शिवमूर्ति का रचना संसार : एक परिचय

शिवमूर्ति को पढ़ने का अर्थ है—उत्तर भारत के गाँवों को समग्रता में जानना। गाँव ही शिवमूर्ति की प्रकृत लीला-भूमि है। इसी पर केन्द्रित होकर उनका कथाकार दूर-दूर तक मँडराता है। गाँव के रीति-रिवाज, ईर्ष्या-द्वेष, राग-विराग, जड़ों में धँसे संस्कार, प्रकृत यौन-बुभुक्षा, परत-दर-परत उजागर होता वर्णवादी-वर्गवादी शोषण, मूल्यहीन राजनीति और उनके बीच भटकती लाचार ज़िन्दगियाँ...

शिवमूर्ति की कहानियाँ न केवल साहित्यिक महत्त्व रखती हैं, बल्कि समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। वे अपनी कहानियों में गाँव के वास्तविक चित्र को प्रस्तुत करते हैं, जिसमें उसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं दोनों को उजागर किया जाता है। शिवमूर्ति गाँव और वहाँ के लोगों के प्रति गहरी आत्मीयता दिखाने के बावजूद, वहाँ के संकट, दुख, विषमता और विसंगतियों को नज़रअंदाज़ नहीं करते। वे जातिवाद, राजनीतिक क्षरण, धर्मभीरुता, स्त्री-दमन और ताकत की हिंसा पर प्रहार करते हैं। उनकी कहानियाँ ग्रामीण समाज के जातिवाद, राजनीतिक क्षरण, धर्मभीरुता, स्त्री-दमन और ताक़त की हिंसा का प्रतिपक्ष बनती हैं।

आज हम इस अनूठे कथाकार का 75वाँ जन्मदिन मना रहे हैं। राजकमल ब्लॉग में प्रस्तुत है, उनकी पुस्तकों का संक्षिप्त परिचय। 

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कुच्ची का कानून (कहानी-संग्रह)

प्रस्तुत संग्रह में संकलित कहानियों में ‘बनाना रिपब्लिक’ दलित चेतना और मुक्ति के रास्ते को उजागर करती है, जबकि ‘ख़्वाजा ओ मेरे पीर!’ में स्त्री-पुरुष संबंधों का करुण पहलू चित्रित किया गया है। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘कुच्ची का क़ानून’ एक युवा विधवा की कहानी है जो अपनी कोख पर अपने अधिकार की घोषणा करती है। वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी के शब्दों में, “एक भी ऐसा समकालीन रचनाकार नहीं है जिसके पास कुच्ची जैसा सशक्त चरित्र हो। यह चरित्र निर्माण क्षमता शिवमूर्ति को बड़ा कथाकार बनाती है।’’

संग्रह की अन्तिम कहानी ‘जुल्मी’ उनकी प्रारंभिक रचनाओं में से एक है, जो यह दर्शाती है कि शिवमूर्ति अपनी रचना-यात्रा में कहाँ से कहाँ तक पहुँचे हैं। इन कहानियों गुजरकर आप पाते हैं कि शिवमूर्ति एक जन्मजात कथाकार हैं, जिनके होने पर कोई भी भाषा गर्व कर सकती है। 

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केशर कस्तूरी (कहानी-संग्रह)

केशर कस्तूरी शिवमूर्ति की कहानियों का संग्रह है, जो उनके अनोखे लेखन शैली और विषयों का परिचायक है। इस संग्रह में शिवमूर्ति ने अपने अनुभवों और अवलोकनों को कहानियों के माध्यम से व्यक्त किया है, जो पाठकों को आकर्षित करती हैं। इस संग्रह में संकलित कहानियों में प्रकृति का वर्णन बहुत ही सुंदर और जीवंत चित्रण है। शिवमूर्ति के रचे पात्र वास्तविक लगते हैं तो संवाद बहुत ही ध्वन्यात्मक। उनकी कहानियों में बिम्बों का उपयोग सुंदर ढंग से हुआ है।

इस संग्रह में शिवमूर्ति ने जनवादी विषयों को उठाया है, लेकिन उनकी कहानियों में जनवाद का कोई घोषित एजेंडा नहीं है। उनकी कहानियों में एक विशेष प्रकार की संवेदनशीलता और सहानुभूति है, जो पाठकों को आकर्षित करती है।

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तर्पण (उपन्यास) 

‘तर्पण’ भारतीय समाज में सहस्राब्दियों से शोषित, दलित और उत्पीड़ित समुदाय के प्रतिरोध एवं परिवर्तन की कथा है। इसमें दलितों के स्वप्न, संघर्ष और मुक्ति चेतना की नई वास्तविकता है। उपन्यास में गाँव की सामाजिक, भौगोलिक संरचना और रीति-रिवाजों का जीवंत चित्रण किया गया है। साथ ही, वर्णाश्रम व्यवस्था के विखंडन का महासत्य प्रकट होता है। रजपत्ती, भाईजी, मालकिन जैसे चरित्रों के साथ अवध का एक गाँव अपनी पूरी संरचना के साथ उपस्थित है।

इस उपन्यास में शिवमूर्ति ने दलितों के जीवन की वास्तविकता को उजागर किया है। उन्होंने दिखाया है कि कैसे दलित समुदाय सदियों से उत्पीड़न और शोषण का शिकार होता आया है। लेकिन अब वे अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। इसमें एक नई चेतना की झलक दिखाई देती है, जो क्रान्ति का नया पाठ रचती है।

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त्रिशूल (उपन्यास) 

‘त्रिशूल’ शिवमूर्ति का ऐसा उपन्यास है जो उनकी कहानियों की लीक से हटकर एक नए दृष्टिबोध और तेवर के साथ सामने आता है। साम्प्रदायिकता और जातिवाद हमारे समाज में अरसे से जड़ जमाए बैठे हैं पर इनकी आँच पर राजनीति की रोटी सेंकने की होड़ के चलते इनके ज़हर और आक्रामकता में इधर चिन्ताजनक वृद्धि हुई है। फलस्वरूप, आज समाज में भयानक असुरक्षा, अविश्वास और वैर-भाव पनप रहा है। धर्म, जाति और सम्प्रदाय के ठेकेदार आदमी और आदमी के बीच की खाई को निरन्तर चौड़ी करते जा रहे हैं।

‘त्रिशूल’ न केवल मन्दिर-मंडल की बल्कि आज के समाज में व्याप्त उथल-पुथल और टूटन की कहानी है। देशव्यापी उथल-पुथल को कथ्य बनाकर लेखक जातिवाद के विरूप और साम्प्रदायिकता की साज़िश को बेबाकी और निर्ममता से बेनक़ाब करता है। ओछे हिन्दूवाद को ललकारता है।

भारतीय समाज के अन्तर्विरोधों को उजागर करता यह उपन्यास इस तथ्य को भी स्पष्टता से इंगित करता है कि प्रतिगामी शक्तियों का मुँहतोड़ जवाब शोषण और उत्पीड़न झेल रहे दबे-कुचले ग़रीबजन ही दे सकते हैं, दे रहे हैं।

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अगम बहै दरियाव (उपन्यास)

कृषिप्रधान कहे जाने वाले देश भारत का एक आम किसान जिसके पास सौ-दो सौ बीघा जमीन, लाइसेंसी बन्दूकें-राइफलें और पुलिस-फौज में नौकरी पाए बेटे नहीं हैं, अपने दुख में अकेला और असहाय एक ऐसा जीव है, जो लगता है पूरी व्यवस्था का देनदार है। राजनीति के लिए वोट-बैंक और नौकरशाही के लिए एक दुधारू गाय।

थाने, तहसीलें, अदालतें, अमीन, पटवारी, वकील, गन्ना मिलें, आढ़ती, कर्जे और खर्चे, राजनीति और नौकरशाही, ये सब मिलकर एक ऐसा महाजाल बुनते हैं जिसके निशाने पर किसान ही होता है। यह अगम दरियाव उसी भारतीय किसान के दुखों का है, बेशक उसकी वह ताकत भी यहाँ मौजूद है जो राष्ट्रीय उपेक्षा के आखिरी सिरे पर पड़े रहने के बावजूद उसे बचाए हुए है—उसकी संस्कृति, उसकी मनुष्यता और उसका जीवट।   

शिवमूर्ति हमारे समय के ग्रामीण जीवन के समर्थ किस्सागो हैं, और ‘अगम बहै दरियाव’ उनकी अनुभव-सम्पदा और कथा-कौशल का शिखर है। कल्याणी नदी के कंठ पर बसे बनकट गाँव की इस कथा में समूचे उत्तर भारत के किसानों और मजदूरों की व्यथा समोयी हुई है। इस दुनिया में सब शामिल हैं—अगड़े, पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक सब। और सब इसमें बराबर के हिस्सेदार हैं। जिन्दगी के विविध रंगों, छवियों और गीत-संगीत से समृद्ध इस उपन्यास में ‘लोक’ की छटा कदम-कदम पर दृश्यमान है, और ग्रामीण जीवन की शान्त सतह के नीचे खदबदाती लोभ-लालच, प्रेम-प्यार, छल-प्रपंच और त्याग-बलिदान की धाराएँ भी जो जमाने से बहती आ रही हैं।

कथा-साहित्य में लम्बे समय से अनुपस्थित किसान को यह उपन्यास वापस एक त्रासदी-नायक के रूप में केन्द्र में लाता है। देश के नीति-नियंता चाहें तो इस आख्यान को एक ‘ग्राउंड रिपोर्ट’ की तरह भी पढ़ सकते हैं।

प्रतिनिधि कहानियाँ

शिवमूर्ति आम जन-मन को जीनेवाले, उनके बीच रचने-बसनेवाले, उन्हीं की दुनिया के एक ऐसे नागरिक हैं जो अपने समाज के लोगों की दशा-दुर्दशा की वास्तविक स्थितियों-परिस्थितियों को, बगैर किसी पर्दे या झालर-झूमर के सामने लाता है।

उनकी कहानियों के पात्र पूरी ताकत के साथ सामाजिक अन्याय, पीड़ा, प्रताड़ना को जीते हुए भी, चुपचाप उसे सहन नहीं कर जाते। बल्कि उस यंत्रणा को भोगते हुए, उनसे लड़ते, पछाड़ खाते पर अन्तत: उन्हें पछाड़ते देखे जा सकते हैं। यही शिवमूर्ति की कहानियों की ताकत है।

प्रस्तुत संग्रह शिवमूर्ति की प्रतिनिधि कहानियों का चयन है। 

सृजन का रसायन (संस्मरण) 

शिवमूर्ति के गद्य का अनूठा आयाम उद्घाटित करती पुस्तक ‘सृजन का रसायन’ संस्मरण के शिल्प में उनकी रचना-प्रक्रिया को रेखांकित करती है। शिवमूर्ति का जीवन अनुभवों का भंडार है। गाँव और गाँव-जवार के जाने कितने चरित्र उनके लेखन का अभिन्न अंग बन चुके हैं। जिस कथारस व दृश्यधर्मिता के साथ ठेठ देसी अन्दाज़ में वे वृत्तान्त साधते हैं, वह अद्भुत है। गाँव के छोटे-छोटे विवरणों के अलावा जियावन दरजी, डाकू नरेश, धन्नू बाबा, संतोषी काका और जुल्म का विरोध करनेवाला जंगू—सब पुस्तक के पृष्ठों पर जाग उठते हैं।

शिवमूर्ति का लेखन ठेठ देसी अंदाज़ में कथारस और दृश्यधर्मिता का मिश्रण है। उन्होंने अपने माता-पिता, रिश्तेदारों और संघर्ष के साथी को कृतज्ञता से याद किया है। पुस्तक में स्त्रियाँ, जैसे माँ, नानी, पत्नी, और शिवकुमारी, महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यह पुस्तक साहित्य और जीवन के गहरे संवाद का अनूठा उदाहरण है।

शिवमूर्ति ने माता-पिता, परिवार, रिश्तेदारों और गाढ़े समय के साथियों को कृतज्ञ आत्मीयता के साथ याद किया है। शिवमूर्ति और शिवकुमारी के विचित्र सम्बन्धों पर हिन्दी साहित्य में कौतूहल मिश्रित बहुत कुछ कहा-लिखा गया है। शिवमूर्ति इस पुस्तक में इस रिश्ते की दास्तान बयान करते हैं। जीवनानुभवों के साथ साहित्य के अनेक प्रश्नों के संवाद करती यह पुस्तक सचमुच अनूठी है।

 

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