इनसानों के देस में
राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखक दामोदर मावज़ो के कहानी संग्रह 'स्वप्न प्रेमी' से उनकी कहानी 'इनसानों के देस में'। इस संग्रह में संकलित अधिकांश कहानियों की पृष्ठभूमि गोवा की संस्कृति और जीवनशैली है।

रामनगर पहुँचने तक ऐसा कुछ नहीं हुआ था जिसे असामान्य कहा जा सके। सभी बैल अच्छी तरह एकदम क़तार में चल रहे थे। बीच-बीच में ज़रा दौड़ पड़ते थे। बुद्धू के गले में बँधे घुँघरुओं से निकल रही मधुर ध्वनि के ताल पर, हाथों में पकड़ी पतली लचीली छड़ी से उन्हें हाँकते हुए पीछे से हलसिद्धू दौड़ रहा था।

बस...एक दिन और! फिर गोवा! हर एक बैल के पीछे चालीस तो मिल ही जाएँगे! मवेशियों को एक बार खताल के हवाले कर देने के बाद पैसे गिन लेंगे और फिर वापसी के लिए सामान भी ख़रीदेंगे।

गोवा की वह हरी-भरी भूमि, जिसके बारे में उसने अब तक कई लोगों से सिर्फ़ सुना था, अब बस कुछ ही समय में वह उसकी आँखों के सामने आनेवाली थी। सम्मोहित हुए से हलसिद्धू ने हाथ की छड़ी को सट् से बुद्धू की पीठ पर जमा दिया। इस पर जब बुद्धू छलाँग लगाकर दौड़ने लगा तब सामने चल रहे बैल के पिछवाड़े को उसके सिर का धक्का लगा। सामनेवाला बैल अपनी पूँछ ऊपर उठाते हुए एक तरफ़ दौड़ पड़ा। इतने में पीछे से तेज़ी से आ रहे एक ट्रक ने उसे धक्का दे दिया। चोट लगते ही वह ज़ोर से रँभाता हुआ रास्ते पर गिर पड़ा। ट्रक बिना रुके चला गया।

सिद्धू के हाथ-पाँव ठंडे पड़ गए। अब क्या करे? उसने बाक़ी बैलों को जल्दी-जल्दी हाँककर, रास्ते की बग़ल में जो खुली जगह थी, वहाँ इकट्ठा किया और फिर वापस रास्ते पर आ गया। मदद की गुहार लगाती हुई नज़रों से बैल सिद्धू की ओर देख रहा था। उसकी कमर की हड्डियाँ पूरी तरह टूट चुकी थीं। आगे के पैर हिलाते हुए मानो वह अपने ज़िन्दा होने का सबूत दे रहा था, बस! सिद्धू ने वहीं उसकी बग़ल में बैठक जमा दी।

रास्ते से गुज़रनेवाले राहगीर पल भर के लिए रुक जाते, तरस खाते, और फिर अपने रास्ते चल पड़ते। कुछ देर बाद वहाँ से गुज़रनेवाले एक ट्रक के ड्राइवर ने पलभर के लिए ट्रक रोका और फिर दनादन गालियाँ बरसाता हुआ सिद्धू पर ही बिफर पड़ा—“खींचकर बाजू में कर दो उसे। दिखाई नहीं देता, ट्रैि‍फ़‍क के रास्ते में आ रहा है?”

घर से निकलने से पहले पिता ने बहुत सारी ज़रूरी हिदायतें दी थीं। खताल ने भी काफ़ी बातों के बारे में सावधान रहने के लिए कहा था। पर रास्ते में अगर इस तरह की दुर्घटना हो जाए तो क्या करना है यह किसी ने नहीं बताया था।

आँ...ऊ करते हुए, आने-जानेवाले के सामने हाथ जोड़ते, पैर पड़ते हुए, सिद्धू ने बैल को किसी तरह खींचकर सड़क के किनारे ला दिया। अधपेट रहकर दिन निकालने की नौबत आने के कारण बैल एकदम हड्डियों का ढाँचा-सा बन गया था, फिर भी तीन लोगों के लिए भारी साबित हुआ। बैल की दीन-हीन नज़र से नज़रें मिलाने से सिद्धू कतराने लगा। यहाँ-वहाँ देखने लगा। दूर एक झोंपड़ीनुमा घर दिखाई दिया। बाक़ी बैलों को रास्ते से दूर एक सुरक्षित जगह पर रखकर सिद्धू उस घर की तरफ़ चल पड़ा। एक बूढ़ा बाहर ही बैठा हुआ था। सिद्धू ने उससे पानी माँगा। वैसे माँगा था बैलों के लिए। पर बूढ़ा पानी गिलास में लेकर आया। उसे पीने के बाद सिद्धू ने बैल के साथ जो हादसा हुआ था उसके बारे में बता दिया। तब उसने पानी से भरी प्लास्टिक की एक बोतल दे दी।

सिद्धू ने बोतल बैल के मुँह में ख़ाली की। पर कितना पानी उसके मुँह में और कितना बाहर गिरा यह कह पाना मुश्किल था।

“गोवा लेकर जा रहे हो बैल को?”

बूढ़ा उसकी बग़ल में आकर खड़ा हुआ।

सिद्धू ने गर्दन हिलाई।

“खताल कौन है?”

“क़ासिम।”

“अब क्या करनेवाले हो?”

सिद्धू चुप रहा।

“मेरी बात सुनो। यह बैल तो अब खड़ा होने से रहा। टैं बोलने से पहले अगर इसे जल्द ही किसी खताल के हाथ बेचोगे तो कम-से-कम चार पैसे तो मिल ही जाएँगे! यहाँ से आधे घंटे की दूरी पर करीम रहता है। उसे बुलाऊँ क्या?”

सिद्धू फिर भी चुप रहा। बैल ने अपना सिर ज़मीन पर टिका दिया था। गिरी हुई हालत में भी वह अपनी याचनाभरी दृष्टि से सिद्धू की ओर लगातार देख रहा था। शायद ‘ख़त्म कर दो मेरी यातनाएँ,’ कह रहा था।

“मैं क़ासिम को जानता हूँ। मैं भी पहले मवेशियों को पहुँचा आने का काम करता था। मेरा खताल नबी है। इस नबी के पास रहकर ही क़ासिम तैयार हुआ है। जब मैं गोवा जाता था तब उससे मिलना तो होता ही था। अब मुझसे नहीं हो पाता।”

सिद्धू अपनी ही चिन्ताओं में फँसा था।

“आप्पा! खताल से क्या कहूँगा? वो मुझे...”

“क़ासिम से कहो कि दरगाह वाले अशरू मियाँ ने ही तुम्हें ऐसा करने के लिए बोला था। वह इस ओर आएगा ही। तब मैं भी उसे बोल दूँगा। ग़लती तुम्हारी नहीं है। और तंग रास्ते पर इस तरह का कुछ न कुछ होता रहता है यह वह भी अच्छी तरह से जानता है।”

अशरू मियाँ की इन बातों ने सिद्धू को ज़रा धीरज दिया। करीम के आने तक दिया-बाती का समय हो गया था। आते समय वह छोटा-सा ऑटो

रिक्शा भी लेकर आया। छोटे-से रिक्शा में उस बड़े बैल को वह दबा-दबाकर ठूँसने लगा।

“तकलीफ़ होगी उसे। दर्द होगा।”

सिद्धू की तड़प देखकर करीम ने उपहास-भरी हँसी हँसते हुए कहा—

“पालने नहीं, मारने ले जा रहा हूँ।”

जब करीम जाने के लिए मुड़ा तब सिद्धू ने धीरे से बूढ़े से पूछा—

“और पैसे?”

“तुमने अब अगर पैसे माँगे तो मिट्टी के मोल ले जाएगा। मैंने उसे क़ासिम को ही देने के लिए कहा है। क़ासिम का ये रोज़ का रास्ता है। वह भी जानता है उसे। तुम क़ासिम को बोल देना कि मैंने ही कहा था तुम्हें।”

सिद्धू की जान में जान आ गई।

वह रात सिद्धू को वहीं बितानी पड़ी। अशरू मियाँ से जो एक बड़ा बरतन वह ले आया था, उसमें उसने थोड़ी खली को पानी में भिगो दिया। यल्लमा के प्रसाद को जैसे बाँटा जाता है वैसे उस बरतन को सभी बैलों के सामने घुमाया। फिर बरतन में पानी डाला। एक-दूसरे को धकेलते हुए बैलों ने जितना मिल सकता था उतना चाट डाला। बाद में उसने बैलों को इकट्ठा करके घेरे में बिठा दिया। बीच में उसका बुद्धू भी बैठा था, जुगाली करता हुआ।

अम्मा ने सिद्धू को रास्ते में खाने के लिए जो सामान दिया था, उसने उसे एक कपड़े की पोटली में डालकर बुद्धू के सींगों पर इस तरह लटका िदया था जैसे खूँटी पर टाँगते हैं। सिद्धू ने उसे वहाँ से निकाला। जिस बोतल से बैलों को पिलाया था उसी में पानी भरकर ले आया और बग़ल के घोडगा पेड़ के नीचे उसने अपना आसन जमा दिया। लगा जैसे पेट में किसी ने बहुत बड़ा गड्ढा खोद दिया है। लहसुन की चटनी के साथ ज्वार की तीन रोटियाँ खाने के बावजूद एक और खाने का मन कर रहा था। पर इस इच्छा को दबाते हुए उसने पोटली को बन्द किया। वैसे आधी रोटियाँ अभी तक बची हुई थीं। लेकिन वापसी के समय खाने के लिए कुछ बचाकर भी रखनी थीं ना? पानी पीकर डकार लेता हुआ वह पेड़ के नीचे लेट गया।

बिलकुल ऐसा ही एक पेड़ उसके दरवाज़े पर भी था। इससे थोड़ा बड़ा ही था। पर पिछले साल पतझड़ में सब पत्तों के झड़ जाने के बाद अब दस महीने बीतने पर भी, अभी तक उस पर कोई नया पत्ता नहीं उगा था। बारिश जो नहीं हुई थी! वह क्या करता? उसकी हज़ार टहनियाँ थीं, पर सब अब बेजान होकर सूख गई थीं। वहाँ पूरी तरह सूखा पड़ा था। यहाँ इस पेड़ पर देखो कितने अच्छे पत्ते हैं! और कहते हैं, गोवा पहुँचने पर तो चारों ओर हरियाली ही हरियाली होगी!

“जब बड़े हो जाओगे तब गोवा जाकर बस जाना और इनसान जैसे जीना।”

आप्पू ने सिद्धू से कहा था। जो आप्पू से नहीं हो पाया वह बेटा कर पाए यह उसकी इच्छा थी।

खानपुर के बाद हाइवे के पास से सात मील अन्दर उसका गाँव था जहाँ एक भी पाठशाला नहीं थी। आप्पू के पिता ने कभी बाबासाहेब आंबेडकर के भाषण सुने थे। उन्होंने ही आप्पू से कहा था—

“पढ़ो और इनसान बनो।”

आप्पू स्कूल गया, प्राथमिक शिक्षा ले ली, लेकिन इनसान नहीं बन पाया। आगे चलकर महार बस्ती के बहुत से बच्चे स्कूल जाने लगे। हाईस्कूल में भी पहुँच गए। पर जो गाँव में रह गए उनमें से कोई भी इनसान नहीं बन पाया। खानपुर-बेलगाँव पहुँचनेवाले बच्चे गाँव में रहनेवालों से अधिक तरक़्क़ी कर गए। पर आप्पू ने इससे भी अलग दुनिया देख ली थी। उसकी पहचान के दो-चार लोग गोवा में रहते थे। इस बहाने आप्पू दो-तीन बार गोवा होकर आया था। वहाँ का जीवन देखकर आप्पू ने सिद्धू से कहा था—

“सिद्धू ज़्यादा पढ़-लिख नहीं पाए तो कोई बात नहीं। लेकिन जब बड़े हो जाओगे तब ज़रूर गोवा जाकर रहना और इनसान बनना।”

गोवा जाकर रहूँगा और इनसान बनूँगा यह सपना देखकर ही सिद्धू बड़ा हुआ। पर यह साकार होने के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे थे।

जब एक दिन खताल गाँव में पहुँचा तब सिद्धू की आशा पल्लवित हुई। गाँव में सूखा पड़ा था। किसानों पर फ़ाक़े की नौबत आ गई थी। उनके पेट-पीठ एक हो गए थे। खाते-पीते घरों में भी सिर्फ़ एक जून की रोटी मिल पाती थी। जहाँ इनसानों का यह हाल था वहाँ मवेशियों की खोज-ख़बर लेने कौन जाता? बूढ़े मवेशियों की तो बात ही छोड़िए, जवान मवेशियों के शरीर पर भी हड्डियाँ-पसलियाँ गिनी जा सकती थीं। ऊपर से बारिश की उम्मीद

में इन बैलों के कन्धों पर जुआ रखने के कारण उसकी रगड़ से बैलों के कन्धों पर घाव बन गए थे। ये दुबले-पतले बैल अब किसी काम के नहीं रह गए थे। जिन मवेशियों को अपनी सन्तान की तरह बड़ा किया था आज वही बोझ बन गए थे।

किसान की बेबसी, लाचारी खताल के लिए ख़ुशी की सौगात लेकर आती है। उसका काम ही होता है—विवश किसानों के मवेशियों को सस्ते दाम पर ख़रीद लेना और दूर-दराज़ के कसाई ख़रीदारों को महँगे दामों में बेच देना। सिर पर पगड़ी पहने दढ़ियल क़ासिम गोवा से मोटरसाइकिल पर सवार होकर बड़ी शान से गाँव में आता था। पहले उसने गाँव के ज़रूरतमन्द लोगों की हैसियत का जायज़ा लिया और फिर बैलों का दाम तय किया। हाथ में जो भी पड़ा वही बहुत है यह मानकर लोगों ने उसे ले लिया।

सिद्धू के पास भी बैल था। सिद्धू उसे देना नहीं चाहता था। पर आप्पू बैल को रखने नहीं देगा इस बात को वह जानता था। लेकिन आश्चर्य की बात यह हुई कि आप्पू ने ही कह दिया कि बैल नहीं देना है।

मवेशियों को हाँकते हुए गोवा लेकर जाने के लिए खताल को एक आदमी की ज़रूरत थी। क़ासिम जब गाँव आया था उसी समय आप्पू ने इस बात को ताड़ लिया था।

“यह है हलसिद्धप्पा! इसकी तगड़ी सेहत तो देखो! बैलों को लेकर जाने का काम यह कर लेगा।”

और भी चार लोग बैलों को लेकर जाने के इस काम पर नज़र जमाए हुए थे। पर जवान हलसिद्धू की देहयष्टि और उसका उत्साह देखकर खताल ने उसी को चुन लिया था। इसके बाद आप्पू ने सिद्धू को अपनी योजना बता दी थी...उस खताल को बैल बेचने के बजाय उसके द्वारा ख़रीदे हुए बारह बैलों के साथ बुद्धू को भी गोवा लेकर जाना था। क़ासिम के बारह बैल उसके हवाले करने के बाद अच्छा सा ग्राहक देखकर बुद्धू को वहीं किसी को बेच आना था। वहाँ दुगनी क़ीमत मिल सकती थी। आप्पू का दिमाग़ कितना तेज़ है यह देख सिद्धू बड़ा ख़ुश हुआ था। खताल पशु-चिकित्सक से बारह के लिए ही काग़ज़ात बनाकर ले आया था। पर आप्पू ने कहा था—क्या बारह और क्या तेरह! किसी के ध्यान में नहीं आएगा।

बैलों के खुरों में नाल ठुकवाना, उनके सींगों पर पहचान के लिए हरा रंग लगाना, वेटरिनरी सर्टिफ़िकेट तैयार करना—ये सभी काम खताल के आदमी ने ही कर दिए थे। लोगों ने बैलों को खताल के हाथों सुपुर्द करने से पहले बैलों के गले के घुँघरू, घंटियाँ वग़ैरह निकालकर रख ली थीं। पर सिद्धू ने बुद्धू के गले के घुँघरू वैसे ही रहने दिए थे। यह सोचकर कि जब बेचा जाएगा तब बाद में निकाल लेंगे।

अम्मा ने ज्वार की ढेर सारी रोटियाँ बनाई थीं। लहसुन की चटपटी चटनी तैयार की थी। इन्हें बनाते समय मुँह की बड़-बड़ भी जारी थी।

“सौन्दत्ती येल्लमा का मेला पास आ रहा है। पाँच रातें वहाँ गुज़ारनी होंगी। जैसे ही काम ख़त्म हो जाएँ वैसे ही तुम्हें आना होगा। मेले में उस अनशी को भी ले जाएँगे येल्लमा के चरणों में। तुम आने में देर न करना। इस सफ़र से अगर कुछ पैसों की कमाई हो गई तो फिर मेले के बाद अनशी को ब्याह कर लाना घर में।”

आ‍‍ख़िर अनशी को बहू बनाकर लाने की उसकी चाहत को आप्पू और अम्मा ने स्वीकार किया बस यही सोचकर सिद्धू ख़ुश हो उठा था।

पिछले साल येल्लमा के मेले के एक दिन पहले जब वह माँगबस्ती में पहुँचा था तब दोनों हाथों से गोबर के उपले पाथते हुए अनशी को उसने पहली बार देखा था। अनशी ने घाघरे को पैरों के बीच से पीछे लेकर कमर में खोंस रखा था। फटी अँगिया से यौवन बाहर फुदक रहा था। अस्त-व्यस्त हुए बाल आँखों पर उतर आए थे। हलसिद्धू की बँधी हुई नज़र को देखकर वह सतर्क हो गई थी। गोबर सने हाथों से ही माथे पर उतर आईं लटों को ऊपर उठाते समय उसके गाल भी गोबर से सन गए थे। यह देखकर सिद्धू को हँसी आ गई थी। और यह देख अनशी शरमा गई थी। फिर येल्लमा के मेले के समय जिस छोटी पहाड़ी पर उन्होंने डेरा जमाया था, वहीं उसने अनशी को दोबारा देखा था। पहले दोनों आँखों-आँखों में ही बातें करते रहे। आ‍ख़ि‍री रात को सिद्धू उसे खींचकर बग़ल की झाड़ियों में ले गया और उसे ज़ोर से बाँहों में कसते हुए कहा था—

“तुम अपनी अम्मा से कह देना। मैं भी घर में बता दूँगा।”

लेकिन जब उसने घर में यह बात उठाई तब आप्पा ने झट से कह दिया—

“ऐसे कैसे हो सकता है? वह माँग है, हम महार।”

अम्मा ने बात को और आगे खींचा—

“वैसे माँग हैं तो हमसे नीचे, लेकिन हमें अपने से निचला कहते हैं।”

सिद्धू ने मर्म-स्थल पर प्रहार किया—

“बाबासाहब ने यही सिखाया है हमें?”

और फिर रिश्ता पक्का हो गया। अब चार पैसे जमा होते ही ब्याह होगा।

ट्रक ने जब बैल को धक्का मार दिया था तब लगा था कि अब उसे ही ऊपर से खताल को पैसे देने पड़ेंगे। चलो! अच्छा हुआ जो ये अशरू मियाँ मिल गए। दरगाह वाले अशरू मियाँ! आँ...मतलब यहाँ पास ही दरगाह होगी। कल तड़के उठते ही दरगाह पर मत्था टेकने जाना चाहिए। पीर कोई भी हो। उसके पास मन्नत माँगनी चाहिए—जल्दी ब्याह होने दो। अनशी को लेकर तुम्हारे चरणों में आऊँगा।

जब से उस रात अनशी को कसकर पकड़ा था तब से हर रात यही हाल हो रहा था...उसने करवट बदली। दोनों पैरों को मोड़ते हुए पेट की ओर कर लिया। दोनों हाथ जाँघों के बीच में ले गया और टटोलने लगा, सहलाने लगा। उसकी साँसों की रफ़्तार तेज़ हो गई।

जब उसकी आँख खुली तब चाँद अभी भी चमक रहा था। दरगाह पर जाकर बाहर से ही हाथ जोड़कर चला आया। जुगाली करते हुए बैठे बैलों को उठाया। गोबर और मूत की बास नाक में भर गई। गाँव में होते तो इतना गोबर इकट्ठा करने पर पच्चीस-तीस उपले पाथ लिये जाते। यह सोचते-सोचते सुबह होने से पहले ही वह बैलों को हाँकने लग गया।

गोवा जैसे-जैसे पास आता जा रहा था, वैसे आसपास का परिसर भी हरा-भरा होता जा रहा था। सिद्धू की तरह बैल भी शायद गोवा पहुँचने के लिए उत्सुक हो उठे थे। उनकी चाल में भी फुर्ती आ गई थी। रास्ते में जब कोई तंग मोड़ आ जाता तब सिद्धू चतुराई से मवेशियों को किनारे कर लेता। इसके बावजूद पीछे से आ रहे कुछ ट्रकों की बेवजह रफ़्तार धीमी हो जाती और उनके चालक गालियाँ देते हुए चले जाते।

दोपहर होने तक रास्ता तप गया था। आप्पू ने जो एक जोड़ी जूते दिए थे उन्हें िसद्धू ने बैल के सींगों पर लटका दिया था। अब उन्हें निकालकर पैरों में पहन लिया। डामर के रास्ते पर चलने की उसे भी आदत नहीं थी और बैलों को भी। पर बैलों के पैर इस रास्ते पर न फिसलें इसलिए उनके खुरों में पहले ही नाल ठुकवाई गई थी। सिद्धू के पास जूते नहीं थे। उसे आदत ही नहीं थी। आप्पू के पास िसर्फ़ वही एक जोड़ी जूते थे। वे भी चमड़े के। इन्हें वह किसी मन्दिर से उड़ा लाया था पर पहनता नहीं था। लेकिन नियम से झाड़-पोंछकर, तेल लगाकर रखता था। साल में एक बार कभी पहनकर ऐंठ दिखाता था। कभी माँगने पर भी सिद्धू को नहीं देता था। पर इस बार उसने ख़ुद निकालकर दिए थे। रास्ता तपने पर पहनने के लिए कहा था। पर पहनकर एक घंटा चलने के बाद ही जूते काटने लगे। ध्यान बैलों से हटकर बार-बार जूतों की ओर जाने लगा। तब उसने जूते निकाल दिए। फिर से उन्हें प्लास्टिक के थैले में डाल लिया और थैला सींगों पर लटका दिया। गोवा की सीमा जाँच-चौकी पर काग़ज़ात की जाँच हुई।

“किसके हैं? क़ासिम खताल के? बारह हैं ना? जाओ।”

जाँच-चौकी पर प्रत्येक बैल को वैक्सीन लगाई गई। एक-एक करके बैल गिने गए। क़ासिम ने बारह का कमीशन खिलाकर रखा था। तेरह होते तो शायद झंझट में फँस जाता। उस एक बैल के मर जाने से वह बच गया था।

चलो, पहुँच गए गोवा! अब यहीं कहीं काम ढूँढ़ना होगा। मकान देखना होगा। इनसान बनना होगा!

आप्पू ने कहा था, खताल जो पैसे देगा उन पैसों को लेने के बाद ख़ाली हाथ मत आना। आते समय उन पैसों से शराब की बोतलें ले आना। गोवा में शराब सस्ती है। खानपुर जाकर बेचोगे तो दुगने पैसे मिलेंगे।

आप्पू की व्यावहारिक वृत्ति सीखने लायक है। लेकिन थोड़े पैसे तो ख़र्च होंगे ही। आप्पू-अम्मी के लिए और अनशी के लिए भी गोवा से कुछ तो ले जाना ही होगा।

क़ासिम खताल उसे नाके पर मिलनेवाला था। अभी भी चार घंटों का रास्ता बाक़ी था। शाम हो चली थी। कुछ ही देर में अँधेरा छानेवाला था। उससे अच्छा है कि यहीं कहीं रात गुज़ारने का इन्तज़ाम करते हैं। तड़के निकले तो दोपहर से पहले पहुँच जाएँगे।

सिद्धू ने रास्ते के पास ही खुली जगह ढूँढ़ ली। बैलों को वहाँ इकट्ठा किया। बीच में बुद्धू को बिठा दिया। खाने की पोटली खोल दी। और कल की तरह ही पाँव मोड़कर, पेट से सटाता हुआ, अनशी को याद करते हुए सो गया।

सुबह होने से पहले ही बुद्धू के गले की घंटियाँ उसकी चाल के ताल पर बज उठीं। चारों ओर भरपूर हरियाली। रास्ते पर पानी ही पानी। बस्ती-बस्ती में सार्वजनिक नल। अनशी को यहाँ कोई दिक़्क़त नहीं होगी। कहते हैं कि यहाँ के लोग बहुत अच्छे हैं। यहीं रहेंगे। इनसान बनेंगे!

एक मन्दिर के पास सभा चल रही थी। कोई एक कुर्ताधारी नेता आवेश में आकर भाषण दे रहा था। लोग तालियाँ बजा रहे थे। सिद्धू ने चाल धीमी की। धूप आँखों में आ रही थी। पेट में चूहे दौड़ रहे थे। यहीं पोटली खोलें और एकाध रोटी खा लें? या फिर पहुँचने पर खाएँ?

काहे की होगी यह सभा? चुनावों की?

“प्राणियों से प्रेम करो। जानवरों को कष्ट मत दो। अगर कोई देता है तो उसे रोको। क़ानून तुम्हारे साथ है। चोरी-छिपे जो शिकार करते हैं उनकी शिकायत करो। जीभ के चोंचले पूरे करते समय जानवरों को भी दर्द होता है, इस बात को हम भूल जाते हैं। मुर्ग़ों-बकरों की बलि बन्द होनी चाहिए। जो गाय-वाय मारकर खाते हैं उन्हें भी रोकना होगा।”

सभा में आया हुआ कोई एक गला फाड़कर चिल्ला उठा—

“वहाँ रास्ते पर देखो। मवेशियों को क़त्लख़ाने ले जा रहे हैं!”

माइक पर बोल रहे नेता को और जोश आ गया।

“देखिए, गोमाता को हम देवता मानते हैं। बैल को नन्दी कहते हैं। ये मवेशी हमारे खेत जोतते हैं, इसलिए हमें पेटभर खाना खाने को मिलता है। और हम? इन बैलों को हत्या करने के लिए ले जा रहे हैं? क्या ये देखकर भी हाथ नीचे रखकर चुप रहेंगे?”

सिद्धू को उनकी भाषा समझ में नहीं आई। सभा में शामिल लोग तैश में आकर दौड़ने लगे। वे कहाँ दौड़ रहे हैं, इसे देखते-देखते उसने पाया कि वे रास्ते पर पहुँच गए हैं। किसी ने डंडा लेकर तो किसी ने यों ही शोर मचाते हुए मवेशियों को हाँककर भगाना शुरू किया। बुद्धू भी दौड़ने लगा। बड़ी कोशिश से सिद्धू ने उसे रोका। तब तक लोग दौड़कर आ गए। सिद्धू को खींचकर किनारे कर दिया और बैल को भगा दिया। बुद्धू जब दौड़ रहा था तब उसके सींग पर लटकती हुई खाने की थैली उछलकर नीचे गिर गई। सिद्धू थैली उठाने के लिए दौड़ा। लेकिन लोगों ने उसे पकड़ लिया।

“बैलों को मारने ले जा रहे हो? तुम्हें सबक सिखाना ही होगा। एक झन्नाटेदार थप्पड़ सिद्धू के गाल पर रसीद हो गया।”

“गाय-बैलों की हत्या करता है? पहले तेरी करते हैं।”

फिर से किसी की लात सिद्धू पर पड़ गई। फिर किसी और की। पागल मधुमक्खियों की भाँति लोग उस पर टूट पड़े। प्राणियों से प्रेम करनेवाले इन लोगों ने सिद्धू को जी भरकर पीटा।

लेकिन इन इनसानों ने भला उसे क्यों पीटा था यह बात सिद्धू आख़ि‍र तक समझ नहीं सका!

दामोदर मावज़ो की पुस्तकें यहाँ से प्राप्त करें।