मिलना और बिछुड़ना, यही तो जिंदगी है!
शैलेन्द्र के गीतों से मुहब्बत करने वाले बहुत कम लोग जानते हैं कि 'हर जोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है' जैसा सुप्रसिद्ध आस्थान गीत शैलेन्द्र की ही रचना है। जिसके ये सिर्फ रचयिता ही नहीं थे, गायक भी थे–मंचों से जागृत प्रस्तोता। जो विद्वान कहते हैं कि शैलेन्द्र फिल्मों में नहीं गये होते तो हिन्दी काव्य संसार उन्हें सिर माथे पर बिठाता तो कुछ गलत नहीं कहते हैं। पर एक बार फिल्मों से नाता जोड़ लेने के बाद वे समूचे सिनेमा के हो गए। 

राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, गीतकार शैलेन्द्र पर लिखी प्रह्लाद अग्रवाल की किताब 'कवि शैलेन्द्र : ज़िन्दगी की जीत में यक़ीन' का अंश 

शैलेन्द्र के गीत हमारे बचपन की गुनगुनाहटों में शामिल होकर आज तक हमसफर हैं। दुनिया भर की पुरक़शिश कविता की तरह इन्होंने जिन्दगी की पुरपेंच गलियों में आलोकित राजपथ प्रशस्त किया। इतने सरल और लुभावने कि आवारामिजाजी से जुबां पर चढ़ जाएं, कदम-ब-कदम ज़िन्दगी के फलसफे में तब्दील होते हुए।

अपनी मासूम गुनगुनाहटों के शब्द के फनकार का नाम हमें सालों बाद पता चला और इस परिचय के ऊषाकाल में ही वह सितारा टूट गया। जब शैलेन्द्र ने आत्मघात किया, हम उन्नीस साल के थे। इसके चंद महीने पहले ही शैलेन्द्र निर्मित एकमात्र फिल्म 'तीसरी कसम' प्रदर्शित हुई थी। नहीं मालूम सच है या झूठ, लेकिन कहा जाता है कि शैलेन्द्र को यकीन था, इसे राष्ट्रपति स्वर्णपदक मिलेगा–और मिला–लेकिन वह दिन देखने के लिए शैलेन्द्र नहीं थे।

1966 में शैलेन्द्र के बहिर्गमन के साथ ही राजकपूर के संगीत के राजमहल के चार स्तम्भों में एक ढह गया। शैलेन्द्र को राजकपूर फिल्मों में लाए थे और यह शैलेन्द्र के लिए अवसर नहीं था– मजबूरी थी। पहले उन्होंने राजकपूर का 'ऑफर' उस बेरुखी से ठुकराया था जिसके मायने सबसे पहले ये होते हैं कि वे सिनेमा में गीत लिखने को दोयम दर्जे का काम समझते थे। पर आर्थिक मजबूरियों के चलते यह विद्रोही युवा सिनेमा में गीत लिखने के लिए मजबूर हुआ और ग़ज़ब ये हुआ कि उसने अपनी कमजोरी को अपनी सामर्थ्य और शख्सियत बना लिया।

सो अजीब नहीं है कि इस माध्यम ही नहीं, दुनिया से भी बहिर्गमन के लिए उसने वह दिन चुना जो उसे यहां लाने वाले शख्स का जन्मदिन था– 14 दिसम्बर। बड़ी बारीक बुनावट है इस आत्मघात में। शायद वही जिसे विधि का विधान, प्रकृति का न्याय-अन्याय कहते हैं। वह जो शैलेन्द्र को बेहद अज़ीज़ था और जिसकी आत्मा की छवि उन्होंने अपने चंद शब्दों से भास्वर की थी– 'ज़ख्मों से भरा सीना है मेरा, हंसती है मगर ये मस्त नज़र।' उसी को एक ज़ख्म और दे गया–समझाइश का जख्म– 'एक हंगामे पे मौकूफ़ है घर की रौनक / नौहा-ए-गम ही सही, नग्मा-ए-शादी न सही' –जन्मदिन के कहकहों में आंसुओं की अन्तर्धारा– 'मिलना और बिछुड़ना, बिछुड़ना और मिलना यही तो जिंदगी है!' –जोकर की प्रेमिका की जुबां पर ये शब्द यूं ही नहीं चढ़े थे।

राजकपूर की फिल्मों को समाजवादी या कहना चाहिए मानवतावादी परिदृश्य देने में जनाब ख्वाजा अहमद अब्बास साहब का ही नहीं, शैलेन्द्र का भी हाथ है। खासतौर से उस आम आदमी को दृष्टिपथ में रखते हुए जिसको राजकपूर की फिल्में संबोधित होती थीं।

शैलेन्द्र ने भारत छोड़ो आन्दोलन में संक्षिप्त जेल यात्रा भी की थी और अपनी रेलवे की नौकरी ट्रेडयूनियन की गतिविधियों में बढ़चढ़कर हिस्सा लेने के कारण गंवाई थी। वे प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट थे। पार्टी से बढ़कर दिल से शैलेन्द्र के गीतों से मुहब्बत करने वाले बहुत कम लोग जानते हैं कि 'हर जोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है' जैसा सुप्रसिद्ध आस्थान गीत शैलेन्द्र की ही रचना है। जिसके ये सिर्फ रचयिता ही नहीं थे, गायक भी थे–मंचों से जागृत प्रस्तोता। जो विद्वान कहते हैं कि शैलेन्द्र फिल्मों में नहीं गये होते तो हिन्दी काव्य संसार उन्हें सिर माथे पर बिठाता तो कुछ गलत नहीं कहते हैं। पर एक बार फिल्मों से नाता जोड़ लेने के बाद वे समूचे सिनेमा के हो गए। वे पैसों के लालच में सिनेमा के ही होकर रह गए ये मानना इसलिए बेहूदगी होगी क्योंकि तब वह शख्स राजकपूर, वहीदा रहमान जैसे सितारों को लेकर 'तीसरी कसम' जैसी कविता सेल्यूलाइड पर नहीं उतारता 'संगम' जैसी शोख कशिश से बाजार लूटता। आखिर 'तीसरी कसम' के निर्माण के लिए वह कौन सा साधन है जो उन्हें उपलब्ध नहीं था। शैलेन्द्र ने 'तीसरी कसम' जैसा कि समझा जाता है– किसी के अनुग्रह पर नहीं बनाई थी, उसके लिए शैलेन्द्र ने सर्वोत्तम प्रतिभाएं एकत्र की थीं। राजकपूर सिर्फ इसलिए ये क्योंकि वे ही हीरामन की भूमिका में सर्वाधिक उपयुक्त हो सकते थे। अभिनेता राजकपूर की यह एक निःसन्देह उपलब्धि प्रमाणित हुई।

यह भी एक विचित्र तथ्य है कि शैलेन्द्र की दृष्टि में राजकपूर निर्देशक से कहीं बहुत ऊंचे अभिनेता थे। अधिकांशतः राजकपूर के 'मेकर' को एक्टर से बहुत अधिक ऊंचाई से खड़ा माना जाता है पर शैलेन्द्र की दृष्टि में ये अभिनेता की दृष्टि से अनुपमेय थे। उन्होंने 'तीसरी कसम' के निर्देशन के लिए बासु भट्टाचार्य को चुना। शैलेन्द्र की दृष्टि के अनुरूप ही यह उपक्रम था। विमलराय की अंतर्दृष्टि के उत्तराधिकारी समूह में से एक को शैलेन्द्र ने चुना था। चासु ने आगे चलकर हिन्दी के नये सिनेमा में अपनी अलग पहचान बनाई। उन्होंने 'तीसरी कसम' में सजीव चित्रात्मकता दी। राजकपूर के निरंतर निकट रहते हुए और राजकपूर को ही लेकर बनाई गई फिल्म में शैलेन्द्र ने राजकपूर की चित्रात्मकता को रत्ती भर ग्रहण नहीं किया। सुब्रत मित्र ने 'तीसरी कसम' का छायांकन सादगी के सौन्दर्य को अनुपमेय बना देने की गहनता से किया है।

समस्या साधनों की नहीं, दृष्टि की थी। सिनेमा उनके लिए महज रोजगार नहीं था और वे इस रोजगार में ही धोखा खा गए। वर्ना 'तीसरी कसम' पहले प्रदर्शन में उस तरह असफल नहीं होती, जिस तरह हुई। इस अपनों की 'घात' को 'कविराज' बर्दाश्त नहीं कर सके। कविराज का दिल टूट गया। तो क्या उनके शब्द झूठे हैं! –

कविराज कहे

न ये राज रहे

न ये ताज रहे

न ये राजघराना

प्रीत और प्रीत की गीत रहे

गा मीत मेरे संग प्रेम तराना...

 

क्या ये प्रेम तराना इस दुनिया का नहीं…?

तो फिर अलविदा,

 

माटी से खेलते हो बार-बार किसलिए,

टूटे हुए खिलौनों से प्यार किसलिए!

 

शैलेन्द्र और गुरुदत्त के आत्मघात पलायन नहीं अनन्त का साक्षात्कार है, जिसकी अभिव्यक्ति ज़नाब साहिर लुधियानवी के इन अल्फाजों में पेश आई है–

न सर झुका के जिए

और न मुंह छिपा के जिए

सितमगरों की नज़र से नज़र मिला के जिए।

अब एक रात अगर कम जिए तो हैरत क्यों

हम लोग वो हैं जो मश'अलें जला के जिए।

 

प्रह्लाद अग्रवाल की पुस्तकें यहाँ उपलब्ध हैं।