‘कोई है जो’ पढ़ते हुए...

देवी प्रसाद मिश्र की नवीनतम पुस्तक ‘कोई है जो’ पढ़कर कथाकार-सम्पादक मनोज कुमार पांडेय ने टिप्पणी लिखी है। आप भी पढ़ें। 

***

देवी प्रसाद मिश्र के कहानी संग्रह ‘कोई है जो’ में कुल छह कहानियाँ हैं। इन सभी कहानियों में यह बात कॉमन है कि इनके वाचक/नायक पढ़े-लिखे, ईमानदार, मिसफिट और बेचैन लोग हैं। उनमें से कई तो कवि/लेखक भी हैं या कि इस प्रक्रिया में हैं। वे बाहरी और भीतरी दुनिया के भीषण और दारुण संघर्ष में फँसे हुए हैं। 

इनके केन्द्रीय चरित्र अपनी लड़ाई में पूरे जिद्दी हैं और वे टूटकर बिखर जाने की हद तक अपनी जिद को कायम रखते हैं इसीलिए ये कहानियाँ एक तरफ विक्षिप्ति तो दूसरी तरफ फंतासी की दिशा में भागती दिखती हैं।

‘पिता’ की अनुपस्थित उपस्थिति इन कहानियों की एक और गुत्थी है जहाँ पिता पिता तो रहते ही हैं, बहुत सारी स्थितियों में वे एक दूसरी दुनिया, एक रूपक या कथा-युक्ति का भी आभास देने लगते हैं।

‘मैंने पता नहीं कितनी तेज या धीरे से दरवाजा खटखटाया’ के केन्द्रीय चरित्र के पिता गुम हैं। वह नदी में कूदकर मर चुके हैं या कहीं भटककर चले गए हैं। उनका बेटा/वाचक नदी के किनारे उसी जगह पर बैठा रहता है कि वह दूसरे लोगों को मरने से बचा सके। इसी क्रम में जब वह एक लड़की को जबरन फेंके जाते देखता है तो उसकी यह लड़ाई न्याय की लड़ाई बन जाती है। जहाँ आलम यह है कि जब वह थाने में अपने आप को उस घटना का चश्मदीद गवाह कहता है तो पुलिस वाला कहता है कि आग से खेल रहे  हो...। 

दरअसल इन सभी कहानियाँ के वाचक न्याय की लड़ाई में अपने आप को चश्मदीद गवाह के रूप में पेश करते हुए आग से ही खेल रहे हैं।

‘अन्य कहानियाँ और हेलमेट’ में अन्य कहानियों के साथ हेलमेट की कहानी यह है कि कहानी के वाचक की हेलमेट के गायब होने की रपट नहीं लिखी जाती जबकि हेलमेट न होने की वजह से चालान अलग से काट दिया जाता है। ...और यह बस एक शुरुआती बात भर है, आगे दुःस्वप्नों के हकीकत में बदलने के दृश्य हैं।

संग्रह की कहानियाँ विश्वसनीय लगती हैं यह इन कहानियों की ताकत है। यह अलग बात है कि इनका वाचक अपने बयान या कि सर्वज्ञता के चलते इन्हें अवास्तविक बनाता चलता है। इस स्थिति का फायदा यह है कि कि यथार्थ और बयान के बीच की फाँक—जिसका अद्भुत इस्तेमाल लेखक ने ‘पिता के मामा के यहाँ’ कहानी में किया है—में पाठक के अपने निजी अनुभवों के लिए एक स्पेस पैदा होता है जहाँ पाठक कहानी या कि यथार्थ का अपना वर्जन लेकर आगे बढ़ सकता है।

ये कहानियाँ बाहर की दुनिया को पेश करने की बजाय इस बात को रचने में ज्यादा दिलचस्पी रखती हैं कि यह बाहर की दुनिया, लोगों के भीतरी भूगोल में किस कदर तोड़-फोड़ कर रही है। 

इन कहानियों में एक आह की तरह से स्थितियों का अनायास दोहराव है। इससे हम फिर-फिर से वहाँ पहुँचते हैं जहाँ से कहानी शुरू हुई थी, इसके बाद हम एक नई घटना या नई मुश्किल की तरफ बढ़ जाते हैं। इस बिन्दु पर यह कहानियाँ एकदम जीवित चरित्रों की तरह से बर्ताव करने लगती हैं।

यहाँ तरह तरह की बेबसियाँ और विकृतियाँ हैं। उन्हें बयान करने के लिए गद्य-कवि की लय की तरफ भागती हुई बेचैन भाषा है। उन्हें दृश्यमान करने के लिए उनसे ज्यादा तरह की उपमाएँ हैं। भाषा में यह विकृतियाँ और बेबसियाँ काँच के बेतरतीब नुकीले टुकड़ों की तरह चमकती और चुभती हैं। ये एक कवि-कथाकार की थोड़ा अधिक बोलती हुई कहानियाँ हैं। इसका उल्टा भी हो सकता था शायद...।

 

[मनोज कुमार पांडेय की फेसबुक वॉल से साभार]