“चाय बनाने में हर कोई एक-सा ही सामान इस्तेमाल करता है ऐसे ही हर सरकार चलाने के लिए भी सारे नियम और संसाधन वही होते हैं पर अच्छी सरकार वही चला सकता है जो जानता है कि कब क्या किसके साथ और कितना करना है। वैसे ही जैसे चाय बनाने वाला जानता है कि कौन-सी पत्ती, कितना शक्कर, कितना दूध मिलाना है। कितनी देर खौलाना है, किसे अदरक वाली चाय पिलानी है, किसे काली और किसे सिर्फ़ दो चम्मच दूध वाली।”
कई राज्यों में विधानसभा चुनावों के बाद मुख्यमंत्री के पद को लेकर अभी तक राजनीतिक गहमागहमी बनी हुई है। राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, नवीन चौधरी के उपन्यास ‘ढाई चाल’ का एक अंश जो इसी तरह के माहौल की एक रोमांचक कहानी कहती है।
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“...संगठन में शक्ति है। सचिन माथुर की सरकार निकम्मी थी फिर भी दस साल शासन करती रही क्योंकि हमारी पार्टी की कार्यकर्ता इकट्ठे नहीं थी। अब आप सब इकट्ठी हुई तो हमने उनको सत्ता से बाहर फेंकी। आप सब कार्यकर्ताओं को बहुत बधाई। मैं आज जयपुर आए हैं, विधायकों से मिली और कल मुख्यमंत्री का नाम घोषित करेंगे। जय कार्यकर्ता, जय राजस्थान।” पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नारायण नाम्बियार उर्फ़ नाना ने हाथ जोड़कर भाषण समाप्त किया।
केरल निवासी होने के बावजूद नारायण नाम्बियार की हिन्दी बहुत अच्छी थी लेकिन कभी-कभी उनसे लिंग सम्बन्धी ग़लतियाँ हो जाती थीं, खासकर तब जब जल्दी-जल्दी बोलें या गुस्सा होने लगें। पार्टी कार्यकर्ताओं ने नाम्बियार के जोशीले भाषण में लिंग सम्बन्धी गलतियों को दरकिनार करते हुए खूब जोर से तालियाँ बजाई। ये अलग बात है कि भाषण के बाद कार्यकर्ताओं और नेताओं में फुसफुसाहट थी कि विधायकों की बैठक तो नाटक है। अचला सिंह का नाम पहले से मुख्यमंत्री पद के लिए तय है। कुछ नेताओं के लिए यह खुशखबरी थी तो मानव के लिए वज्रपात। मानव नारायण नाम्बियार से मिलकर अपना विरोध प्रकट करने पहुँचा।
“अगर विधायकों के ही समर्थन की बात है ना हुकुम तो इतने ही विधायक मेरे भी समर्थन में हैं। फिर अचला मुख्यमंत्री क्यों?”
आसमानी रंग की नेहरू जैकेट, हल्की दाढ़ी, डोलचे एंड गब्बाना का चश्मा पहने थोड़े स्थूल शरीर वाले नारायण नाम्बियार ने अपने आधे गंजे सिर पर हाथ फिराया और कहा― “अभी तय कहाँ हुआ है? आप लोगों से मिलकर राय ले रहे हैं अभी हम। मेरा आपसे इतना ही निवेदन है कि जो फ़ैसला हो उसे स्वीकार करिएगा।”
पार्टी की विचारधारा को बहुत सख्ती से मानने वाले नारायण नाम्बियार की छवि एक सख्त, कठोर और दृढनिश्चयी व्यक्ति की थी। सभी कार्यकर्ताओं, अधिकारियों, विरोधियों से अपने निवेदन (आदेश) को येन-केन-प्रकारेण मनवाने के लिए मशहूर नारायण नाम्बियार के लिए पार्टी में हँसी-मज़ाक में कहा जाता था कि नाना बाहुबली में होते तो कहते― “मेरा निवेदन ही मेरा आदेश है।”
“मेरे नाम पर विचार नहीं कर रहे नाना, कोई बात नहीं, मगर आप कल अचला के नाम की घोषणा नहीं कर सकते…” मानव सिंह ने नारायण नाम्बियार से गुस्से में कहा।
“आप मुझे बताएगी कि मैं क्या कर सकती, क्या नहीं कर सकती? आप मुझे बताएगी कि मुख्यमंत्री मैं किसे बनाएगी?" लिंग में होने वाली ग़लती इस बात की द्योतक थी कि नाना यानी नारायण नाम्बियार को अब गुस्सा आ चुका है। पार्टी के हर कार्यकर्ता की तरह मानव भी जानता था कि इसके बाद चुप हो जाना है क्योंकि अगर नाना किसी पर चिल्लाया तो उसका खेल खत्म।
बीस विधायकों के समर्थन के साथ नाम्बियार पर दबाव बनाने आया मानव ख़ुद दबाव में आ गया। उसने बात सँभालते हुए कहा― “मेरा वो मतलब नहीं था। देखिए, अचला निरंकुश है। वह अपनी मनमर्जी चलाएगी। मैं सिर्फ़ पार्टी के भले के लिए कह रहा हूँ। आप किसी को भी मुख्यमंत्री बना दीजिए लेकिन उस औरत को नहीं।”
मानव की बात सुनकर नारायण ने मुस्कुराते हुए उसके आखिरी वाक्य को दोहराया “लेकिन उस औरत को नहीं...औरत…” नारायण का चेहरा यह बोलते-बोलते सख्त हो गया। उसने सख्त लहजे में मानव से कहा― “तुम्हारी चाला सोच सिर्फ उस औरत तक है और मुझे पूरे देश का देखनी है। जून, 2013 में लोकसभा चुनाव है। अभी देश का जैसा माहौल है उसमें भी हम अगर लोकसभा में 272 सीट नहीं जीत पाए तो कभी नहीं जीतेगी। मुझे हर राज्य में पार्टी को मजबूत करना है। सुन रहे हो क्या कह रहे हैं?” मानव ने हामी में सिर हिलाया। नारायण नाम्बियार थोड़ा ढीले होकर बैठे और कहा― “मानव, राजस्थान में दस साल विरोधियों का शासन था। इसलिए नहीं कि वो बहुत काबिल थे, बल्कि इसलिए कि हम विकल्प देने में नाक़ाबिल रहे। इस बार भी हम नहीं कहते हैं, वो लोग हारे हैं। इतनी मेहनत के बाद भी हमें सिर्फ़ 102 सीट मिली हैं, यानी बहुमत की संख्या से सिर्फ़ 1 ज़्यादा।
पार्टी की ये दुर्गति क्यों हुई? क्योंकि 2002 में जो नेता थे श्याम जोशी, राज्येश सिंह, सिकंदर बेनीवाल को ऐसे ही लड़े जैसे तुम लोग लड़ रहे हो। पार्टी कमजोर हुई और असर दिल्ली पहुँचने में पड़ा। मेरी नज़र अभी सिर्फ़ लोकसभा जीतने पर है। हमें पूरे देश में यह सन्देश देना है कि हमारी पार्टी समाज के हर तबके को प्रतिनिधित्व देती है। महिला, दलित, सवर्ण सबको प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। राजस्थान महिला अपराधों में बहुत आगे है और यहाँ पर अचला सिंह का मुख्यमंत्री बनना स्त्रियों को सकारात्मक सन्देश देगा।”
“लेकिन वो पार्टी को बर्बाद कर देगी। किसी की नहीं सुनेगी, आपकी भी नहीं।” मानव ने फिर विरोध किया।
“यदि वह निरंकुश है तो यह मेरी चिन्ता है, तुम्हारी नहीं। अगर तुम चाहते हो कि मैं तुम्हारी बात सुनूँ तो पहले ख़ुद को साबित करो। लोकसभा में राजस्थान की 25 सीटें जिताने में मेरी मदद करो। अचला का विरोध नहीं, पार्टी का काम करो। सफल हुए तो जून, 2013 के बाद मैं तुम्हारे लिए कुछ सोचूँगा।”
मानव के पास नारायण नाम्बियार की बात मानने के अलावा अभी कोई और चारा न था इसलिए उसने लोकसभा चुनाव तक रुकने का फ़ैसला किया मगर अचला ने उसके लिए ये एक साल काटना मुश्किल कर दिया। अचला ने मुख्यमंत्री बनने पर उसके एक भी आदमी को मंत्री नहीं बनाया। मानव सिंह के समर्थक विधायकों के इलाक़े के काम रोके जाने लगे। जो हरकतें सत्तारूढ़ पार्टी विपक्षी विधायकों के साथ करती हैं वह सब अचला मानव के समर्थकों के साथ करने लगी। उसके लोग भी पार्टी की कार्यकारिणी से धीरे-धीरे हटाए जाने लगे। मानव ने एक बार फिर नारायण से गुहार लगाई। नारायण की नजर भी पूरी स्थिति पर थी। उन्होंने अचला सिंह को दिल्ली तलब कर लिया।
“आप चाहती क्या हैं? पार्टी में ऐसी मनमानी तो नहीं चलती। पार्टी में सबको साथ लेकर चलना पड़ता है। जिससे विरोध है उसे भी पद देने होते हैं पर आपने मंत्रिमंडल तो छोड़िए, पार्टी की कार्यकारिणी तक में बदलाव शुरू कर दिए। आपके राज्य के पार्टी अध्यक्ष आपसे डरते हैं। अब आप वही करेंगी जो मैं कहूँगा।”
“आप कह रहे थे कि पार्टी में ऐसी मनमानी तो नहीं चलती। फिर आप कहते हैं जो आप कहेंगे वही करना होगा... ये क्या आपकी मनमानी नहीं है?” नारायण को इस तरह के पलटवार की उम्मीद नहीं थी। “सब जानती हूँ मैं... आप यह सब मुझे मानव सिंह के दबाव में कह रहे हैं। मानव के लिए मुश्किल है एक स्त्री को ऊपर बढ़ते देखना। लगता है आप भी एक स्त्री को अपनी मर्जी से सत्ता चलाते नहीं देख सकते।”
नारायण के सँभलने से पहले ही अचला ने उस पर स्त्री-विरोधी होने का आरोप भी लगा दिया। नारायण को गुस्सा आने लगा था। उन्होंने जोर से जवाब दिया― “आप शायद भूल रही हैं अचला जी कि आपका नाम मुख्यमंत्री के लिए मैंने ही बढ़ाई थी और सारे विरोध को कुचलकर आपको मुख्यमंत्री बनाई।”
अचला पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वो भी उसी तरह ताव में बोली― “आपने मुझे मुख्यमंत्री बनाया उसके लिए धन्यवाद नाम्बियार साहब, पर आपने मुझ पर कोई एहसान नहीं किया। मैं क़ाबिल थी और मेरे पास विधायक थे। अब आपने मुझे मुख्यमंत्री बना दिया है तो मुझे तय करने दीजिए क्या करना है और क्या नहीं। मैं राजघराने से हूँ। शासन करना हमारे खून में है। अपनी मर्जी मुझ पर मत थोपिए।”
नारायण नाम्बियार का कई सालों बाद ऐसे किसी पार्टी नेता से पाला पड़ा था जो उसकी तरह ही एक अलग अकड़ में थी। किसी को सुनने को तैयार नहीं थी। नारायण ने एक ठंडी साँस ली और अचला से पूछा― “आप चाय पिएँगी?”
“मैं चाय नहीं पीती।” अचला ने रुखाई से जवाब दिया।
“ये आम चाय नहीं है। इसे मैं बहुत चुनकर मँगवाता हूँ और अपने खास मेहमानों को खुद बनाकर पिलाता हूँ। पीकर देखिए आपको पसन्द आएगी।” कहकर नारायण उठे और फिर अचला को मुस्कुराते हुए बोला― “मेरे हाथ की चाय पीने का मौक़ा सबको नसीब नहीं होता।” नारायण चाय तैयार करने लगा और लम्बी-लम्बी साँस लेते हुए गुस्सा काबू किया। उधर अचला भी थोड़ी शान्त हुई।
नारायण चाय लेकर आ गए थे। उन्होंने चाय कप में डालकर जैसे ही दूध मिलाना चाहा, अचला ने कहा― नो मिल्क। नारायण नहीं माने। उन्होंने दो चम्मच दूध चाय में मिलाया और अचला को देते हुए बोला― “आप मेरी चाय पी रही हैं तो मेरे हिसाब से पीकर देखिए। कई बार बदलाव अच्छे होते हैं।” अचला ने चाय का कप मुँह के पास ही किया था कि चाय की ख़ुशबू से रुक गई। अचला ने एक बार और खुशबू लेते हुए चाय का एक सिप लिया। नारायण उसे देख रहे थे। अचला ने कप नीचे रखते हुए कहा― “वाकई बहुत ही बढ़िया चाय बनाई है आपने नाना।” नाम्बियार साहब से नाना तक का सफ़र बता रहा था कि अचला अब सुनने को तैयार है लेकिन बैठने का अन्दाज बता रहा था कि उसने अभी हथियार पूरी तरह नीचे नहीं रखे हैं। जरूरत पड़ने पर वह फिर से पलटवार कर सकती है।
नारायण ने अचला के हाव-भाव पढ़े और अपनी चाय उठाते हुए कहा― “आप यूँ ही मुझसे नाराज़ हो रही थीं। अगर मैं जिद नहीं करता तो आप इतनी अच्छी चाय से महरूम रह जातीं।” कहकर नारायण हँसे, जवाब में अचला भी हँसी और इस हँसी के साथ उसके शरीर ने भी तनाव को झटका। वह सोफे पर आराम से पीठ टिकाते हुए बोली― “आप ठीक कह रहे हैं। कहिए, आप क्या चाहते हैं? लेकिन ये बता दूँ कि मैं अपना राज्य किसी और को चलाने नहीं दूँगी।”
“आपका राज्य है। आप तो राजघराने से भी हैं... आपका राज्य कोई और थोड़ी चलाएगा। आप ही चलाएँगी। देखिए, अगले साल लोकसभा चुनाव है और राजस्थान से हम पूरी 25 सीट जीत सकते हैं। अभी किसी भी तरह की खटपट हमारी पार्टी को भारी पड़ेगी। इस चुनाव में एक-एक सीट मायने रखती है। मंत्रिमंडल में आपको जिसे रखना है रखिए लेकिन पार्टी कार्यकारिणी से हर किसी को मत हटाइए। ये भविष्य के लिए खतरा होगा। मानव आपके खिलाफ़ है मैं जानता हूँ लेकिन वो भी पार्टी का है। मैं मानव को कुछ इलाक़े देता हूँ। वहाँ पर उसे काम करने दीजिए। इससे मानव अपने इलाके में उलझा रहेगा और आपको तंग नहीं करेगा। लोकसभा चुनाव के बाद मिलकर सोचेंगे कि मानव का क्या करना है मगर तब तक कुछ नहीं होना चाहिए। सरकार आपकी, पार्टी हम दोनों की। कुछ आपकी मर्जी और कुछ मेरी। मान लेंगी तो इसी चाय की तरह आपके शासन की खुशबू फैलेगी।”
अचला कुछ देर चुप रही। वह चाय पीते हुए सोचती रही। नारायण भी चुपचाप अपनी चाय पीते रहे। चाय ख़त्म करके अचला बोली― “ठीक है नाना। सरकार मेरी और पार्टी हम दोनों की। मानव को मेरे रास्ते से हटाकर रखना आपका काम है। अगर वो कभी भी मेरे रास्ते में आया तो मैं उसे सबक सिखा दूँगी।”
“जैसा आप कह रही हैं वैसा ही होगा। लेकिन याद रहे लोकसभा चुनाव में 25 सीट…ठीक है?” नारायण नाम्बियार मुस्कुराकर बोले।
अचला भी हँसी और सिर हिलाकर हामी भरी और कहा― “चाय अच्छी थी।” अचला चलने लगी तो नारायण नाम्बियार ने उसे चाय का एक पैकेट देते हुए कहा― “ये चाय ले जाइए। जब गुस्सा आए तो बनाकर पी लीजिएगा।”
अचला ने पैकेट लिया और मुस्कुराती हुई बोली― “चाय सिर्फ़ पत्ती से अच्छी नहीं बनती। बनाने वाले के हाथ का जादू भी उसमें आता है। काश मुझे आपकी तरह चाय बनानी आती।”
“अचला जी चाय बनाने में हर कोई एक-सा ही सामान इस्तेमाल करता है ऐसे ही हर सरकार चलाने के लिए भी सारे नियम और संसाधन वही होते हैं पर अच्छी सरकार वही चला सकता है जो जानता है कि कब क्या किसके साथ और कितना करना है। वैसे ही जैसे चाय बनाने वाला जानता है कि कौन-सी पत्ती, कितना शक्कर, कितना दूध मिलाना है। कितनी देर खौलाना है, किसे अदरक वाली चाय पिलानी है, किसे काली और किसे सिर्फ़ दो चम्मच दूध वाली।”
“चाय और सरकार... ये नया राजनीति शास्त्र बना दिया आपने।”
“ये राजनीति शास्त्र नहीं, नाना नीतिशास्त्र है।”
दोनों लोग हँसे और अपने-अपने रास्ते चल पड़े। अचला जाते वक़्त यही सोच रही थी कि क्या नाना वाकई मानव को रोक पाएँगे और उधर नारायण सोच रहे थे कि अचला आने वाले समय में विस्फोटक साबित हो सकती है।
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