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कश्मीरी पंडितों की वापसी भारतीय राजनीति में एक बड़ा मुद्दा है। बहुत-सी बहसें वहीं से शुरू होती हैं और ख़त्म भी। विस्थापन की त्रासदी का न्याय विस्थापितों का सम्मानजनक पुनर्वास ही हो सकता है। लेकिन इस न्याय की राह में कई बाधाएँ हैं तो कई मोड़ भी।
राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, अशोक कुमार पांडेय की किताब ‘कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ का एक अंश।
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एक किस्सा डॉ. जगत मोहिनी का है। लाहौर के किंग एडवर्ड मेडिकल कॉलेज में पढ़ते हुए अपने सहपाठी डॉ. ओंकार नाथ थुस्सू से शादी करके 1947 में वह श्रीनगर आ गई थीं। डॉ. साहब की पहली पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी और उन्हीं की स्मृति में दोनों ने मिलकर बर्बरशाह इलाक़े में ‘रत्तन रानी अस्पताल’ खोला। संजय टिक्कू भी उसी इलाके में रहते हैं जहाँ अब केवल 4 पंडितों के परिवार बचे हैं। वह आधुनिक सुविधाओं से लैस कश्मीर का पहला अस्पताल था। जगत मोहिनी ने एक तरफ़ चिकित्सा के क्षेत्र में तो दूसरी तरफ़ समाज-सेवा के क्षेत्र में, विशेष तौर पर महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर जम के काम किया। तीन कमरों से ‘विश्व भारती’ स्कूल शुरू किया जिसकी एक शाखा नोएडा में खोली गई जिसे सँभालने उनके बेटे अशोक थुस्सू दिल्ली आ गए थे।
राजनीति में भी थोड़े समय सक्रिय रहीं। पहले कांग्रेस में रहीं और फिर 1977 में जनता पार्टी में शामिल हुईं। 1977 के चुनावों में वह हब्बा कदल से प्रत्याशी थीं और नेशनल कॉन्फ्रेंस के लोगों ने उन पर हमला भी किया था। इन्दिरा गांधी से निजी सम्बन्ध थे उनके। बताती हैं कि ‘उनके दादा और मेरे नाना भाई थे। उनसे कहा एक बार कि आप लोग हमारी सुनते क्यों नहीं? हम आपके अपने लोग हैं और आप सारी गलत नीतियाँ लागू करती हैं और हमें श्रीनगर की सरकारों के रहमोकरम पर छोड़ देती हैं। इन्दिरा जी कहने लगीं― हमने यह किया, हमने वह किया। मैंने कहा― आप हवाई जहाज में उड़ती हैं न, आप जमीन में रेंगते साँपों और बिच्छुओं को नहीं देख पातीं। उन्हें बुरा लगा लेकिन मैं सच कह रही थी।’
श्रीनगर आने के बाद वह यहीं की होकर रह गईं। जब आई थीं तो लोग उन्हें कूरी (बिटिया) कहते थे, फिर ‘बहन जी’ और फिर ‘मम्मी जी’। 1988 में ओंकारनाथ जी की मृत्यु हो गई। लेकिन जब आतंकवाद शुरू हुआ तो अपने परिवार की आशंकाओं के बावजूद कश्मीर में ही रहने का फ़ैसला किया। वह कहती हैं― ‘ना। मुझे डर नहीं लगा। पूरे दो साल मैंने सोचा कि पंडित भाग क्यों रहे हैं?’ मेरा बेटा बहुत परेशान था लेकिन मुझे कोई डर नहीं लगा क्योंकि मैं तमाम आतंकवादी लड़कों को जानती थी। उनमें से कई मेरे हाथों ही पैदा हुए थे...। मुझे दुःख हुआ उनके हथियार उठाने का...। जो वे कर रहे हैं, वह गलत है लेकिन राज्य की सरकारों और दिल्ली के रवैये और कश्मीर पर उनकी गलत नीतियों ने साबित किया है कि जब एक देश अपने युवाओं की फ़िक्र नहीं करता तो वे विद्रोह में उठ खड़े होंगे और हथियार उठा लेंगे।
कश्मीर एक ऐसी जगह है जहाँ सदियों या पीढ़ियों से हम गुलाम हैं। जब मैं ‘हम’ कहती हूँ तो मैं इसमें शामिल हूँ। 1947 के बाद से केन्द्र सरकारों की गलत नीतियों ने इसे बर्बाद कर दिया है। जब मैं यहाँ आई तो मैंने अपने पति से पूछा कि कश्मीरी इतने कायर क्यों हैं? वे ये सब क्यों बर्दाश्त करते हैं? इसके खिलाफ़ खड़े क्यों नहीं होते? उन्हें यह महसूस भी नहीं होता कि वे किस कदर वंचना के शिकार हैं! वह मुझसे कहते थे, कश्मीरी में कहते हैं― ‘अगर हम लड़ नहीं सकते तो क्या भाग भी नहीं सकते? हम पीढ़ियों से गुलाम रहे हैं।’
लेकिन एक तरफ उन्हें कश्मीर न छोड़ने के अपने निर्णय पर कोई पछतावा नहीं है तो दूसरी तरफ वह अलगाववादियों की इस बात से भी सहमत नहीं हैं कि कश्मीर में आतंकवाद कोई आज़ादी की लड़ाई का आन्दोलन था। वह कहती हैं― अगर यह आज़ादी का आन्दोलन होता तो मैं खुद उसमें खुशी-खुशी शामिल हो जाती। लेकिन उन्हें पाकिस्तान ने आतंकवाद के लिए उकसाया था, पैसे देकर फँसाया। जब इतनी गरीबी होगी और रोजगार नहीं होगा तो और क्या होगा?
पंडितों के लौटने के मामले में उनकी राय अलग है― जो यहाँ से गए, वे बैंगलोर, दिल्ली, मुम्बई, जयपुर जैसी जगहों पर बस गए हैं। उन्हें अच्छी नौकरियाँ मिल गई हैं, बच्चे वहीं पढ़-लिख रहे हैं, वहाँ की भाषा सीख ली है। वे यहाँ क्यों लौटेंगे? शायद यही सच यहाँ रह रहे कुछ वयोवृद्ध दम्पतियों की संतानों का है जिन्हें देश में या देश के बाहर शानदार रोजगार अवसर प्राप्त हो गए हैं।
आखिरी दोनों बातें बेहद गौरतलब हैं। आज़ादी की लड़ाई में कश्मीरी पंडित शामिल हो सकते थे, लेकिन पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का वे कैसे हिस्सा बन सकते थे? अगर ‘कश्मीर बनेगा खुदमुख्तार’ के साथ पंडितों की हत्याएँ करने की जगह विचारधारात्मक स्तर पर काम हुआ होता तो मुमकिन था कि प्रगतिशील कश्मीरी पंडितों का एक हिस्सा उसमें अपनी तरह से भागीदारी करता, लेकिन इस्लामी नारों और ‘कश्मीर बनेगा पाकिस्तान’ के साथ पंडितों के शामिल होने की उम्मीद तो ज्यादती होगी ही, उनसे भी जो शुरू से कश्मीरी स्वायत्तता या आजादी के समर्थक रहे थे।
आखिरी बात एक अजीब से उलझे सवाल के कई जवाबों में से एक है। कश्मीरी पंडितों की वापसी भारतीय राजनीति में एक बड़ा मुद्दा है। बहुत-सी बहसें वहीं से शुरू होती हैं और ख़त्म भी। विस्थापन की त्रासदी का न्याय विस्थापितों का सम्मानजनक पुनर्वास ही हो सकता है। लेकिन इस न्याय की राह में कई बाधाएँ हैं तो कई मोड़ भी। यह सवाल अक्सर पूछा जाता है कि क्या पंडित लौटेंगे? एक सवाल इसके साथ ही जुड़ा हुआ है― क्या वे वापस लौटना चाहते हैं? डॉ. जगत मोहिनी का 2012 में दिया गया जवाब इसके तमाम जवाबों में से एक है। 30 साल पहले कश्मीर से निकलकर देश और दुनिया के तमाम शहरों में बस चुके पंडित न केवल वहाँ रच-बस चुके हैं बल्कि उनकी अगली पीढ़ियों ने वह भाषा लगभग खो दी है जो उनकी कश्मीरी पहचान का सबसे बड़ा हिस्सा थी। पुरानी पीढ़ी के लोग लौटना चाहते हैं― घाटी का जीवन उन्हें याद है। वहाँ के अनेक लोगों से संवाद है, उस संवाद की भाषा है और वे स्मृतियाँ हैं जिनमें साम्प्रदायिक सहस्तित्व है, आपसी सम्मान और स्नेह है। कुछ लोग लौटे भी।
एक कहानी पुष्करनाथ गंजू की है जिन्होंने विस्थापन के छह साल बाद लौटकर फिर से लकड़ी का अपना कारखाना शुरू किया, तो एक कहानी 26 साल बाद कश्मीर लौटकर स्कूल खोलने वाले खाचरू परिवार की भी।" रौशन लाल बावा 1990 में कश्मीर छोड़ने के 29 साल बाद 1 मई, 2019 को श्रीनगर लौटे और जैनाकदल में दुकानदारों ने दस्तारबन्दी करके उनका स्वागत किया। उन्हें लौटने के लिए कश्मीर में विभिन्न समुदायों के बीच मेल-मिलाप कराने की कोशिशें कर रहे उनके बेटे सन्दीप मावा ने प्रेरित किया था।" लौटने के 3 महीनों के भीतर ही एक बार फिर कश्मीर को कर्फ्यू जैसी स्थिति में पाकर वह जाने क्या सोच रहे होंगे!
अपने आखिरी समय में कश्मीर लौटने का फैसला रौशन लाल जी के लिए आसान हो सकता था लेकिन देश-विदेश में नौकरियाँ कर रहे युवाओं के लिए यह वास्तव में कितना सम्भव होगा, वह भी तब, जब वहाँ लगातार तनाव बने हुए हैं, कहना मुश्किल है। पूर्व वाइस एडमिरल कपिल काक खुद को बीस प्रतिशत उदारवादी पंडितों में से एक मानते हैं। इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा :
“वे कश्मीरी पंडित जो चिल्ला-चिल्ला कर लौटने की बात करते हैं, वे 1990-91 में बच्चे थे। आज हिन्दुस्तान के अलग-अलग हिस्सों में स्थायी तौर पर काम करते हैं। वे अपनी नौकरियाँ छोड़कर क्यों आएँगे? उनके नारों में विश्वास करना गलत होगा। नारे हक़ीक़त से अलग होते हैं। ये लोग कहते हैं, वे घाटी लौटकर आना चाहते हैं। उनके दादा वहाँ नौकरियाँ करते थे। उनके दादा अब रहे नहीं। उनके पिता कश्मीर के बाहर नौकरियाँ करते हैं। भारतीय राज्य ने कश्मीरी पंडितों के लिए घाटी में पर्याप्त नौकरियों का इंतजाम किया नहीं। जीविका के साधन और रहने की जगह कश्मीरी पंडितों के लौटने से गहरे जुड़ी हुई चीजें हैं।”
370 हटने के बाद कश्मीर के बाहर रह रहे पंडितों ने जम्मू से लन्दन तक जश्न मनाया। लेकिन टेलीग्राफ़ के उस साक्षात्कार में टिक्कू कहते हैं कि यह वहाँ रह रहे पंडितों के लिए मुश्किलें बढ़ाने वाला तो है ही, साथ में इस फ़ैसले के बाद पंडितों की वापसी की कोई भी सम्भावना और धूमिल हो गई है। वैसे लौटने की एक और कथा है-मनमोहन सिंह के समय जब प्रधानमंत्री राहत पैकेज के तहत कश्मीरी पंडितों के लिए नौकरियों की व्यवस्था की गई तो कोई पाँच से छह हजार पंडित कश्मीर लौटे। उनके लिए श्रीनगर के पास बडगाम, अनंतनाग सहित कई जगहों पर ट्रांजिट कॉलोनियाँ बनाई गई हैं। इनमें से कुछ कॉलोनियों में कई पंडितों से मुलाकात हुई जिन पर आगे बात होगी। ट्रांजिट कॉलोनियों में रहनेवाले कुछ लोगों ने तो शहर में किराये के मकान ले लिये लेकिन ज्यादातर दो बेडरूम वाले इन मकानों में ही रहते हैं और अक्सर छुट्टियों में जम्मू चले जाते हैं। इस बार भी जब 5 अगस्त, 2019 को हालात बिगड़े तो इनमें से बड़ी संख्या में लोग जम्मू चले गए। लेकिन नौकरियाँ कश्मीर में हमेशा से एक बड़ा मुद्दा रही हैं। निजी क्षेत्र है नहीं। जो था, वह बर्बाद हो रहा है। प्रशासन में गहरे पैठा भ्रष्टाचार एक अलग समस्या है और कुल मिलाकर नई नौकरियों का सृजन एक बड़ी समस्या बनी हुई है। ऐसे में कोई लौट भी आए तो, ग़ालिब से मुआफ़ी के साथ-रहेगा श्रीनगर में मगर खाएगा क्या?
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