चलते-चलते
उत्तरप्रदेश के आजमगढ़ में जन्में सुप्रसिद्ध गीतकार कैफ़ी आज़मी ने 11 साल की उम्र में अपनी पहली ग़ज़ल एक मुशायरे में पढ़ी। यहीं से उनकी शायराना ज़िन्दगी का सफ़र शुरू हुआ। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वे फ़ारसी और उर्दू की पढ़ाई छोड़कर मार्क्सवादी बन गए।  इसी बीच आज़मी एक शायर के रूप में आज़मी की बहुत तारीफ़ें हुईं और वे भारतीय प्रगतिशील लेखकों के आंदोलन का हिस्सा बन गए। इसके बाद में वे बंबई जाकर अली सरदार जाफरी के साथ पार्टी के अखबार कौमी जंग में शामिल हो गए। 1947 में, हैदराबाद में एक मुशायरे के दौरान उनकी मुलाकात शौकत आजमी से हुई और फिर दोनों ने शादी कर ली। बाद में शौकत ने थिएटर और फिल्मों में एक अभिनेत्री के रूप में खूब नाम कमाया। 
आज़मी का पहला कविता संग्रह, झंकार 1943 में प्रकाशित हुआ था। एक गीतकार के रूप में कैफ़ी आज़मी ने कई फिल्मों के लिए गाने लिखे जिन्हें हम आज भी गुनगुनाते हैं। कागज़ के फूल (1959), हकीकत (1964), हीर रांझा (1970), पाकीजा (1971), अर्थ (1982), रज़िया सुल्तान (1983) आदि फिल्मों में लिखे गानों के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा।
राजकमल ब्लॉग के इस विशेष अंक में पढ़ें, कैफ़ी आज़मी के लिखे गानों के संकलन 'मेरी आवाज़ सुनो' से उनके पाँच लोकप्रिय गानों के बोल…

 

मस्त आँखों में शरारत 

शमा (1961)

 

मस्त आँखों में शरारत कभी ऐसी तो न थी

यूँ ही शरमाने की आदत कभी ऐसी तो न थी

कोई बिजली है कि नस-नस में जो लहराती है

मुझे  क्या  जाने  कहाँ  लेके  उड़ी  जाती  है

शोख़ अँगड़ाई क़यामत कभी ऐसी तो न थी 

दिल धड़कता है तो चेहरे पे निखार आता है

वह तो वह हैं मुझे अपने पे भी प्यार आता है

जैसी अब है मेरी हालत कभी ऐसी तो न थी

बहकी-बहकी हुई नज़रों का सलाम आता है

दिले-बेताब ठहर, उनका पयाम आता है

है जो अब मुझ पे इनायत कभी ऐसी तो न थी

 

बदल जाए अगर माली 

बहारें फिर भी आएँगी (1966)

 

बदल जाए अगर माली

चमन होता नहीं ख़ाली

बहारें फिर भी आती हैं

बहारें फिर भी आएँगी

बदल जाए...

 

थकन कैसी घुटन कैसी

चल अपनी धुन में दीवाने

खिला ले फूल काँटों में

सजा ले अपने वीराने

हवाएँ आग भड़काएँ

फज़ाएँ ज़हर बरसाएँ

बहारें फिर भी...

 

अँधेरे क्या उजाले क्या

न ये अपने न वो अपने

तेरे काम आएँगे प्यारे

तेरे अरमाँ तेरे सपने

ज़माना तुझ से हो बरहम

न आएँ राह पर मौसम

बहारें फिर भी…

 

चलते-चलते

पाकीज़ा (1971)

 

चलते-चलते, चलते-चलते

यूँही कोई मिल गया था

सरे राह चलते-चलते

वहीं थमके रह गई है

मेरी रात ढलते-ढलते

 

जो कही गई न मुझसे

वो ज़माना कह रहा है

ये फ़साना बन गई है

मेरी बात चलते-चलते

 

शबे इंतज़ार आखि़र

कभी होगी मुख़्तसर भी

ये चराग़ बुझ रहे हैं

मेरे साथ जलते-जलते

चलते-चलते......

 

तुम इतना जो

अर्थ (1982)

 

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो

क्या ग़म है जिसको छुपा रहे हो

तुम इतना..

 

आँखों में नमी हँसी लबों पर

क्या हाल है क्या दिखा रहे हो

क्या ग़म है...

 

बन जाएँगे ज़हर पीते-पीते

ये अश्क जो पीते जा रहे हो

क्या ग़म है...

 

जिन जश्ख़्मों को

वक़्त भर चला है

तुम क्यों उन्हें धेड़े जा रहे हो

 

रेखाओं का खेल है मुकष्द्दर

रेखाओं से मात खा रहे हो

क्या ग़म है...

 

जलता है बदन

रज़िया सुल्तान (1983)

 

जलता है बदन

हाय! जलता है बदन

प्यास भड़की है

प्यास भड़की है सरे-शाम से जलता है बदन

इश्क़ से कह दो कि ले आए कहीं से सावन

प्यास भड़की है सरे-शाम से जलता है बदन

जलता है बदन

 

जाने कब रात ढले, सुबह तक कौन जले

दौर पर दौर चले, आओ लग जाओ गले

आओ लग जाओ गले, कम हो सीने की जलन

प्यास भड़की है सरे-शाम से जलता है बदन

जलता है बदन

 

देख जल जाएँगे हम, इस तबस्सुम की कष्सम

अब निकल जाएगा दम, तेरी बाहों में सनम

दिल पे रख हाथ कि थम जाए दिल की धड़कन

प्यास भड़की है सरे-शाम से जलता है बदन

जलता है बदन

इश्क़ से कह दो के ले आए कहीं से सावन

प्यास भड़की है सरे-शाम से जलता है बदन

जलता है बदन

 

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