
बातों का सच ये है कि सारे पहलू एक संग नहीं खुलते। सब पता भी नहीं होते। घर को सरकार को वापस थमाना और जो अब तक वहाँ जमे थे उनका विस्थापन, दिनों दिन चलता है। नल टपटपाने लगता है जैसे ज़िद में कि अब तो प्लम्बर बुलाओगे नहीं, कुछ दिन काहिली कर लें। टीवी गीज़र जवाब देने लगते हैं जैसे भान के कि उठ लेना है तो कौन चलने की ज़हमत उठाये। मौसम दूसरा आ पड़ता है मगर होता वही है जो पिछले साल आया था और दरमियानी दिनों में हवाखोरी पे निकल गया था। मकड़ियाँ अलबत्ता झल्लाई घूमतीं हैं कि जिन वस्तुओं पर अनंतकाल से सूत कात के लपेट रही थीं वो वस्तुएँ उनके पाँव तले से ज़मीन की तरह खींच ली जा रही हैं और वे धराशायी होने के डर से अपने निरे पाँवों से पित पित पितर पितर इधर-उधर दौड़ पड़ती हैं। इसी से साबित होता है, वे एक दूसरे से कुढ़ कर कहती हैं, कि गाँधी की इस वक़्त में कोई वक़त नहीं, और इतनी महत्त्वपूर्ण बात भी पूरी नहीं कर पातीं कि उन्हें भी ट्रकों पर बेदर्दी से पटक के चढ़ा दिया जाता है।
मतलब मकड़ियों को भी सब कुछ समझ नहीं आ रहा था।
या फिर सिड जैसे हो, जिसे समझ की परखच्चों को बटोर के, उनका तमगा बना के पहनने का कोई शौक़ नहीं। जो करना है करो, न बड़ा बनकर, न छोटा। जो महसूस कर रहे हो उसे बरतो, न कि उसकी अदायगी करो। सबने देखे हैं वो दुखी जन जो किसी सन्ताप पर रोते हुए चुपके से शीशे में झाँक लेते हैं कि पुरसन्ताप दिख रहे हैं और अपने कानों को खोलते हैं कि रोदन के स्वर असरदार हैं या नहीं और मुंडी अपनी पेशकश पर मस्त-मंडित होने लगती है तो अदृश्य हाथ उठा के उसे कस के पकड़ लेना पड़ता है कि जो चाह रहे हैं उससे अलैदा भाव न प्रकट हो जाए।
क्या फिर ख़ूबसूरती जिसे अपने ख़ूबसूरत होने का इल्म नहीं, वही असल ख़ूबसूरती है? अपने को देखने लगी तो घनी भवों का घनत्व घटा, उभरी हड्डियों की नज़ाकत बँटी। तभी कह गये कवि फकीर कि सुन्दरता नख-शिख के आकार नहीं, न भाव चाहकर चाहने में, न कला तकनीकी माहिरपन में। बस हो चिंगारी, औघड़पन भी हो, आत्म पे केन्द्र नहीं, सिड की तरह सिड, सिड से ही मस्त अनजान। तो सिड अपना आता, ग्रैनी चिल्ल चिल्ल गाता, बहुत से वर्षों को लौरी टेम्पो में बँधते देख, माँ बाप की झकझक पे अपना बटुआ निकाल, अप्रत्याशित खर्चों का निवारण कर देता, तपाक सपाट जो कहना हो कह देता और इनमें से किसी का अपने को दर्शाता असबाब नहीं बनाता।
घर ख़ाली किया जाता है तो दिल जो झूमने लगता है वो है धूल का। जहाँ चाहो घुस लो, जहाँ चाहो मोटी तह जमा दो कि तख्ती बन जाए जिस पर लिखें। चेहरों मोहरों पे भी अपना निज़ाम बरसा लो। मगर माँ के कमरे से उसे झाड़ पोंछ के अभी भी निकाल दिया जाता और भगवानों से दूर कर दिया जाता।
इन दो को छोड़कर हर चीज़ डाँवाडोल थी आजकल। खाना पीना उठना बैठना। खिचड़ी पराठे की लड़ाई नियम से उठके आदत से रिवायत की तरफ़ तेज़ी से बढ़ रही थी। उस दिन अमेरिकन सेंटर के तत्त्वावधान में क्रिकेट मैच होना था। एक तो अमरीका को क्रिकेट खेलाना, दूसरा अमरीका तो अमरीका जहाँ लक्ष्मी इस देश की सारी पूजा प्रार्थना ठुकरा के चली गयी थीं, तो सिड और उसकी टीम ऊँचा उड़ रहे थे।
‘जल्दी से मुझे कुछ नाश्ता दे दो’, वो नहाकर आँधी की तरह रसोई में गया, ‘और मैं भागूं’। तो वहाँ सुशीला शीश नवाए, गुड़हल का फूल चढ़ाये, माँ काली की आराधना कर रही थी। दो पल सिड रुका, फिर चरखी की तरह फेरा मारा और बाहर के — खुले — दरवाज़े से कंठे राम को आवाज़ देने को क़दम बढ़ाया। मुँह खोला ही था कि सर्वेंट क्वार्टर से कंठे के स्वर लहराए — ज्वाला कराल मृत्यु ग्रमशेषासुर सूदनम, त्रिशूलम पातुनो धीते भद्रकाली नमोस्तुते। मारे गए, ये तो अभी एक पैर पे खड़े होंगे और पूजा पूरी करके सिर पे। लीलावती सूजे पैर दिखाने लगेगी कि भैय्या जी, देखिये कितना दर्द होता है और एक क़दम नहीं चल पाती, बस यहीं बिस्तर से बँध गयी हूँ।
तो?
तो ‘मॉम’, सिड ने टंकार लगायी जिस पर तौलिया कमर पे लपेटे बड़े, ताज़े ताज़े गुसल से निकले, ताम्बे की बड़ी सी लुटिया में गंगाजल लिए, किचन के पीछे तुलसीचौरा की तरफ़ जाते मिले, तुलसी पे और सूर्य पे जल चढ़ाने निकले। उन्होंने अपने बड़े बेटे को इशारे से दिखाया, वो। पत्नी लॉन के कोने में पीपल के पेड़ के नीचे, तने पर बंधे कलावों के आगे झुकी दिखीं। ‘मॉम’, सिड ने शुरू किया, पर स्वर खिलाड़ियों की फ़ुर्ती से वापस निगले जब देखा मॉम की आँखें बंद हैं और वो जाप कर रही हैं। पूजा-घर से सुबह की पूजा करके निकली थीं। सर पर गोटे की किनारी वाला वैष्णो देवी से आया रेशमी उपरना, हाथ में पूजा की पीतल थाली, जिस पर फूल पेड़े दिया जल अगरबत्ती हैं। सिड खड़ा हो गया। फिर मॉम के संग संग चलने लगा। घर भर के भगवानों के आगे रुकने। मॉम पूजा की थाली घुमाती, आरती करती, धूप की सुगन्ध लहराती, हर भगवान के सामने नमन कर रही थी। सिलसिला ख़तम हो तो बोलें, सिड इस मंशा से साथ हो लिया था। मगर आरती तो हर बुत और तस्वीर पे फेरनी है, एक उस बुत को छोड़ कर जो बड़े कहते हैं लाखों की है और कोई भी म्यूज़ियम ले लेगा मगर पिता जी की निशानी है, उनके जिलाधीशी के दिनों से, किसी खनन में मिली, तो बेच नहीं सकते, मगर खंडित है तो बाहर नहीं रख सकते और दादी के कमरे में, उनकी अलमारी में कपड़ों के पीछे है। पर एक मूर्ति की ग़ैरहाज़िरी से कोई फ़रक नहीं पड़ता — पूजा थाल हर तस्वीर के फ्रेम में झलकता है और घर की कोई दीवार नहीं जिस पर किसी न किसी रूप में देवी देवता नहीं आसीन।
गलत, बाथरूमों में नहीं।
तो दीवारों आलों मेज़ों पर दिए की लौ और अगरबत्ती का धुआँ डल रहा है, पूरे घर का भ्रमण माँ बेटा कर रहे हैं, माँ जाप करते हुए, बेटा इन्तज़ार करता हुआ। नयी अन्तरंगता में साथ। दोनों चलते, रुकते। एक चुप, एक बुदबुद। थाली पे जलते दिए की लौ को हाथों की फहर से भगवान की तरफ़, फिर दिए की तरफ़ ताकि बाद में आरती लेते वक़्त सबका आशीर्वाद लौ में हो, और धूपबत्ती उठा के दो चार बार गोलगोल घुमा देना कि सब भगवानों पे पड़ जाए, घर में उनके आशीष पहुँच जाएँ। भगवान तो अनंत हैं — दुर्गा, कान्हा, शिव, शिवलिंग, श्रीनाथजी, काली, नन्दी, शिर्डी के साईं, नरसिंह, सरस्वती, राधा, कृष्ण, राम, सीता, पुट्टापार्थी वाले साईं बाबा, हनुमान, लक्ष्मी, पार्वती, वैष्णोदेवी, सन्तोषी माता। भगवान दीवारों पे, भगवान हर कोने में, भगवान दरवाज़ों के पीछे भी, भगवान गमलों की आड़ में भी, भगवान से कौन सी जगह छिप सकती है, सब जगह उनकी पहुँच। फिर दादा, नाना, परदादा परदादी की तस्वीरों पे — पूर्वजों में भी भगवान् का वास।
सब्र की मूरत सिड।
पर जब टीवी रूम में शीशे के खाने पे पहुँचे तब आज का बच्चा कल की अम्मा के आगे हथियार-पस्त हो गया। यहाँ बहू और बड़े का गणेश-बटोर था। शीशे धातु लकड़ी के गणेश। एक रेक्सीन के जो शनिवारी बाज़ार में मिले। एक सुपारी पर छपे। लिहाज़ा कि लकड़ी पत्थर के कलात्मक गणेश, जिनके सूंड और पेट लगभग निराकार हैं, से लेकर आज-युगीन गणेश, डेकचेयर पे लम्बे हुए, गॉगल्स चढ़ाये, किताब खोले पालथी मारे, पेट पे सीना बिठाये, और पंचमुखी, रावण जैसे, पर रावण नहीं, और तांडव करते या दूजे नृत्यमग्न, और छतरी लगाये और एक में माइक पे भाषण पेलते, शायद पैंट शर्ट में। दिन प्रति दिन उनके प्रकारों में इज़ाफ़ा होता है। हैरानी न होगी अगर इस बोलते बोलते और पत्नी के पूजते पूजते, बड़े या कोई और पीछे से हाथ बढ़ाएँ और एक और गणेश अपने अपनों के संग आ बैठें। फिर थाली उधर भी मुड़ेगी और लौ-धूप उन पर।
जितनी देर घरपरिक्रिमा ने ली, उससे ज़्यादा यहाँ लगने वाली है। सिड ने माथा पीट लिया, हे भगवान! बढ़ कर फ्रिज में झाँका कि कुछ रखा हो मगर आजकल हर चीज़ के लाले पड़े थे।
गराज की ओर लपक मारी कि विलासराम की बीवी, रूपा, या विलास से ही कहें झट रम्बल टम्बल या एक पराठा अपने यहाँ तैयार कर दो, भागना है, तो वहाँ पहुँचने के पहले ही दोनों भक्तजनों की टोली में घंटी बजाते, ओम जय जगदीश हरे स्वामी जय जगदीश हरे भक्तजनों के संकट पल में दूर करे, करते दिख पड़े। अपना संकट दूर नहीं हो रहा, सबूत कि हम भक्त नहीं, सिड ने खुद को चिढ़ाया होगा। अब पूजा-पेटपूजा को करो तर्क, और चलो एक ऐसी जगह जो धर्मकर्म के धूप-धुएँ से सुरक्षित है, और दादी प्यारी की गोद में सिर पसारो और चल निकलो खेलकूद के मैदान में।
तो एक सेब उठा, सिड दादी से रम्बलटम्बल फ़रमाइश नहीं, ओ चिल्ल ग्रैनी लेट्स बूगीवूगी करने घुसा और एक पल अस्थिर हो गया कि क्या देवीदेवताओं का सिलसिला यहाँ भी जारी है?
दादी ने, न जाने कब, नयी छड़ी उठा ली थी और लेटे लेटे उसे यों, नब्बे के कोण पे सीधा ताने, आँखें मूँदे, बुत बनी पड़ी थी, परलौकिक प्रतिमा लगती।
छड़ी हवा में सीधी सतर, पर पहले कि सिड हँसे, कोई चुटकुला बांचे, उधर से स्वर आया — मैं कल्पतरु।
घर में बसे हुए बाक़ी भगवानों से इसकी प्रेरणा मिली थी या क्या कहाँ से, कोई नहीं जानता, क्योंकि बहुत कुछ है जो कोई नहीं जानता।
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