हिन्दू
राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, भालचन्द्र नेमाडे के उपन्यास 'हिन्दू' का एक अंश। यह उपन्यास भारतीय समाज की जातीय-सांस्कृतिक संरचना का बहुआयामी आख्यान है। इसमें मोहन जोदड़ो से लेकर उन्नीसवीं-बीसवीं सदी के ग्रामीण भारत की अनेक कथाएँ दर्ज है।

देवनागरी लिपि। सरदारजी, पगड़ियाँ, साफे, चाय की केतली और प्याले लिये घूमनेवाले छोटे-छोटे बच्चे, कानों के ऊपर पाँच-सात भाषाएँ, अशोक स्तंभ। तिरंगा, वेलकम, वेलकम—मजाकिया ढंग से कागजात जाँचनेवाला आतिथ्यशील कश्मीरी आदमी, सीमा के इस ओर भी वैसे ही दीए। वैसे ही वर्दीधारी सैनिक। वैसी ही पंजाबी गर्मी। वैसे ही दिखनेवाले लोग। राष्ट्रीय गाली भी वही, तेरी माँ की। मेरे साथ सौ-एक गुजराती मछुआरे भीड़ किए खड़े थे, जो मानवाधिकार आयोग की दस साल की मशक्कत के बाद कोर्ट द्वारा पाकिस्तानी जेलों से रिहा किए गए थे। इन सबके बदन पर पाकिस्तानी जेल की इतनी ढीली-ढाली पठानी पोशाकें थीं कि उनमें छोटी कद-काठी के काठियावाड़ी लोग ढूँढऩे पड़ते थे। अभी तक उन्हें इस बात का यकीन नहीं हो रहा था कि वे अपनी युवावस्था में ही स्वदेश लौट रहे हैं। दोनों देशों के बीच किसी की समझ में न आनेवाली बारह समुद्री मीलों के विभाजन की स्वातंत्र्योत्तर सरहद लाँघकर ये उत्साही लोग मछलियों का शिकार करते-करते अन्दर चले गए और केवल लंगोट के साथ बरामद कर लिये गए। तेरह साल तक जेल में। जब पकड़े गए तब इनमें से कुछ तो पन्द्रह-सोलह साल के भी नहीं थे। जासूसी के इल्जाम में कैद किए गए। गन्दी बात। भारतीय जेलों में भी उस ओर के ऐसे ही मछुआरे कैद होंगे। गन्दी बात। आते समय एक उद्दंड जवान लड़का भारतीय सैनिकों को भी पाकिस्तानी समझकर गालियाँ देता हुआ धक्का-मुक्की कर रहा था। क्या यह जासूसी कर सकता है? जासूसी ऐसा भयानक मामला है कि इसे केवल सभ्य आदमी ही अंजाम दे सकता है। इस उम्मीद में कुछ पंजाबी कैदी शाम से खड़े थे कि गाँव के लोग लेने आएँगे। लेकिन कोई नहीं आया था। मेरा नाम अधिकृत सूची में नहीं था इसलिए पंजाबी अफसर ने मुझे बाहर रुकने के लिए कहा।

मेरा पासपोर्ट तो ठीक ही है। क्या ऐसी भी संभावना हो सकती है कि विदेश से हम खुद को अपने ही देश में गैरकानूनी तरीके से घुसाएँ? कोई इस तरह जबरदस्ती दूसरे देश का हो सकता है? हम जिस देश के नागरिक होते हैं, उसी में हमें क्यों नहीं आने देंगे? अपना वतन अपना देश तो होता ही है, लेकिन ये अपने देश पर थोपा गया एक राष्ट्र भी होता है, जो हमारे और हमारे देश के बीच झंडा फहराकर टाँग अड़ाता है। मैं आँखें मूँदकर अगली यात्रा की योजना बनाता रहा। यहाँ तक तो आसानी से आना हो गया, लेकिन इसके आगे? कल रात इस समय मैं न जाने क्या-क्या मनसूबे बना रहा था, और आज ये क्या हुआ? पी-एच.डी. के साथ अगला सब कुछ संभव-असंभव पर निर्भर। अब घर की खेती कौन सँभालेगा?

अपने पूर्वजों से चले आ रहे सिलसिले के तहत लाहौर के हजरत मियाँ पीर दरगाह में मन्नत माँगकर लौटा एक पंजाबी हिन्दू व्यापारी कह रहा था कि अमृतसर के लिए हर घंटे यहीं बाहर से सरकारी बस छूटती है। अमृतसर—अम्बाला—दिल्ली—वहाँ से भुसावल जानेवाली शाम की कोई भी गाड़ी—कल सुबह इस समय तक ग्वालियर। दोपहर में भोपाल। शाम को खंडवा, कल रात भुसावल। दो दिन दो रातें। उसमें भी हमेशा की तरह आठ-आठ दस-दस घंटे देरी से चलनेवाली गाड़ियाँ।

रामा रे रामाऽ   जी रे त्त जि र जी    जी जी जी जीऽ

नागरिकता की खातिर तकलीफें सहते हुए आए बस में सवार श्रमजीवी वर्ग के लोगों में हम दो-तीन ही बूज्र्वा थे। मैं तो फौजी अफसर की पहचान से आधे घंटे में आराम से सरहद लाँघनेवाला बुद्धिजीवी प्रोफेसर। उपमहाद्वीप के भ्रष्टाचार का आदर्श नमूना। इससे मायूस होकर मैं बस की आखिरी कतार के कोने में अपना बक्सा पैर के नीचे रखे बैठा था। एक ठेलेवाला सिक्ख स्टेनलेस स्टील की बटलोई और दस-बीस काँच के गिलास उँगलियों में फँसाए क्येरी शरबत, क्येरी शरबत चिल्लाता हुआ बस में चढ़ा। मेरे साथ चौकी से आए एक पंजाबी हिन्दू व्यापारी ने खुद तो शरबत लिया ही, साथ ही एक नोट पेशगी देकर बस में सवार सभी को एक-एक प्याला देने का आदेश दिया। पाकिस्तान से आने के कारण उसमें राष्ट्रीय भाईचारे की भावना का ज्वार उमड़ आया था।

अमृतसर रेलवे स्टेशन पर बस के आते ही अखबार बेचनेवाले सभी लड़कों ने भारत-पाकिस्तान युद्ध के समाचारों की जोर-जोर से चीख-पुकार मचाकर भीड़ बढ़ा दी। वरना उनके इतने अखबार नहीं बिकते। गन्दी बात।

फिलहाल तो अमृतसर-जालन्धर होकर दिल्ली का टिकट लीजिए और वहाँ दिल्ली में ही भुसावल की सीट मिल जाए तो देखिए, यहाँ नहीं। इंडियन रेल। हमेशा का यह डर भी था ही कि खड़े-खड़े भी जा सकेंगे या नहीं, इसीलिए मैंने टिकट खिड़की में बैठे सफेद दाढ़ीवाले से पूछा, क्या दूसरा भी कोई रास्ता है? वह शांति से बोला, दूसरा रास्ता? है न—बरथ पर सो जाने का। बस्स। टिकट चेकर आएगा, तो बेटा उसको पाँच रुपया दे देना। जाओ। आधे घंटे के बाद गड्डी एक पर आएगी।ट्ठा

बक्सा लेकर मैं स्टेशन के बाहर मस्का-रोटी के होटल में घुस गया। दीवार पर बीच में गुरू दसमेस और चारों ओर करीब पन्द्रह सन्तों के नाम। सुन्दर गुरुमुखी में छपे। उनमें एक नाम गुरू नामदेवजी। वाहे गुरू। ट्ठालवि ट्ठालवि लवि ट्ठालवि। कीर्तन, मृदंग, धुमकिट तकतक। पिताजी की उत्कट याद। उस ग्लानि के समय में इधर पंजाब में इस्लाम के अखाड़े में उतरकर आज तक के कैलेंडर पर अपना स्थान अबाध रखनेवाले नामदेवजी। काहेकू कीजे ध्यान जपना। जो मन नहि सुध अपना। धुमकिट तकतक ट्ठालवि ट्ठालवि। स्टेशन में आकर अँधेरे में ही गाड़ी के सामान की एक बर्थ पर थोड़ी देर पहले के सफेद दाढ़ीवाले को याद कर लेट गया। चलो शुरुआत तो हुई। फिर लेटे-लेटे लगा जैसे मैं परीक्षा के अंतिम प्रश्न का उत्तर जल्दबाजी में लिख रहा हूँ। समय समाप्त हो चुका है, प्रश्नपत्र अभी आधा भी हल नहीं हुआ है, सारे उत्तर पता होने के बावजूद। शायद किसी एक प्रश्न ने बहुत ज्यादा समय ले लिया। प्रत्येक सेकेंड युग जैसा बीत रहा है।

फिर गाड़ी के अन्दर दीये जल उठे। जालन्धर जानेवाले लोग एक-एक कर आ बैठे। मेरी ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। गाड़ी शुरू हुई। पुल के नीचे जगमगाती रोशनी से भरे चौक में ब्रांज से बना किसी का भव्य अश्वारूढ़ पुतला। एकदम ऊँचा। हाथ की तलवार भी ब्रांज से बनी। उसे ऊँचा ताने हुए हमेशा भीड़ भरे चौक की आवाजाही देखते-देखते कितना उकता जाता होगा बेचारा? खंडू, ज्यादा होशियारी मत दिखाओ। पिताजी का कठोर स्वर। मैं कभी भी, कहीं भी अपना मौलिक निरीक्षण बताने के लिए हरदम तैयार रहता। इस पर पिताजी का आदेश—ज्यादा होशियारी दिखाना बन्द करो, खंडू। उनकी धारणा थी कि हमारा व्यक्तित्व आम लोगों से अलग नहीं होना चाहिए। मेरे मुँह पर हमेशा यह मुसका बँधे होने के कारण मेरी हिम्मत पस्त होती। लगता, पिताजी की ही वजह से मैं पिछड़ रहा हूँ। धूप के दिनों में ठंडे पानी से नहाते वक्त चेहरे पर साबुन मलकर अचानक उठते समय सिर पर ठस्स से लगनेवाली नल की टोंटी। खंडेराव, यदि ऐसा अंकुश नहीं होता तो धृष्टता में तू कितना बहक गया होता? संयम की महिमा पिताजी ने ही तुझे समझाई थी। लेकिन अन्त तक तू उनकी महिमा को समझ नहीं पाया। निरीक्षण करना ठीक है, लेकिन उसे तुरन्त बताएँ क्यों? क्या यही होशियारी का तरीका है? हे तलवारधारी पुतले, इस खंडेराव को क्षमा कर दो।

इस डिब्बे में बिलकुल ही शोर नहीं था, फिर ध्यान में आया कि यहाँ के सारे पंखे चोरी हो गए हैं। चलो अब दिल्ली तक ऐसे ही बॉयलर में। आँखे मूँद लीं। गाड़ी की आवाज में अपने आप झपकी आने लगी।

मैं बाघा बॉर्डर के राजमार्ग के एक मोड़ पर आधे पाकिस्तान और आधे हिन्दुस्तान के बीच में फर्लांग-भर लम्बी चारपाई बिछाकर सोया हूँ। बिलकुल अन्तर्राष्ट्रीय सीमा पर। लोग कहते हैं, सोने दो जी बेचारे को, ऐसे ही थका होगा इतने हजारों वर्षों का इतिहास पढ़-पढ़कर। सोने दो—यह डिब्बे के कुछ आदमियों ने कहा, या मैंने ही खुद से कहा? ऐसे ही तपती थी गोठ की चारे की कोठी। गेहूँ के भूसे की मीठी गन्ध। बचपन में एक बार मैं इस कोठी में ऊपर के खपरैल से छनकर आती प्रकाश-किरणों में नाचनेवाले धूल के चाँदी जैसे करोड़ों कण देखते हुए फँस गया था। अन्दर कोई दिखा नहीं, इसलिए सांडू बाहर से ताला लगाकर चला गया। अलग-अलग कोणों से आती प्रकाश किरण, बाकी सभी ओर अँधेरा। उस धुँधली अँधेरी और निर्जन कोठी में प्रकाश किरणों से प्रकाशित धूलिकण बड़ी तेजी से ऊपर-नीचे नाच रहे थे। एक अलग ही तान थी, पकड़ में न आनेवाली। निरन्तर बदलते हजारों आकारोंवाली। फिर कोने में रखे बबूल के जलावन के नीचे से गुच्छेदार दुमवाले और लाल-लाल ओंठ दिखाते फुर्तीले नेवला शावक एक-एक कर बाहर आए। मैं डर के मारे वैसे ही खड़ा। शावक भी मुझे खम्बा समझकर बेखौफ खेलते रहे। यह जलावन के नीचे की जगह सालोंसाल उन्हीं की रही। अभी भी है। वे शावक अभी भी दो पैरों पर खड़े होकर अपनी लाल-लाल आँखों से मेरी ओर टकटकी लगाकर देखेंगे।

शायद किसी ने जगाया। दिल्ली उतरने की तैयारी में खड़े लोग पीछे जाती मस्जिदों या दरगाहों के गुम्बदों को अपने-अपने ढंग से हाथ जोड़ रहे थे। हजरत निजामुद्दीन औलिया। दिल्ली। वहाँ स्टेशन की तूफानी भीड़ को चकमा देकर मुझे टिकटघर से भी पहले पाकिस्तान की सिन्धु का पेट में जमा पानी यमुना में पहुँचाने के लिए पेशाबघर ढूँढऩा जरूरी था। स्टेशन के पीछे नई इमारत की ओर घूमते हुए ध्यान गया कि एक काफी ऊँचा, बड़ा-सा ऊन जैसे बालोंवाला बूढ़ा कुत्ता मेरे पीछे-पीछे आ रहा है। जल्दी-जल्दी मैं अपने जैसे अन्य हाजमन्द लोगों की तरह एक दीवार से सटकर कतार में खड़े लोगों के साथ सामने की दीवार पर लिखे अक्षरों को पाँच मिनट तक पढ़ते हुए मूतता रहा : गधे के पूत यहाँ मत मूत। आजकल बाप पर शायद ही कोई गाली होती हो। फिर सामने टिकट खिड़की की ओर जाते समय भी वही थोड़ी देर पहलेवाला अच्छी नस्ल का कुत्ता मेरा पीछा कर रहा था, थोड़ा फासला रखकर मुझे शोधकर्ता की नजर से निहार रहा था। मैं कतार में आगे सरकता गया और हिमाचल में पाए जानेवाले रेशमी बालों जैसी लटोंवाला वह कुत्ता कूड़ेदान के पास खामोश बैठा मेरी हर हरकत को निहारता रहा। मैं बैग को आगे ठेलता हुआ बीच-बीच में उसकी ओर नजर दौड़ाता, लेकिन इसको भी वह जीभ बाहर निकाले देख रहा था। टिकट खिड़की करीब आते ही दिल्ली की हमेशा की राजधानीय धोखाधड़ी से बचने के लिए सावधान हो गया। फिर भी खिड़की छोड़ते वक्त अन्दर बैठे हमारे भारतीय हिन्दू नागरिक ने मेरे उस डर को सच्चाई में तब्दील कर ही दिया और जाली की आड़ से बेफिक्री से केवल टिकट फेंककर मेरे और बचे हुए बाकी पैसे दो? बाकी पैसे? ओऽ की बार-बार की मिन्नत को अनदेखा करने का हुनर दिखाता हुआ कतार में खड़े दूसरे व्यक्ति से तन्मयता से बातें करने लगा।

शर्म आई। मैंने कतार के सभी लोगों को चेतावनीस्वरूप एक राष्ट्रीय गाली रसीद की और शर्मिंदा होकर बैग उठाते हुए कतार से बाहर निकल पड़ा। मैं टिकट को निहार रहा था और वह वयस्क प्यारा कुत्ता दुबारा मेरे पीछे-पीछे हो लिया। इतने हजारों लोगों को छोड़ यह मेरे ही पीछे क्यों पड़ा है? क्या है इसका और मेरा आदिम रिश्ता? किसी अनजान जानवर का दूसरे अनजान मनुष्य से यह रिश्ता ऐसी खिन्न स्थिति में भी अनुभव करने में एक आध्यात्मिक आनन्द था। जैसे युधिष्ठिर के पीछे आखिर तक गया एक कुत्ता। क्या मुझ जैसे दिखनेवाले इसके मालिक ने इसे हाल ही में छोड़ दिया है? क्योंकि इसकी ऊन अभी भी बहुत साफ थी। लावारिस कूड़ेदान पर पलनेवाले कुत्तों ने अभी तक इसकी पीठ को काटा नहीं था। जख्म भी नहीं थे। या कहीं उसके घर में कोई हूबहू मुझ जैसा दिखनेवाला तो नहीं है? बावजूद इसके उसकी आँखों की करुण दृष्टि उसकी दुम की हरकतों से मेल नहीं खा रही थी। कहीं कुछ सन्देहास्पद जरूर था। एक बारगी अपनी गाड़ी तक पहुँचें तो वहीं स्टाल से इस सज्जन को ब्रेड देंगे, इसलिए मैं लम्बे डग भरता हुआ यार्ड से आगे चल पड़ा। इस हड़बड़ी में मेरे हाथ का टिकट नीचे गिर गया। उठाने के लिए जैसे ही मैं पीछे मुड़कर नीचे झुका, वह कुत्ता अचानक पलटकर भागता हुआ अदृश्य हो गया। इनसान ऐसे ही झुककर पत्थर मारते हैं। उसकी यह दृढ़ प्रतिक्रिया देखकर मैं शर्मिंदा हुआ।

गाड़ी लगते ही मैं लोगों से ठसाठस भरी भुसावल बोगी में सवार हुआ। दरवाजे में भी लोग खड़े थे। फिर भी मराठा आदमी की केवल संकट में जागनेवाली धींगामुश्ती की वृत्ति को खुलकर अपनाते हुए मैं काफी अन्दर तक घुसा और ऊपर की सामानवाली बर्थ पर अपना बक्सा रखने में जैसे-तैसे कामयाब हो गया, क्योंकि डिब्बे में अधिकतर मराठा लोग ही थे। साथ ही अखबार में जबलपुर की ओर हिन्दू-मुसलमानों में बड़ा दंगा होने की खबरें छपी थीं। उसके लिए ग्वालियर तक के चार डिब्बे मिलिटरी को अचानक देने पड़े थे। इस कारण सारी भीड़ इस डिब्बे की ओर मुड़ गई थी। अब आगामी छत्तीस घंटों का जागरण और मैं कल भी सोया नहीं था। रतजगे की आदत होने के बावजूद माथा टनटनाने लगा था। ऐसे में कुछ भी सुनाई देने लगता है और कौन क्या कहता है, कुछ भी समझ में नहीं आता। उधर के जैसी सोते-सोते जा सकनेवाली रेलगाड़ियाँ इस देश में कब शुरू होंगी? युद्ध की तैयारी में ही इन भिखमंगों का सारा पैसा खत्म हो जाता है। खंडेराव, अब डिब्बे में तो आ गए हो, बस अपना टनटनाता सिर सँभालो। शरीर परसो भुसावल स्टेशन अपने आप पहुँच जाएगा।

रामा रे रामाऽ   जी रे त्त जि र जी   जी जी जी जीऽ

...भगवान नहीं हैं ऐसा पढ़ा मैंने एक अखबार में।...अंग्रेजी पेपर में?...पाटील से कुबूल करवा लो। खाली-पीली इधर की टोपी उधर करता है वह।...सुधाकर क्या अभी भी ज्योति के पास ही है?...वैशाली कुछ और भी करती है?...आप क्षत्रिय हैं क्या? क्या विनोबा अभी जिंदा हैं?...तुम्हारी भाषा में वो ज्ञानपीठ मिला था वो—क्या उसका नाम—बहोत बड़ा रायटर है—मुझे भले यह मालूम न हो, तुम्हें तो पता होना चाहिए ना।

इतने में उधर से खंजड़ी पर तार सुर में दिल के अरमाँ आँसुओं में बह गएऽ गाना गाते हुए एक आदमी आता है। खंडेराव, इसे एक रुपया दे दो। वैसे भी डिब्बे में कौन ऐसा गाना सुनाएगा?...मतलब, आपको लड़का-लड़की कुछ हुआ ही नहीं? क्यों?...फ्रिज में चूहा घुस गया, बन्द कर दिया सालेकू। मर जाएगा और क्या?...या खराब करेगा सब चीजें?...तुम्हारे जोरू को कॅन्सल बीमारी हुआ है?

बाहर समाज में, परिवार में कहीं भी न मिल सकनेवाली बेनामी गोपनीयता और निजी अभिव्यक्ति, ईमानदार प्रश्न और ईमानदार उत्तर। दुख हल्का करना और कहीं न मिलनेवाला विश्वसनीय सहारा। एक-दूसरे के स्वायत्त अस्तित्व की रक्षा करनेवाला भ्रातृभाव। एक बोहरा स्त्री बड़ी-सी टोकरी जैसा पूरा काला बुर्का ओढ़े बैठी थी, जिससे डिब्बे के एकात्म भाव में कुछ विसंगति-सी आ गई थी। उसके पति ने भोजन का डिब्बा निकाला और उसने भी झट से चेहरे पर लटकनेवाला जाली का ढक्कन उलटा कर अपने सुन्दर नाक-नक्श से डिब्बे के भीतर का धार्मिक-सामाजिक वातावरण काफी सुहाना बना दिया। एक आदमी बोहरा से गुजराती में पूछता है, क्यों जी, तमारो अमदाबादे जामा मशीदमां तरक्की मदरसा चाले छे के? तमे जाणो छो?...हाँ जी, चलता है।...वहाँ कुरआन के सिवा और क्या-क्या पढ़ाते हैं? जवाब : ठेंगा।

भालचन्द्र नेमाडे की पुस्तकें यहाँ से प्राप्त करें।