पटेल ने गांधी जी को अपने विचारों से सहमत कराने का बहुत प्रयास किया, पर उन दोनों का सोचने का तरीका ही भिन्न था। सहज मानवीय अच्छाई में गांधी जी का विश्वास अटूट था, और दूसरी ओर पटेल यह मानते थे कि कुछ मामलों में इसका उलटा असर हो सकता है। जिन्ना समझाने-बुझाने से बदलने की सीमा पार कर चुके थे, भारत के व्यापक हितों के लिए उनसे लडऩा ज़रूरी था। 1945 में पटेल ने जिस तरह गांधी जी को जिन्ना से कभी न खत्म होने वाली बातचीत से विमुख करने की कोशिश की थी, इसके बारे में 'भवन्स जर्नल’ के विद्वान सम्पादक एवं पटेल के निकट-सहयोगी रह चुके एस. रामकृष्णन ने कहा है, ''सरदार उत्तेजित तो थे, पर वे लम्बी बहस में नहीं पडऩा चाहते थे, इसलिए उन्होंने गांधी जी को एक छोटा-सा पत्र लिखा : 'बापू, आपको एक पुरानी कहावत याद दिलाऊँ—प्यार के मामलों में कम प्यार करने वाले का पलड़ा ही भारी रहता है’।” महात्मा यह पढ़कर हँस दिए थे, पर एक क्रूर और लालची सौदागर को, जो शायलाक की तरह अपने हिस्से का मांस माँग रहा था, प्यार से जीतने की कोशिश को पटेल की यह बात रोक नहीं पाई। और किसी डेनियल को न्यायाधीश बनाकर लाने की मंशा अंग्रेज़ों की भी नहीं थी। उन्होंने लीग और कांग्रेस के संघर्ष को हवा ही दी। पटेल ने भी इन निरर्थक प्रयासों को समाप्त करने की अपनी कोशिश नहीं छोड़ी और अन्तत: अपने सहयोगियों को अपनी बात मनवाने में सफल हो ही गए और कांग्रेस ने लीग के साथ सम्पर्क-सूत्र जोड़े रहने का विचार छोड़ दिया। इससे जिन्ना का परेशान होना स्वाभाविक था, क्योंकि उनकी रणनीति को इससे धक्का लगा था। अब तक वे समझौता-वार्ताओं पर पल रहे थे और अपने विरोधियों को मात देते रहे थे। सरदार के दबाव में कांग्रेस के रुख में अचानक आए परिवर्तन को देखकर जिन्ना ने आगा ख़ाँ को मध्यस्थता के लिए मनाया। पर कांग्रेस में सबने उनसे यही कहा कि पहले वे पटेल से बात कर लें। सरदार को मनाने के लिए आगा ख़ाँ ने हर सम्भव प्रयास किया, पर वे सफल नहीं हो सके, लौह पुरुष ने झुकने से इनकार कर दिया। उन्होंने आगा ख़ाँ को बताया कि किस तरह जिन्ना कांग्रेस और हिन्दुओं के साथ हमेशा ही दुर्व्यवहार करते रहे थे और किस तरह समझौता टालने के लिए वे लुका-छिपी का खेल खेलते रहे। आगा ख़ाँ ने कहा, जिन्ना अब बदल गए हैं और अब ''वे बेहतर मन:स्थिति में हैं।” तब पटेल ने पूछा था, ''क्या बिच्छू कभी अपना रंग बदलता है?” पर आगा ख़ाँ फिर भी कोशिश करते रहे, पर सरदार ने उन्हें स्पष्ट कर दिया कि जिन्ना ''हमें अपने जाल में फँसाने की कोशिश कर रहे हैं।”
यदि पटेल-जिन्ना में बात हो जाती तो शायद परिणाम कुछ भिन्न होते। एक बात में वे दोनों एक जैसे थे। जैसा कि पटेल ने कहा था, ''मैं न राजनीतिज्ञ हूँ और न ही राजनेता। मैं तो एक सीधा-सादा किसान हूँ और मेरा एक सीधा-सा तरीका है—जब तक मुझे वह प्राप्त नहीं हो जाता, जो मैं चाहता हूँ, मैं इनकार करता रहूँगा।” इनकार करने की महारत जिन्ना को भी हासिल थी, पर पटेल में जिन्ना को हराने की क्षमता कहीं अधिक थी। आगा ख़ाँ ने कोशिश बहुत देर से की, तब तक बहुत नुकसान हो चुका था। कांग्रेस की निन्दा कर-करके जिन्ना ने सारे राजनीतिक वातावरण को ही विषाक्त बना दिया था। लीग के साथ बातचीत का कुछ परिणाम निकल सकता है, अब किसी को यह विश्वास ही नहीं रहा था। इसलिए कांग्रेस अनिच्छापूर्वक इस निष्कर्ष पर पहँुची थी कि भारत के समूचे इतिहास में हिन्दुओं को सबसे अधिक नाराज़ करने वाले व्यक्ति से कोई समझौता नहीं हो सकता। जिन्ना को अंग्रेज़ों पर भरोसा था, पर अंग्रेज़ों को जिन्ना को यह समझाना पड़ा कि यह दोनों हाथों में लड्डू वाला खेल उन्हें छोडऩा होगा। अपनी विषभरी बातों से जिन्ना ने हिन्दुओं को जितना दूर कर दिया था, उतना किसी धर्मांध मुगल शासक ने भी कभी नहीं किया था। जिन्ना न केवल पटेल के लिए, बल्कि लगभग हर कांग्रेसी नेता के लिए एक अभिशाप बन गए थे।
जिन्ना ने हिन्दुओं को मुसलमानों से घृणा करना सिखाया और मुसलमानों को हिन्दुओं से। 1937 तक जिन्ना पढ़े-लिखे हिन्दुओं को बहुत प्रिय थे। वे जिन्ना के धर्मनिरपेक्ष विचारों और राष्ट्रीय उद्देश्यों के प्रति उनके समर्पण के प्रशंसक थे। कवयित्री-राजनेता सरोजिनी नायडू ने उन्हें हिन्दू-मुस्लिम एकता का सर्वश्रेष्ठ राजदूत कहा था। पर सत्ता के लालच में जिन्ना ने वह सब कुछ त्याग दिया, जो उन्होंने चार दशकों में कमाया था। अपनी जीवन-संध्या में उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच खाई को बढ़ाया, इसी में उन्हें अपनी अभिलाषाओं की पूर्ति दिखाई दे रही थी। जिन्ना कभी सक्रिय मुसलमान नहीं रहे, पर उन्होंने आक्रामक साम्प्रदायिक नेतृत्व का मुखौटा पहन लिया था; कभी उनकी ओर ध्यान न देने वाले मुसलमान 'इस्लाम खतरे में है’ के जिन्ना के नारे के साथ बह गए। धर्मप्रेमी लोगों को नया-नया धर्मात्मा बना व्यक्ति हमेशा अधिक आकर्षक लगता है; ईमानदारी का दिखावा उन्हें वास्तविकता के प्रति अन्धा बना देता है। एक हिन्दू होने के नाते सरदार इस 'धर्मांतरण’ के बारे में कुछ नहीं जानते थे, इसलिए इस आश्चर्यजनक प्रक्रिया को भी नहीं समझ पाए। इस प्रक्रिया का रीतापन स्पष्ट था, पर मुसलमानों पर इस प्रक्रिया के नियंता का असर समझ से परे की बात थी।
इस बीच कैबिनेट मिशन दिल्ली पहुँच चुका था, और तीन महीने से अधिक समय तक कांग्रेस और लीग के प्रतिनिधियों से लगातार समझौता-वार्ता चलती रही। एक स्वीकृत सांविधानिक ढाँचे की उन्होंने बहुत कोशिश की, पर मतभेदों की खाई को पाटना सम्भव नहीं हो पा रहा था। अन्तत: मिशन ने अपनी ही योजना घोषित कर दी। पर घोषणा से पूर्व मिशन के दो सदस्यों, सर स्टेफर्ड क्रिप्स और लार्ड पेथिक-लारेंस ने एक अज्ञात स्थान पर सरदार पटेल से भेंट कर उन्हें अपना प्रारूप दिखा दिया था। प्रारूप में सम्भावित परिणामों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने के बाद ही पटेल ने अपनी सहमति दी। हालाँकि कुछ मुद्दे उन्हें स्वीकार्य नहीं थे, पर उन्हें लगा कि देश की एकता को बचाने के लिए कैबिनेट मिशन की योजना ही एकमात्र विकल्प था। जिन्ना के लिए इसके कड़े प्रावधानों से बच निकलना सम्भव नहीं था। संघ सुरक्षित थे। पटेल ने अपने एक निकटतम सहयोगी के.एम. मुंशी को 17 मई, 1946 को लिखा था, ''भगवान का शुक्र है देश के लिए खतरा पैदा करने वाली एक महान विपत्ति से बचने में हम सफल हो गए।” उन्हें इस बात का सन्तोष था कि पहली बार स्पष्ट शब्दों में किसी भी रूप में पाकिस्तान की सम्भावना को नकारने वाली आधिकारिक घोषणा हुई है। वे आश्वस्त थे कि ''अब हमारे जीवन का उद्देश्य पूरा होने जा रहा है।” 20 मई, 1946 को उन्होंने मुंशी को एक पत्र में अन्तरिम सरकार की स्थापना की सूचना देते हुए आशा व्यक्त की कि ''भले ही कानूनी रूप से यह सरकार स्वतंत्र नहीं होगी, पर एक स्वतंत्र सरकार के रूप में ही काम करेगी। इससे भारत की स्वतंत्रता का मार्ग स्पष्ट हो जाएगा। वीटो की ताकत वाली मुस्लिम लीग की बाधा हमेशा के लिए हटा दी गई है।”
शुरू में बहुत-से कांग्रेसी कैबिनेट मिशन की योजना को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं थे। तीन स्तरीय विधायी प्रक्रिया, प्रान्तों को हिन्दू बहुमत वाला समूह और दो मुसलमान बहुमत वाले समूहों में बाँटने वाले तीन उपसंघों की योजना उनके गले नहीं उतर रही थी, पर बाद में वेवल और कैबिनेट मिशन के अन्य सदस्यों के साथ विचार-विमर्श करने के बाद पटेल कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों की कई आशंकाओं को दूर करके उन्हें योजना को स्वीकार करने के लिए तैयार करने में सफल हो गए। आज़ाद ने वायसराय को अपनी स्वीकृति तत्काल भेज दी। मुख्य विरोध असम के हिन्दुओं की ओर से था, जिन्हें बंगाल के मुसलमान-बहुल प्रकार प्रान्त के साथ रखा गया था। पर इस प्रकार के समूहीकरण के बिना लीग द्वारा योजना को स्वीकार करने की कोई सम्भावना नहीं थी। इस बारे में सरदार का मस्तिष्क बहुत स्पष्ट था, उन्होंने योजना के विरोधियों को विवेकशील बनने की सलाह दी। इनमें से एक को 12 जून, 1946 के अपने पत्र में उन्होंने लिखा था, ''मैं नहीं समझता इस स्तर पर इन मामलों (अनिवार्य समूहीकरण और योजना का 19वाँ परिच्छेद) को इस समय उठाना बुद्धिमत्ता होगी। यदि अन्यथा प्रस्ताव सन्तोषजनक हैं और अन्तरिम सरकार हमें सन्तुष्ट करने वाली बनती है, तो प्रस्तावों को स्वीकारना ही बुद्धिमत्ता होगी।” राजाजी इस योजना को स्वीकार करने वालों में से थे। उन्होंने स्वीकार किया कि सरदार के 'कड़े और बुद्धिमत्तापूर्ण रुख’ के कारण ही कांग्रेस कार्यसमिति ने इस योजना को स्वीकार किया था। जैसे ही जिन्ना को कांग्रेस के निर्णय का पता चला, उन्होंने वेवल के पास लीग की सहमति भी भिजवा दी। वायसराय ने भी इसका पूरा श्रेय पटेल को दिया।
स्वाभाविक था कि देश की एकता की रक्षा की उम्मीदें राजनीतिक क्षेत्रों में बढ़ जातीं, पर तभी कुछ ऐसा हुआ जिससे मौलाना आज़ाद के अनुसार, ''इतिहास का रुख ही पलट गया।” तब तक आज़ाद की जगह नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष बन चुके थे। अध्यक्ष बनने के बाद 10 जुलाई, 1946 को बम्बई में हुई अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में ही उन्होंने घोषणा कर दी कि संविधान सभा में कांग्रेस 'पूर्ण स्वतंत्र’ होकर ही प्रवेश करेगी और कैबिनेट मिशन योजना में परिवर्तन की भी उसे आज़ादी होगी। उन्होंने कहा कि इस बात की पूरी सम्भावना है कि मुसलमान-बहुल दो समूह 'समूहीकरण के विरुद्ध निर्णय’ करें। अपनी बात को और भी स्पष्ट करते हुए उन्होंने यह भी कह दिया कि ''स्पष्ट शब्दों में कहें तो यह सम्भव है कि उत्तर-पश्चिम में पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त और उत्तर-पूर्व में असम समूहीकरण के विरुद्ध निर्णय करें।” इसका मतलब यह था कि मुसलमान-बहुल उप-संघों का गठन नहीं हो सकता था, क्योंकि हिन्दू-बहुल असम और मुसलमान-बहुल पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त उसमें शामिल नहीं होंगे। इसका सीधा-सा मतलब था उस योजना का ध्वस्त हो जाना, जिसे कैबिनेट मिशन ने इतनी मेहनत से तैयार किया था और जिसे कांग्रेस और लीग दोनों ने एक मत से स्वीकार कर लिया था।
जिन्ना की प्रतिक्रिया तत्काल और तीव्र थी। यह कहकर कि कांग्रेस अध्यक्ष ने योजना का आधार ही समाप्त कर दिया है, जिन्ना ने योजना की लीग की स्वीकृति वापस ले ली। सरदार की निराशा स्वाभाविक थी। अपने मित्र डी.पी. मिश्र को उन्होंने 29 जुलाई, 1946 को एक पत्र में लिखा, ''हालाँकि वे (नेहरू) चौथी बार अध्यक्ष चुने गए हैं, पर अक्सर वे बच्चों जैसे काम करते हैं, जिससे हम सब अचानक मुसीबत में फँस जाते हैं। आपको गुस्सा आना स्वाभाविक है, पर हम गुस्से को अपने विवेक पर हावी नहीं होने दे सकते...हाल के दिनों में उन्होंने कई ऐसे काम किए हैं, जिन्होंने हमें परेशानी में डाला है...अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक के तत्काल बाद उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस भावात्मक उन्माद का एक उदाहरण है। ऐसे में चीजें ठीक करने में हम पर बहुत दबाव पड़ जाता है। काम की अधिकता और मानसिक तनावों ने उन्हें थका दिया है। वे अपने आपको अकेला महसूस करते हैं और भावनाओं के आधार पर काम करते हैं और इस सबका फल उनके साथ-साथ हमें भी भुगतना पड़ता है। वे व्यावहारिक नहीं हैं, इसलिए विरोध कभी-कभी उन्हें पगला देता है।” गांधी जी सरदार से सहमत थे। उन दिनों वे महाराष्ट्र में पंचगनी में विश्राम कर रहे थे। जयप्रकाश नारायण जब वहाँ उनसे मिलने गए तो गांधी जी ने कहा था, ''नेहरू के जल्दबाजी में दिए गए बयान ने अविभाजित भारत के आधार पर समझौते की सारी आशाओं को समाप्त कर दिया है।”
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