एक मिनी भ्रष्टाचार
"गांधी के नाम पर देश में कितने ही लोगों ने जीवन-भर के लिए अपना ठहरने-खाने का बन्दोबस्त कर लिया है, यदि दो दिन के लिए मेरा भी हो जाए, तो क्या हर्ज है।" 
राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, शरद जोशी के व्यंग्य संग्रह 'जीप पर सवार इल्लियाँ' से उनका व्यंग्य 'एक मिनी भ्रष्टाचार।'

पिछले दिनों मैंने एक भ्रष्टाचार किया। उसे भ्रष्टाचार कहना देश के परम भ्रष्टाचारियों की शान में गुस्ताखी होगी, मगर अपने कर्म के लिए इसके अतिरिक्त कोई शब्द मिल नहीं रहा जिसका उपयोग करूँ और कलंक से बरी हो जाऊँ। मेरे एक मित्रा ने दो शब्द सुझाए थे—समझदारी और व्यावहारिकता, जिन्हें मैं भ्रष्टाचार के एवज में उपयोग कर सकता था। उसका आग्रह यही था, मगर मैंने नहीं माना। उसका कहना था कि जो लोग भ्रष्टाचार करते हैं वे कहते हैं कि यही समझदारी है, यही व्यावहारिकता है, अतः तुम कोई अजूबा नहीं करोगे कि अपने कर्म को उक्त संज्ञाएँ दोगे। मैंने इनकार कर दिया। मैंने कहा, मुझे भ्रष्टाचार को भ्रष्टाचार कहने में हर्ज नहीं लगता। मगर यह शब्द ऐसा सर्वव्यापी है, इसके संदर्भ में ऐसी बड़ी-बड़ी हरकतें सुनाई जाती हैं कि मुझे अपना काम बहुत छोटा लगता है। मेरा भ्रष्टाचार एक नन्हा-सा भ्रष्टाचार है, भ्रष्टाचार की स्वर्ण-दिशा में एक नम्र प्रयास है, एक मुन्नी-सी क्रिया है, टुँइयाँ-सी हरकत है। मैंने शब्द बनाया—‘मिनी भ्रष्टाचार’ एक पौधे-नुमा, घुटनों-से काफी ऊपर उठी फ्रॉकनुमा भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार की पहाड़ी ऊँचाइयों में बेबी ऊँचाई का काम, महाकाव्यों की तुलना में एक हाइकू। मित्रा ने कहा—छोटा हो या बड़ा, भ्रष्टाचार तो भ्रष्टाचार है। इससे मुझे कष्ट हुआ। एकेडेमिक बहसों में यदि कटु सत्य एकाएक कहीं से उद्घाटित हो जाए, तो बुद्धिवादियों को इस प्रकार की पीड़ा हो जाती है, नैतिक प्रश्नों को लेकर विशेष रूप से।

            नियमानुसार मेरे शरीर में एक अदद आत्मा है। रहती चली आ रही है। अन्तिम प्राप्त सूचना तो यही है कि कम्बख्त सक्रिय है अभी भी, और बाह्य समझौतात्मक दबावों की उपेक्षा करती है। मेरे सद्यः भ्रष्टाचार को लेकर भी वह अपनीवाली सक्रियता दिखाने से नहीं चूकी और परम्परागत आक्रमण-प्रणालियाँ अपनाकर मुझे कचोटती रही। आत्माओं का यह स्वभाव है, मर्ज है। परिणाम यह है कि एक न-कुछ-सा भ्रष्टाचार भी मैं भुला नहीं पा रहा हूँ।

            हुआ यह कि दूर के एक शहर की एक संस्था ने मुझे ‘गांधीवाद की वर्तमान युग में सार्थकता’ विषय पर आयोजित विचार-गोष्ठी में भाषण देने के लिए बुलाया। आजकल साल-भर के लिए देश में गांधी का सीजन चल रहा है, सो यह आयोजन स्वाभाविक था। जो गांधीवादी विचार गोदामों में पड़े वर्षों से सड़ रहे थे, वे मुरझाए व्यक्तित्वों की बैलगाड़ियों पर लदकर मण्डी में आ गए और बड़ा शोरगुल रहा। भाषणों के इस विराट नक्कारखाने में विनम्र तूती के रूप में मैंने भी पेंपें प्रस्तुत की और वन्दना के बेसुरों में एक सुर अपना मिला अहं को तुष्ट किया। संस्था ने लिखा था—हम ठहरने, खाने के बन्दोबस्त के अतिरिक्त आपको तीन फर्स्ट क्लास का किराया देंगे और आपको दो दिन रहना होगा। मैंने सोचा कि गांधी के नाम पर देश में कितने ही लोगों ने जीवन-भर के लिए अपना ठहरने-खाने का बन्दोबस्त कर लिया है, यदि दो दिन के लिए मेरा भी हो जाए, तो क्या हर्ज है। गांधीवाद की वर्तमान युग में यही सार्थकता है, मैंने स्वीकार कर लिया। मैंने चेहरे को गम्भीर बनाया, विचारक की मुद्रा के उपयुक्त अपने शरीर को ढीला किया, आकाश की ओर डूबती आँखों से देखा। औपचारिकता, सौजन्य और आभार-स्वीकार की सड़ी-गली शब्दावली को याद किया और यात्रा पर चल दिया।

            स्टेशन पर आकर मैंने स्वयं से एक प्रश्न किया। हो सकता है इस प्रकार के प्रश्न उठाने में उस कमबख्त आत्मा का षड्यन्त्रा रहा हो, जो बिना टिकट मेरे साथ चल रही थी। (कार्टून आइडिया—टिकटघर की खिड़की के सामने खड़े संन्यासी से टिकट बाबू कह रहे हैं—बाबा, तुम्हारा दो टिकट लगेगा, एक तुम्हारे शरीर का, दूसरा आत्मा का) प्रश्न यह था कि मुझे थर्ड क्लास में बैठकर यात्रा करनी चाहिए अथवा फर्स्ट क्लास में।

            इसी रूप-रंग का प्रश्न कभी गांधीजी के मन में उठा था और गांधीजी के निजी ईश्वर ने उन्हें सलाह दी थी कि तुम्हें थर्ड क्लास में यात्रा करनी चाहिए, क्योंकि यह देश गरीब है, सही मानों में थर्ड क्लास है और जरूरी है कि दुख झेलकर भी तुम थर्ड क्लास के यात्रियों के समीप रहो। इसी आकार-प्रकार का प्रश्न आजादी के बाद कांग्रेसी मन्त्रिायों के मन में भी उठा था और मन्त्रिायों के निजी सचिवों ने उन्हें सलाह दी थी कि आपको फर्स्ट क्लास की यात्रा करनी चाहिए, क्योंकि आपको भत्ता मिलता है, आप थर्ड क्लास के यात्रियों से ऊपर हैं और बर्थ पर आपका जन्म-सिद्ध अधिकार रेल विभाग स्वीकार कर चुका है। मेरा प्रश्न इसी रंग-रूप और आकार-प्रकार का होकर भी भिन्न था। प्रश्न था कि क्या मुझे थर्ड क्लास की यात्रा करनी चाहिए, जबकि संस्था मुझे फर्स्ट क्लास का किराया देगी? आत्मा ने कहा कि यदि तू उनसे फर्स्ट क्लास का किराया ले रहा है, तो फर्स्ट क्लास में बैठकर जा और यदि तू थर्ड क्लास में बैठकर जा रहा है, तो तू उनसे भी थर्ड क्लास का किराया ही ले।

            मैंने कहा—‘आत्माजी, आप शरीर में विराजती हैं। आपको मेरी जेब में, मेरे बटुए में निवास करना चाहिए था, तब आप मेरी पीड़ा समझ पातीं। मैं सरकारी नौकर नहीं जिसे टिकट नम्बर देना पड़ता है। मैं संस्था का सम्माननीय मेहमान हूँ, जिसे गांधीवाद की वर्तमान परिस्थितियों में सार्थकता पर बोलना है, भाषण देना है। मेरा लाभ इसी असत्य में है कि मैं फर्स्ट क्लास से आया-गया। सत्य से संस्था की बचत होगी, असत्य से मेरी। मैं अपनी बचत करूँगा, अपने लाभ की सोचूँगा। मैंने थर्ड क्लास का टिकट खरीदा और प्लेटफार्म पर पहुँच गया। कुछ समय बाद ट्रेन आयी। थर्ड क्लास में कठिन प्रवेश की समस्या थी, पर मैंने चुनौती को स्वीकारा और अपने पौरुष को प्रमाणित करता अन्दर धँस लिया। मेरी आरामप्रिय आत्मा की एक न चली, मगर जगह बनाकर मैं बैठ लिया जैसे-तैसे।

            भाषण हुआ। मंच पर मानो रुई धुनकने का सामान लेकर हम बैठ गए और शब्द-शब्द धुनकर हमने सभा-भवन के चौकोर आकाश को पाट दिया। मैं फैल रहे भ्रष्टाचार पर बोला। मैंने गांधी से वर्तमान भ्रष्टाचारी राजनीतिज्ञों की तुलना की और प्रभावपूर्ण शब्दावली में अफसोस प्रकट किए, जिसे सुन श्रोताओं को अफसोस होने लगा। मैंने गांधीवाद के विचार-बण्डल को तत्त्व-तत्त्व खोला और हर तत्त्व को सरेआम परखा। सब मान गए कि गांधीवाद की पुरानी चली आ रही रेल वर्तमान में आकर दुर्घटनाग्रस्त हो गई है, क्योंकि वे पटरियाँ अब समानान्तर नहीं रहीं जिस पर रेल जा रही थी। मेरी बात से कुछ सहमत हुए। कुछ जो निरन्तर फर्स्ट क्लास से आते-जाते थे, असहमत हुए। उन्हें होना ही था।

            अन्त में वह स्वर्णिम घड़ी आई जब मुझे तीन फर्स्ट क्लास यानी डेढ़ सौ रुपये रखकर लिफाफा दिया गया। खर्च पचास, लाभ हुआ सौ। गांधीवाद बुरा नहीं रहा। मैंने कहा, चलेगा। लिफाफा जेब में रख लिया। उसी क्षण आत्मा को घूँसा-सा लगा। वह व्यंग्य में मेरा हाल ही दिया गया भाषण दुहराने लगी। खासकर वे अंश जो मैंने चारित्रिक पतन को लेकर कहे थे, ज़रा-ज़रा-से लाभों के लिए गिर रहे मनुष्य के लिए कहे थे।

            कई दिन हो गए, मगर आत्मा, अपनी शैली में कचोटती है। मित्रा कहता है जो तुमने किया वही व्यावहारिकता है, समझदारी है। मैं कहता हूँ, चाहे यह मिनी भ्रष्टाचार हो, पर है भ्रष्टाचार। मुझसे-उसमें क्या अन्तर है? उनको बड़े मौके मिले, उन्होंने बड़ा भ्रष्टाचार किया। मुझे एकमात्रा छोटा मौका मिला, मैंने छोटा भ्रष्टाचार किया। उसने कहा, जो हो गया सो हो गया और अब तू क्या कर सकता है? क्या तू इस पर भाषण देगा या लेख लिखेगा, मैंने सोचा यह भी कर लो। मन का भार भी हल्का हो जायेगा। और...खै़र, (सभी बातें कहने की नहीं होतीं। क्या भाषण में मेरा यह कहना उचित होगा कि मैं तीन फर्स्ट क्लास ले रहा हूँ?)

            मुझे डर लगा कि इस तरह मैं एक फ्रॉड हो जाऊँगा। भ्रष्टाचार करूँ और अपने को कोसकर सन्त बनने की चेष्टा करूँ। बड़ा बँगला प्राप्त करने के लिए वर्षों प्रयत्न करूँ और बँगला प्राप्त होने पर उसे एक कठघरा, एक कैदखाना घोषित कर स्वयं को पीड़ित बताऊँ। चोर रास्तों से अन्दर घुसकर दरवाजे पर खड़ी स्वार्थी भीड़ को कोसूँ और उससे भी काम न चले तो खुद को कोसूँ कि हाय मैं चोर दरवाजे से क्यों आया? लोग दाद देंगे कि आदमी ईमानदार है, जो सोफे पर लेटा सोफे को कोसता है। एक चुभन अनुभव करता है, चाहे जगह नहीं छोड़ता। मैं तीन फर्स्ट क्लास का रुपया जेब में रखे अब रो रहा हूँ। उफ़्फ! मैंने कहा—यह क्या किया?

            मित्रा कहता है, ‘देखो प्यारे, हर वक्त कोई नया टेन्शन खड़ा कर परेशान होना तुम लेखकों की विशेषता होती है। तुम यहाँ से वहाँ बोलने गए, तुम्हारी क्या गांधीजी से रिश्तेदारी है या डॉक्टर ने बताया था कि जाओ और भाषण दो। तुम गए, दो दिन नष्ट किए, विचार किया, विचारों को प्रकट किया और कार्यक्रम सफल बनाया। इस श्रम का मूल्य तुम्हें मिलना चाहिए। मिला है। संस्थावाले जानते हैं, तुम जानते हो। फर्स्ट क्लास का मार्ग-व्यय और थर्ड क्लास के खर्च में जो अन्तर है, वही तुम्हारे श्रम का मूल्य है।’

            ‘मगर ऐसी हालत में मुझे उन्हें साफ कहना था कि मैं थर्ड क्लास से यात्रा कर वही किराया लूँगा और भाषण देने के सौ रुपए अलग लूँगा।’

            ‘ऐसा तुम नहीं कर सकते थे।’

            ‘क्यों नहीं कर सकता था?’

            ‘इसलिए कि तुम सम्माननीय अतिथि थे।’

            ‘क्या मतलब?’

            ‘सम्माननीय अतिथि थर्ड क्लास में नहीं जाते। वे गांधीजी पर भाषण देने का पैसा नहीं लेते।’

            और इसके बाद हम दोनों ने जोर से ठहाका लगाया। हम दोनों परस्पर एक-दूसरे को दाद देते हुए हाथ मिलाने लगे।

            ‘मानते हो प्यारे, खड़ी की ना नैतिक समस्या?’ मैंने कहा।

            ‘मानते हैं।’

            ‘इससे मेरे चरित्रा की ऊँचाइयों का पता लगता है ना!’

            ‘बिलकुल लगता है।’

            ‘अब बोलो उन सौ रुपयों का क्या करें जो गांधीवाद की सार्थकता पर भाषण देने पर मिले।’

            ‘मेरी मानो तो एक शेरवानी सिलवा लो। तुम अब भाषण देने लगे हो और वक्ता शेरवानी में ही जँचता है।’

            ‘बिलकुल ठीक।’

            हम लोग खादी भंडार गए और हमने शेरवानी का बढ़िया कपड़ा खरीदा और सिलवा डाला। पहली बार जब शेरवानी पहनी तो लगा, सचमुच वर्तमान युग में कहीं-न-कहीं गांधीवाद की सार्थकता है।

 

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