भिन्न-रुचि का अधिकार

आमतौर पर हमारा समाज-मन एक प्रश्नहीन आनुगत्य चाहता है, और इसलिये कोई भी जिज्ञासा, कोई भी समालोचना, कोई भी भिन्नमत फौरन प्रबल विरूपता, या लगभग आक्रोश ही उत्पन्न कर देता है और ऐसे में विभिन्न विचारों और समन्वय में से होते हुए सामने की ओर अग्रसर होने वाला पथ अवरुद्ध होता जाता है।

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मान लीजिए, रवीन्द्रनाथ की कविताएँ आपको अच्छी लगती हैं, लेकिन मुझे नहीं लगतीं। आपको लगता है कि नि:संग किसी फुर्सत के समय को भी जिस तरह वे कविताएँ आनन्द से भर सकती हैं, ठीक उसी तरह जीवन के अत्यन्त प्रखर संकटपूर्ण क्षणों में भी उनसे वैसा ही आश्वासन मिल सकता है, वे कविताएँ आपके समूचे जीवन की साथी बन सकती हैं, यहाँ तक कि मृत्यु के क्षण में भी आश्रय बन सकती हैं। ‘कविकाहिनी’ से ‘अन्तिम रचना’ तक एक कवि के उन्मोचन और विकास की छवि देखते-देखते सम्भवत: आप स्तब्ध हो जाते हैं, हो सकता है उनकी विभिन्न स्तर की कविताओं को पढ़ते-पढ़ते आपको बुद्धदेव बसु के ‘कविता की सात सीढ़ियाँ’ शीर्षक वाले लेख की याद हो आती हो, जहाँ बुद्धदेव ने बताना चाहा था कि रवीन्द्रनाथ की कविताएँ 'कितने भिन्न-भिन्न स्तरों पर अच्छी हैं’ और इस अच्छी होने में भी कितनी विविधता का तारतम्य है, याद आ जाता है कि रवीन्द्रनाथ की रचनाएँ पढ़ते-पढ़ते कविता शब्द ही कितनी बहुमात्रिकता अर्जित कर लेता है। लेकिन मान लीजिये मुझे ऐसा नहीं लगता। मुझे लगता है कि उनकी कविताएँ बहुत अधिक काल-क्लिष्ट हैं; उनकी कविताओं में हमारे समय का मन, उसकी जटिलता, भंगुरता और कोणिकता को कोई स्थान ही नहीं मिलता, छोटे-छोटे आवेगों और भाषा के आडम्बर से भरी हुई है उनकी विपुल रचनावली, उनकी समस्त रचनाओं में से आज के हिसाब से पढ़ने योग्य सम्भवत: पचास कविताएँ ही किसी तरह छाँटी जा सकती हैं—हो सकता है पचास भी नहीं—मुझे ऐसा लगता है। एक समय था जब बचपन से ‘विश्वकवि’ अभिधा सुन-सुनकर आप अभ्यस्त हो गये हैं, इसीलिये आप मानते हैं कि केवल आपके लिये ही नहीं, समूची पृथ्वी के समक्ष रवीन्द्रनाथ हमेशा के लिये एक ग्रहणयोग्य नाम है। लेकिन विश्व के परिप्रेक्ष्य में देखूँ तो वे मुझे उतने दूरगामी और अन्त:संचारी नहीं मालूम होते, जितने कि शेक्सपियर, गेटे या तलस्तोय। रवीन्द्रनाथ में आप आद्यन्त आप्लावित हैं, और मुझे उन्हें लेकर बहुत सारे संशय हैं, और रह-रहकर मैं भाषा में उन्हें प्रकट कर बैठता हूँ।

यदि ऐसा होता है कि हमारी विवेचना और रुचि में इतना ही प्रभेद बना रहे, तो फिर मेरे विषय में आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी? मुझे क्या आप रसबोधहीन, करुणा करने योग्य एक बेचारा व्यक्ति मानेंगे? या कि किसी उत्कट आक्रोशवश मुझे आप बर्बर कहेंगे? आपके साथ यदि मेरा पढ़ना मेल न खाये तो क्या आप सन्देह करेंगे कि इस भिन्नता में कोई प्रगाढ़ षड्यन्त्र है? आप क्या यह सोचेंगे कि तमाम लोगों की सोच के विपरीत जाकर मैं खुद को अभिव्यक्त करना चाहता हूँ? अथवा यह सन्देह होगा कि मन-ही-मन यह जानते हुए कि यह अच्छा है, मैं आपको केवल नाराज़ करने के लिये ही इस विरूपता, विमुखता की घोषणा कर रहा हूँ? या कि उपेक्षा या आक्रोश या सन्देह की इन सब अभ्यस्त प्रतिक्रियाओं के अलावा भी कोई और रास्ता आपके मन में खुला हुआ है?

लगभग अठारह वर्ष पहले शान्तिनिकेतन में एक वर्ष रहने के दौरान लातविया के एक रवीन्द्रानुरागी से मेरा परिचय हुआ था। उस अनुरागी का नाम विक्टर यूबुलिस था। उन्होंने अनुवाद के ज़रिये रवीन्द्रनाथ को पढ़कर कवि की मूल भाषा को समझने की इच्छा प्रकट की थी, उन्होंने बाङ्ला सीखने की कोशिश भी की थी। जब हमारा परिचय हुआ तब वे बाङ्ला पढ़ लेते थे, टूटी-फूटी बोलने भी लगे थे, लेकिन तब तक उन्हें लिखना नहीं आया था। उस समय यथासम्भव वे रवीन्द्रनाथ की तथा रवीन्द्रविषयक पुस्तकें पढ़ा करते थे क्योंकि वे अपने देश की भाषा में कवि को लेकर लिखने वाले थे, इससे पहले थोड़ा-बहुत लिख भी चुके थे। चर्चा में मैंने जानने की इच्छा प्रकट की थी कि उन्होंने छ: महीने पहले छपी समालोचना की बहुचर्चित मोटी-सी अमुक पुस्तक पढ़ी या नहीं। नहीं, पढ़ना नहीं हो सका। लेकिन तुरन्त उन्होंने तय कर लिया कि रवीन्द्रभवन जाकर सबसे पहले वे उस छ: सौ पृष्ठों वाली पुस्तक पढ़ डालेंगे।

दो दिन बाद एक शाम मेरी फिर से विक्टर के साथ मुलाकात हुई। उनके प्रसन्न चेहरे पर उस समय अन्धकार की एक प्रच्छाया दिखायी दे रही थी। ‘अपने देश के लिये मन दुखी है?’ मैंने पूछा। विक्टर बोले : ‘नहीं, ऐसा नहीं है।‘ इसके बाद थोड़े संकोच के साथ बोले : ‘मैंने वह किताब पढ़ ली है। पढ़कर बहुत डर लग रहा है।‘ 'डर? क्यों?’ विदेश के जो लोग कभी रवीन्द्रनाथ को लेकर मतवाले हो गये थे, उनमें से बहुत-से लोगों ने कुछ साल बाद ही उनसे मुँह फेर लिया। इसलिये उस पुस्तक के लेखक ने यह बताने की कोशिश की थी कि वे या तो झूठे थे या फिर ईर्ष्याकातर, अपबुद्धिसम्पन्न; मुँह फेर लेना उनका छल ही था। हर पन्ने में गुस्सा था, बड़ी हीनता के सन्देह से भरी हुई थी वह किताब। और इसीलिये, विक्टर बोले : 'मुझे डर लग रहा है। मैं तो रवीन्द्रनाथ की रचनाएँ पसन्द करता हूँ। तभी तो इतनी दूर आया हूँ। लेकिन इसका यह मतलब तो कतई नहीं है कि मैं उनकी आलोचना ही नहीं करता! मेरी रचनाओं में भी उनके विरुद्ध दो-चार वक्तव्य तो रह ही सकते हैं। और यदि ऐसा है तो क्या मैं भी इस तरह आक्रान्त हो जाऊँगा, चूँकि मैं भिन्न संस्कृति का व्यक्ति हूँ? लिखने से पहले ही इस बारे में मेरे मन में डर प्रवेश कर रहा है।‘

उस दिन मैंने भले ही विक्टर को उनके मुँह पर ही भरोसा दिया था, लेकिन मन-ही-मन मैं जानता था कि उनका डर पूरी तरह से बेबुनियाद नहीं है। आमतौर पर हमारा समाज-मन एक प्रश्नहीन आनुगत्य चाहता है, और इसलिये कोई भी जिज्ञासा, कोई भी समालोचना, कोई भी भिन्नमत फौरन प्रबल विरूपता, या लगभग आक्रोश ही उत्पन्न कर देता है और ऐसे में विभिन्न विचारों और समन्वय में से होते हुए सामने की ओर अग्रसर होने वाला पथ अवरुद्ध होता जाता है। व्यक्तिगत रूप से जैसा है, जातिगत रूप से भी वैसा ही है, विपरीत विचारों को समझने, यहाँ तक कि उन्हें सुनने का भी धीरज हममें कम ही है, और रवीन्द्रनाथ की रचनाओं को पढ़ने को लेकर हमें सबसे ज़्यादा इसी संकट से जूझना पड़ता है, क्योंकि रवीन्द्रनाथ को हम एक राष्ट्रीय चिह्न के रूप में गढ़ लेना चाहते हैं। भाव और रूप की अकूत वैचित्र्यमयता से परिपूर्ण उनकी रचनाओं में कोई कभी किसी तरह की कमी की बात कह दे, या व्यक्ति रूप में उनकी किसी कमी की बात करे, हम तुरन्त उसे अभिसन्धिमय विदूषण, उनकी सर्जना की अवमानना की कोई कुटिल प्रवणता मान बैठते हैं, और उस प्रवणता के विरुद्ध हमारा एकल या सामूहिक क्रोध या सन्देह या डर उद्यत हो उठता है।

डर? हाँ, इस प्रतिक्रिया में डर का भी एक आयाम है। मुझे किसी के चित्र देखना, गीत सुनना या कविता पढ़ना पसन्द है। मेरी यह पसन्द क्या सब समय मेरे किसी निजी बोध पर, निजी किसी चर्चा पर जगी रहती है? कई बार निश्चित रूप से ऐसा ही होता है, ऐसा होना ही तो अपेक्षित है, लेकिन कई बार ऐसा भी हो सकता है कि मेरे अजाने में एक सामाजिक आदत की विरासत के रूप में मैं पसन्दगी की उसी धारा को वहन करता चलता हूँ, मुझे खुद कुछ अर्जित करना नहीं पड़ता। सम्भव है मैं चित्रों की निर्मितियों या फिर कविता की गूढ़ता को उतना नहीं समझ पाया हूँ, यहाँ तक कि उन सब विषयों में मेरी कोई स्वाभाविक उन्मुखता हो ऐसा भी नहीं है, बहुत दिनों से अनेक लोगों द्वारा कहते रहने की वजह से मैंने स्वत:सिद्ध रूप से किसी की महिमा को मान लिया है। अनेक लोगों के विचारों से, विज्ञापन या प्रचार के माध्यम से मैं किन्हीं नामों के बारे में सुनता रहा हूँ, कलाकार या कवि के रूप में मैं उनकी प्रतिष्ठा से परिचित हो गया हूँ, इसलिये बिना किसी डर के अपनी निजी कोई जि़म्मेदारी लिये बगैर मैं भी उन्हें पसन्द कर सकता हूँ। इसका मतलब यह है कि भीतर-ही-भीतर मैं औरों की रुचियों पर निर्भर हूँ और उसपर मैंने किसी तरह का आत्माभिमान गढ़ लिया है। अब ऐसी स्थिति में उस रुचि के विरुद्ध कोई प्रबल प्रतिपक्ष कुछ कहता है, तो मुझे डर लगता रहता है। तो फिर क्या मैं जिन्हें बड़ा समझ रहा हूँ वे सचमुच उतने बड़े नहीं हैं? और इस डर की वजह से, चूँकि भीतर भरोसे की कोई ताकत है नहीं, तब एक तर्कहीन प्रतिरोध आकार लेता रहता है।

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