने, क्यों पहनती है वह सफेद और सिलेटी साड़ियाँ। क्या वह इस परिवार के दुर्दिनों की दुखद श्रद्धांजलि है?

कुछ देर की निष्क्रिय अवसन्नता के बाद नीता स्वस्थ हुई। अच्छा लग रहा था गुड्डू को इधर-उधर, हर जगह, प्रतियोगी परीक्षाओं के आवेदन-पत्र भरने में व्यस्त देखकर। कौन कहता है भाई घर से अनुपस्थित हैं। वे तो हर कहीं हैं, गुड्डू की आँखों के भूरेपन में, उसके मुड़ने के खम में, उसकी हँसी में। उनकी छुई और सजाई ये तस्वीरें, आँगन में लगे कैक्टस और फर्न, छत पर चढ़ी चमेली, सभी में तो बसे हुए हैं भाई।

लगातार काफी देर तक काम करने पर मीना पसीने से भीग गई। आकर तख्त पर बैठ गई। नीता ने पैडेस्टल पंखा भी चला दिया। याद आया भाई, छत के पंखे के साथ-साथ पैडेस्टल पंखा जरूर चलाते थे। मीना कहती—“बिजली का बिल?” विचार कहते—“अभी मौसम से लड़ने दो, बाद में बिल से लड़ेंगे।”

ये छोटी-छोटी ऐयाशियाँ कितनी अजीज थीं विचार को। इसीलिए हर चीज का दुहरा-तिहरा इन्तजाम किया था उन्होंने। नल में पानी कम आता है, उन्होंने बिजली की मोटर लगवा ली। बार-बार ट्रांसफॉर्मर उड़ जाता है, गर्मी लगती है, उन्होंने इनवर्टर लगवा लिया। एक स्कूटर होने से उनके और गुड्डू के बीच खींचतान मची रहती थी, उसे मोपेड दिलवा दी। मकान की किस्तें वेतन से कट रही थीं। आँगन में उगे बीस-तीस पौधे, दो लतरें और एक पेड़वाले मिनी आँगन को वह अपनी बगिया कहते थे। बस एक काम शेष था। पर उसे वह कभी पूरा करना नहीं चाहते थे। मीना नौकरी करना चाहती थी, वे इस बात के विरुद्ध थे। कहते—“जो मुझे मिलता है, तुम्हारे हाथ पर रख देता हूँ। तुम घर की रानी हो, बाहर जाकर वेतनभोगी नौकर बनो, इसकी क्या जरूरत है।” दोस्तों से कहते—“यह गर्म नाश्ते का सुख केवल मीना दे सकती है। काम पर जानेवाली बीवियाँ तो ब्रेड और बिस्किट से घर चलाती हैं।”

“भाभी, आज सुबह से मेरी आँखों के सामने एक ही तसवीर बार-बार आ रही है। आप गुड़िया जैसी नन्ही-मुन्नी दुलिहन बनी आज ही के दिन भैया के साथ हमारे घर आई थीं। कैसे सात फेरे लेते ही आप हमारी भाभी बन गईं, पापा-मम्मी की बहू और मुन्नी दाई की बीबीजी।”

“इन यादों को कलेजे से चिपकाना फिजूल है। मेरी शादी खत्म हो गई।”

भाभी ने उदास आँखों और खुश्क होंठों से कहा।

“इसका मतलब यह तो नहीं कि आप मेरी भाभी नहीं या गुड्डू मेरा भतीजा नहीं।”

“जो भी समझ लो या न समझो।”

नीता रुआँसी हो गई—“सिर्फ उनतीस दिनों में जीवन के इक्कीस साल नकारने का हक आपको किसने दिया भाभी? भैया ने आपको बहुत प्यार दिया है, उन्हें स्मृति का सम्मान तो दीजिए।”

मीना थोड़ी खिसककर बैठ गई—“क्या उसमें भी तुम्हारा हिस्सा होगा?”

“स्मृति का कोई बैंक एकाउंट तो होता नहीं, न उसका पट्टा लिखवाया जाता है; आपका अकेलापन बाँटने आई थी पर आप तो मुझे बिलकुल काटकर फेंक रही हैं।” नीता का गला रुँध गया।

तभी गुड्डू आया। उसके हाथ में कई आवेदन-पत्र थे—“बुआ चलिए, आपको छोड़ आऊँ, रास्ते में ये चिटि‍्ठयाँ भी डाल दूँगा।”

नीता चुप और सन्न मोपेड के पीछे बैठी रही। हृदय पर भाभी की बातें चीरा लगा रही थीं।

गुड्डू उसके साथ घर के अन्दर तक चला आया। नीता को कुछ राहत मिली। भैया का प्रतिरूप यह गुड्डू किस कदर उसका अपना है।

नीता से रहा नहीं गया। भैया के लगाए गए गुलमोहर की छाया तले वे बैठे ही थे कि उसने कहा—“मीना भाभी ने आज मेरा दिल तोड़कर रख दिया। उनका जैसे हमसे कोई रिश्ता ही नहीं।”

गुड्डू ने अपनी भूरी, गहरी आँखें गुलमोहर की फुनगी की ओर उठाकर मूँद लीं। नहीं, वह आँखें खोलकर बुआ का बुझा हुआ चेहरा देखेगा तो बोल नहीं पाएगा।

“बुआ, हर एक का टूटने और खड़े होने का अपना ढंग होता है। मैंने सुनीं आप दोनों की बातें।”

“बता, क्या मैं गलत थी? तेरे इतने अच्छे पापा, क्या मीना उनतीस दिन भी नहीं दे सकती याद और अवसाद के?”

“बुआ, आप और माँ दो अलग व्यक्ति हैं, आप प्रोटोटाइप नहीं हो सकते। आपका सुख, दु:ख और याद करने का ढंग बिलकुल अलग है। माँ जब पापा को याद करती हैं तो मुझे छोटा-सा पापा बना देती हैं। उसी तरह मुझे एक-एक चीज पकड़ाती जाती हैं, घड़ी, चश्मा, रूमाल। यह नहीं कह सकते कि वे पापा को याद नहीं करतीं। इससे ज्यादा वे यादों में जिएँगी तो भरभरा कर गिर जाएँगी। आप उन्हें गिराना चाहती हैं या उठाना?”

“गुड्डू स्मृति, एक श्रद्धांजलि होती है और सम्मान।”

“जो कर्तव्यों की कड़ी धूप में खड़ा हो उसके लिए स्मृति एक अवरोध है, एक बाधा।”

“तुम्हें अपनी माँ का पक्ष लेना है जस या तस।”

“नहीं बुआ, मैं आपका दुश्मन नहीं हूँ, नन्हा बेटा हूँ आपका। पर आप मृत्यु की बजाय जिन्दगी के पक्ष में सोचिए न। अभी मुझे क्वालिफाय करना है, दूर पढ़ने जाना है, दो साल बाद कोई नौकरी मिलेगी। तब तक आत्मसम्मान से जीने का कोई साधन तो हो उनके सामने...।”

“कितनी बार उन्हें समझाया मैंने, कि मकान किराये पर चढ़ा दें और मेरे पास आकर रहें। हम दोनों एक-दूसरे का अकेलापन बाँट लेंगे।”

“यों कह लीजिए वे बाईस साल बाद एक पराजित जीवन नहीं जीना चाहतीं। वैसे अगर राह निकलनी मुश्किल हुई, तो आप ही के पास आएँगी।”

नीता ने गुड्डू के सिर पर हाथ फेरा—“तू तो रातों-रात बड़ा हो गया है रे। मेरी तो हालत यह है कि टी.वी. पर भी अगर भाई-बहन का सीन आ जाए तो रो पड़ती हूँ।”

“बुआ, मुझे लगता है आपकी पीढ़ी अवसाद और शोक के प्रति भी उत्सवधर्मी है। आप साल भर शोक मनाने को कहेंगी तो मेरे लिए तो जीवन के सारे दरवाजे बन्द हो जाएँगे।”

नीता ने ग्लानि और रुलाई अपने गले में भींचकर कहा—“तुम्हारी बात समझ रही हूँ, तुम मेरी बात समझो न समझो। तुम प्रशस्त राह चलो। भगवान् करे भैया की याद एक मशाल की तरह तुम्हारे आगे-आगे रहे।”

लेकिन रात भैया की तसवीर पर निगाह पड़ने पर नीता सिसक पड़ी—“भैया, लो मेरी श्रद्धांजलि। इस घर में तुम्हें याद करने की किसी को फुर्सत नहीं है।”

 

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