चारों ओर भयंकर सन्नाटा था और उस निस्तब्ध प्रांतर में मैं अकेला प्राणी था। रात जैसे सरक ही नहीं रही थी, मुझे लग रहा था कि मैं अनंत रात्रि के बीच से गुजर रहा हूँ। धरती के कोलाहल से दूर भागकर मैं अनजान अनंत रात्रि के फंदे में अटक गया हूँ जहाँ से मैं निकल नहीं पा रहा हूँ। रात कितनी लम्बी हो सकती है यह मैं आज ही जान सका। मैं लगातार चल रहा था किन्तु ठंड भी क्रमशः बढ़ती ही जा रही थी और रात भी मानों कभी न खत्म होने वाली रात थी।
पर्वत दिवस पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, घुमक्कड़ पर्वतारोही भू-पर्यटक बिमल दे के यात्रा वृतान्त ‘महातीर्थ के अंतिम यात्री’ का एक अंश। इसमें लेखक की 15 वर्ष की उम्र में अकेले की गई ल्हासा-कैलाशनाथ-मानसरोवर यात्रा के अनुभवों का लेखा-जोखा है।
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सांपो की घाटी तक पहुँचते सांझ हो गयी थी। नदी तक पहुँचने में और एक घंटा लग गया। तब तक अंधेरा हो गया था और तारे दिखने लगे थे। रास्ता लगभग समतल होने पर भी अंधेरे में चलने में कठिनाई हो रही थी, यदा-कदा पत्थरों में पाँव उलझ जाते। चारों ओर घटाटूप अंधेरा। मुझे एक भी आदमी कहीं मिल जाता तो उससे रात के लिए आश्रय मांगता। किन्तु कहीं किसी गाँव का चिन्ह नहीं था। दोपहर के बाद से और न गाँव मिला, न लोग दिखे। निस्संगता और अंधेरे को भी मात दे रही थी ठंडी हवा। मैंने सर ढंक लिया था, कम्बल कसकर ओढ़ लिया था किन्तु ठंड की चुभन से बच पाना मुश्किल था। लगातार चलते-चलते मैं बुरी तरह थक गया था, शक्ति बटोरने के लिए दोपहर को उस गाँव से मिले लड्डू खा चुका था किन्तु रात बढ़ते-बढ़ते मैं उस स्थिति में पहुँच गया कि दो-एक कदम चलना भी असंभव हो गया था। पाँव जवाब दे चुके थे, मन का जोर भी नहीं टिका भयंकर शीत के कारण। एक जगह बैठकर चादर और कम्बल में मैंने खुद को यूँ ढँप लिया मानों किसी ने मुझे बोरे में बंद कर दिया हो। उसी स्थिति में मैं दुबक कर सो गया।
मुझे नींद आ गयी थी। नींद में मैंने एक अजीब सपना देखा― मैं किसी अज्ञात स्थान में पहुँच गया हूँ, वहाँ कोई राजा नहीं, प्रजा नहीं, चारों ओर सन्नाटा है और रह-रह कर आकाश से फूलझरी की तरह तुषारपात हो रहा है जिससे शीत बढ़ चली है, उस ठंड में कोई जी नहीं सकता। मैं उस राज्य में पहुँचकर खो गया हूँ। वहाँ केवल कुछ तांत्रिक घूम-फिर रहे हैं मृतकों की खोपड़ी बटोरने के लिए। ठंड से मैं यूँ काँप रहा हूँ कि उस कंपन से मेरी हड्डी-पसली तक एक दूसरे से टकराने लगी है। घास की रजाई भी उस भयंकर ठंड को रोक नहीं पा रही है। ऐसे में एक कापालिक आकर मेरे सामने खड़े हो गये, उनके गले में नरमुंड की माला थी, हाथ में त्रिशूल, सर पर जटा। वे मेरी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे, मेरी खोपड़ी उन्हें चाहिए। उन्हें देखकर मैं आतंक से चीख पड़ा....।
मेरी नींद उचट गयी। मेरा दिल जोर से धड़क रहा था, मैं बलि के बकरे सा काँप रहा था। जगने पर मुझे घोर आश्चर्य हुआ, ऐसा सपना मैंने क्यों देखा? मैं यह दावा तो नहीं कर सकता कि मुझमें भय नामक कोई चीज थी ही नहीं, किन्तु मैं डरपोक भी नहीं था। जन्म हुआ है तो मृत्यु भी होनी है, इस सहज सत्य को मैं जानता था, मुझे मृत्यु-भय भी नहीं था। पिछली दो रात तो मैं तांत्रिक ओझा के साथ ही था, उससे पहले भी एक तांत्रिक के साथ रहकर भारत में कई बार में मौत के आसपास से गुजरा हूँ किन्तु मौत के डर से मैंने उस कापालिक का साथ नहीं छोड़ा था। फिर आज यह स्वान क्यों देखा? इस स्वप्न से मेरा साहस लड़खड़ाने लगा, कोई अनजान भय जैसे एकाएक मुझे दुर्बल बनाने लगा। मैंने साहस बटोरा, खुद को संयत किया और फिर से सोने का प्रयत्न करने लगा। किन्तु ठंड के कारण सोना असंभव था। तिब्बत में यह ग्रीष्मकाल था, दिन में उतनी सर्दी नहीं थी, किन्तु रात में खुली जगह में इतनी भयानक ठंड होगी इसकी मुझे कल्पना भी नहीं थी। मेरे मोटे कपड़े, चादर, कम्बल आदि उस ठंड को पछाड़ने में असमर्थ थे। शरीर क्रमशः सुन्न पड़ता जा रहा था, लगता था कि देह में कहीं गर्मी है ही नहीं।
अब किया क्या जाए सोचते-सोचते याद आया कि कपालभाति प्राणायाम से इड़ा व पिंगला का उत्ताप लौटाया जा सकता है। अत: मैं प्राणायाम करने बैठा। काफी देर तक प्राणायाम करने के बाद देह में कुछ गर्मी आयी, मैं लगभग स्वाभाविक स्थिति में आ गया। उसके बाद योगासन की मुद्रा में ही मैंने जप शुरू किया-सो अहं, सो अहं सो अहं....। जप करते हुए मैं शून्यावस्था में पहुँचा, मंत्र खो गया और मन एकाग्र अवस्था में पहुँच गया। न जाने इस अवस्था में मैं कितनी देर तक था, एकाएक मन में शांत बुद्ध का ध्यानी चेहरा उगा, उसके बाद ही देखा कि बुद्ध मूर्ति के पास ही वह कापालिक भी हैं जिन्हें मैंने कुछ देर पहले स्वप्न में देखा था। क्रमशः लगा कि कापालिक के वेश में खड़ा व्यक्ति मेरे साधुबाबा हैं। मैं जैसे होश में नहीं था, एकाएक मैं चीख पड़ा― साधुबाबा!
इस चीख के साथ ही मेरी तन्मयता टूटी। ध्यान करते समय भी शायद मैं अपनी मानसिक दुश्चिंता से बरी नहीं हो पाया था, उसी का साकार रूप था वह, जो मैं स्वप्न में और ध्यान में देख रहा था। उस चिंता से मैं उबर नहीं पा रहा था यद्यपि अब पूरी तरह जाग गया था। मैंने सोचा कि इस तरह पड़े-पड़े ठंड में सिकुड़ कर मरने से तो अच्छा है कि फिर आगे बढूँ। यह सोच कर मैंने झोली टांग ली और चलने लगा। अंधेरे में आँखें अब अभ्यस्त हो गयी थीं। मणिमंत्र गुनगुनाता हुआ मैं आगे बढ़ता गया, नदी के समांतर। कुछ देर के बाद पहाड़ के ऊपर से संतरे के फाहे सा चाँद झाँकने लगा। चारों ओर भयंकर सन्नाटा था और उस निस्तब्ध प्रांतर में मैं अकेला प्राणी था। रात जैसे सरक ही नहीं रही थी, मुझे लग रहा था कि मैं अनंत रात्रि के बीच से गुजर रहा हूँ। धरती के कोलाहल से दूर भागकर मैं अनजान अनंत रात्रि के फंदे में अटक गया हूँ जहाँ से मैं निकल नहीं पा रहा हूँ। रात कितनी लम्बी हो सकती है यह मैं आज ही जान सका। मैं लगातार चल रहा था किन्तु ठंड भी क्रमशः बढ़ती ही जा रही थी और रात भी मानों कभी न खत्म होने वाली रात थी।
अचानक सामने का एक दृश्य देखकर मेरे रोंगटे खड़े हो गये। मेरे ठीक सामने कुछ दूरी पर छाया की तरह कोई आकृति थी। अंधेरे में चाँद के छुद्र टुकड़े से जो रोशनी छिटक रही थी उस प्रकाश में लगा कि वह शायद कोई कापालिक हो जो मेरे आगे-आगे चल रहा था। मैंने खुद को टटोलकर देखा कि कहीं मैं नींद में तो नहीं चल रहा हूँ। यह निश्चित कर कि मैं सजग और स्वाभाविक हूँ मुझे तसल्ली हुई कि मैं सपना नहीं देख रहा था। मुझे लगा कि वह व्यक्ति चाहे जो भी हो, मुझे उसकी जरूरत है, इस अंधेरे में वह मेरे उद्धार के लिए आलोक की तरह उभरा है। मैंने चीखकर उसे रोकना चाहा, किन्तु मेरे गले से आवाज न निकली। मैंने उस व्यक्ति का अनुसरण करते हुए अपनी चाल तेज कर दी।
कुछ देर के बाद में उनके बगल में पहुँच गया। मैंने उनका चेहरा देखना चाहा, किन्तु इतनी रोशनी नहीं थी कि चेहरा स्पष्ट दिखता। तिब्बत में आने के बाद से विभिन्न सम्प्रदाय के लामाओं को देखा था, एक तांत्रिक-ओझा देखा था, किन्तु कहीं साधु या योगी या शुद्ध तांत्रिक नहीं देखा था। इसलिए अस्पष्ट आलोक में उन्हें देखकर यह समझ नहीं पाया कि वे क्या हैं, मैं कुछ बोल भी न सका, केवल हैरान होकर उन्हें देखता रहा कि वे इंसान हैं या और कुछ। उनके शरीर में कोई भी कपड़ा नहीं था, वे नागा संन्यासियों की तरह नंगे थे। सर के बाल जटा बनकर उनकी पीठ पर लटक रहे थे। उनके हाथों में भी कुछ न था। उस भयंकर जाड़े की रात में कोई साधु या योगी नंगा होकर घूम सकता है यह सोचा भी नहीं जा सकता था। उन्हें रुकते देखकर मैं भी रुक गया। सामने हम बढ़ भी नहीं सकते थे क्योंकि हमारी बाँयीं ओट से एक छोटी पहाड़ी नदी वहाँ आकर सांपो से मिली थी। संन्यासी कुछ देर वहाँ खड़े रहने के बाद छोटी नदी के किनारे-किनारे बढ़ने लगे। मैं उनके पीछे लगा रहा। कुछ दूर जाकर नदी सँकरी हो गयी थी, बड़ी-बड़ी चट्टानों के बीच से वहाँ वह झरने की तरह बहती थी। संन्यासी के अनुकरण में मैंने भी उन बड़ी-बड़ी चट्टानों पर से कूदते-फलांगते नदी पार की। नदी पार करके संन्यासी मेरे लिए रुके नहीं, वे दक्षिण की ओर बढ़ गये। मेरी इच्छा हो रही थी कि उनका पीछा करूँ, किन्तु मेरा लक्ष्य पश्चिम की ओर बढ़ना था, अतः संन्यासी के पीछे न जाकर मैं नदी के किनारे बैठ गया।
बैठते ही लगा कि मेरे दोनों पाँव ठंड से जम रहे हैं। पाँव का रक्त हिम होने लगा था। फिर समझ में आया कि दोनों जूते भीग गये थे, उनमें पानी भर गया था। नदी पार करते समय किस समय जूतों में पानी भरा था यह मैंने ख्याल नहीं किया था। जूते उतार कर चादर से दोनों पाँव पोंछ लिए, फिर पाँवों को रगड़ता रहा। थोड़ी देर में पाँवों में जान आयी, वे तो जैसे सुन्न ही हो गये थे, अब मैं नई मुसीबत में पड़ गया था, न गीले जूते पहन सकता था और न ही नंगे पाँव इतनी ठंड में चलना संभव था। सर्दी भी चरम् पर थी, वहाँ बैठे रहना भी दूभर था। कुछ समझ ही नहीं पा रहा था कि अब मैं क्या करूँ। दक्षिण की ओर बढ़कर वह संन्यासी भी ओझल हो गया था। वे चाहे जो भी हो, काफी दूर तक अंधेरे में साथ देकर और नदी पार कराकर मेरा बहुत उपकार किया था उन्होंने। मैं किंकर्तव्यविमूढ़-सा बर्फ जैसे पत्थर पर बैठा रहा और ठंड से सिकुड़ता रहा।
ऐसे समय में मेरे आनंद का ठिकाना न रहा जब मुझे मुर्गे की बांग सुनाई दी― कू-कडूँ-कूँ। वह बाँग नहीं, जीवन संगीत था। आशा व आनंद की ध्वनि थी वह। मेरे अनंत रात्रि के अवसान का सूचक थी मुर्गे की बांग जो नव-जीवन के मंत्र की तरह कानों में अमृत घोल गयी। मैंने गौर से देखा, दूर के नक्षत्र निष्प्रभ होने लगे थे। एक भयंकर काली रात के बाद फिर सुबह होने वाली थी।
जिधर से मुर्गे की बांग सुनाई पड़ी थी, मैं जूते हाथ में लेकर उधर ही चल पड़ा। कुछ दूर बढ़ने पर हाल ही में जोते गये खेत में पहुँचा। मुझे लोकालय ढूँढ़ने का कष्ट नहीं झेलना पड़ा, लोकालय खुद ही मेरे पास दौड़कर आ गया-पलक झपकते मुझे कुत्तों ने घेर लिया था। हाथ में जूते लिये मैं महामूर्ख की तरह खड़ा अपने इष्टदेव को स्मरण कर रहा था। लालटेन लेकर पास के एक घर से एक व्यक्ति निकल कर मेरे पास आया तो मैंने ठंड में काँपते हुए किसी तरह कहा― "थोड़ी आग मिल जाती!"
एक त्रापा की दुर्दशा देखकर उन्हें दया तो आनी ही थी, तिब्बती यूँ भी दयालु होते हैं। वे मुझे अपने घर ले गये। मुझे उनसे और कुछ कहना न पड़ा। मुझे कमरे में ले जाकर बिस्तर दिखाते हुए वे बोले― "सो जाओ।" बिस्तर पर और भी कुछ लोग सोए हुए थे।
मेरी जो हालत हो गयी थी, उसमें बिछौने से मधुर चीज और क्या हो सकती थी? जो लोग सो रहे थे, उन्हीं के बगल में मैं भी बिना किसी झिझक के जाकर लेट गया और उनकी रजाई में दुबक गया। आह! जो आराम मिला उसका क्या कहें। उस अनुभूति को ही शायद आनंद की चरम अनुभूति कहते हैं।
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