ज़िन्दगी का क्या? छोटे से दायरे में चलना जानती है, जैसे एक पगडंडी पे जो शुरू हुई नहीं कि ख़तम। पर विशाल विकराल भी जानती है, जैसे पगडंडी से खुली सड़क पे निकल आये और बड़ी सड़क से जा मिले जो महामार्ग हो, ग्रैंड ट्रंक रोड जैसा ऐतिहासिक हाईवे हो। इनका पगडंडी से दूर सुदूर जुड़ जाना कहानी में नए मोड़ लाता है, ट्रक ट्रैक्टरों की दहाड़ से पगडंडी थर्रा जाती है, या सिल्क रूट से चिरकाल से उतारे रेशमी एहसास उसको नरमी से लपेट लेते हैं। पगडंडी चमत्कृत होती है कि कहाँ से आ रही होंगी ये सड़कें, किन वक्तों से, क़ाफ़िलों से, सरहदों से। और कहाँ से कहाँ आ गयी मैं, कितने अलग अलग जीवन पार करके। क्या अभी भी वही पगडंडी हूँ, या उसके भी पहले की ज़रा सी रविश?
पर ये सवाल कौन पूछेगा, कब, अभी किसे ख़बर?
अभी कमरा है, मौन है और बेटी माँ के पास आ रही है।
वो बड़े की बहन है और उसे देख वे चिल्ला पड़े हैं।
चिल्लाना परम्परा है। बड़े बेटों का चिल्लाने का पुराना रिवाज है। मालिकाना ढंग से। रिवाज मुलम्मा है। कोई दिल में खूँखार हो न हो, लिबास उसी का ओढ़ना पड़ता है। कहा जाता है कि बड़े के पिता दिल से चिल्लाते थे जबकि बड़े का दिल ज़्यादा खौलन नहीं मारता। पर ज़बान दोनों की एक सी है। रिटायरमेंट तक पिता चिल्लाते थे, फिर चिल्लाना बेटे को सौंप कुछ शान्त हो चले। बड़े ने और ज़ोरों से चिल्लाने की शान ओढ़ी और चमकने दमकने लगे। अब कुछेक महीनों में अवकाशप्राप्ति होगी, तब चिल्लाना सिड की झोली में गिरेगा, पर अभी तो बड़े में जोश मारता है।
लेकिन बड़े बहन पर नहीं चिल्लाये थे। उससे तो वे बोलते ही नहीं थे। वे अपना पजामा गीला होने पर चिल्लाये थे। उन्होंने गीला नहीं किया था, गुलदाउदी उछल पड़े थे। कामवाली के हाथों में मटर पनीर का डोंगा देखकर। बड़े ने देखा, गुलदाउदी ने नहीं। नहीं वो नहीं, उन्होंने सर झटका ही था, कि पाइप हिला जिससे वो पानी दे रहे थे, गुलदाउदी उछला और
पानी की धार पजामे पर आ गयी। इस पर वे कूदे और डबल डपट के चिल्लाये नहीं वो नहीं। और पाइप से पानी बहता छोड़ चिल्लाते हुए अन्दर आ गए।
मारना है, कब की बनी सब्ज़ी खिलाकर?
मेमसाहब ने कहा, कामवाली अन्यमनस्क बोली। मियाँ-बीवी की इन असल या नूराकुश्तियों से ऊब कर। दीदी आई हैं।
ताज़ी सब्ज़ी बनाओ। सड़ा बासी खिलाओगी? इसे तो भिखमंगे को भी मत देना, मर जाएगा और तुम पर केस हो जाएगा।
आप भी। मेमसाहब उर्फ़ पत्नी उर्फ़ भाभी उर्फ़ बहू उर्फ़ मॉम तमक के सामने आयीं। शाम भैया आ रहा है, उसके लिए तो कल रात कह रहे थे इतनी बची है, डिनर पे सर्व कर देना। अब डिनर से घंटों पहले ही ज़हर हो गयी? एॅन्ड, वो अंग्रेज़ी में टिन्नाईं, नौकरों के सामने मेरी बात काटना बंद करें, वो इसीलिए मेरी अनसुनी करते हैं और आपकी भी क्या इज़्ज़त रह जाएगी।
फेंको इसे। बड़े ने आँखें दिखायीं, कामवाली को, जो िफ़्रज के पास डोंगा लिए बुत बनी खड़ी थी।
मैंने चख ली है। फर्स्ट क्लास है। कोई दोस्त भी लायी हैं, दो जन हैं। बाक़ी खाने के साथ रख रही हूँ कि कम न पड़े। सबके आगे शान्त बनाने या ननद को सुनाने पत्नी ने पति को तरेरा।
चाहे कम चाहे ज़्यादा, जो ताज़ा बना है दो, अगर और कुछ नहीं बना सकती, बड़े ने कामवाली को झिड़का। हटाओ इसे।
रख दो वापस, बहू तड़तड़ायी, मैं खाऊँगी।
रख दो इनके लिए। और कोई नहीं खायेगा।
मर गयी तो कहना साहब ने मार दिया।
कब ये चिल्लाना टिन्नाना चुहल है, कब बचकाना दंगल, कब हँसी, कब चिढ़ और एक दूसरे को मात करने का शगल, कामवाली को अटकल लगानी पड़ती।
बेटी ने तो सुना ही, पीठ के कान भी कौन बंद रहे होंगे? बेटी की दोस्त अलबत्ता घर के रंग से वाक़िफ़ हो न हो। और गुलदाउदी का सुनना न सुनना बराबर। उनका मौसम था, उन्हें बात बात पर उछलने में मज़ा आ रहा था, उछलते रहे। इसकी भी फ़िक्र नहीं कि बड़े रिटायर होंगे, ये बगिया छोड़ जाएँगे, अगले का रवैय्या क्या होगा? आज वालों की तरह कहीं लॉन क्यारियों को सीमेंट से पाट दें कि धूल और उसके जीवों से बचें? या फूलों की एवज में गेंहू भुट्टा कुछ बो दें कि महँगाई में बचत करें? पर गुलदाउदी आगे की नहीं सोच रहे थे, उछलने से बाज़ नहीं आना उन्हें, भीतर स्प्रिंग लगा हो ऐसे मटक जाते।
छोटे शहरों में अफ़सरों की बड़ी बड़ी कोठियों से कई गुना बड़े उनके लॉन, फल फूल के बाग, खेत होते हैं। कभी उन में स्विमिंग पूल और ताल तलैया और फ़ौवारे ओसारे भी होते हैं। एक बार तो विक्टोरिया के ज़माने की विक्टोरिया का संगमरमरी — काली पीली तो न हो सकती थी — ऊँचा पुतला भी बाग में स्वागत करता। बात बात पे देशद्रोही करार किये जाने के डर के न होते भूला खड़ा, पर अमान्य नहीं।
बड़े शहरों में घर छोटे होने लगे। लेकिन वहाँ भी, जहाँ इमारत अब पेड़ थे और सूखे ढेले फूल, अफ़सरों के घर मरुभूमि में नखलिस्तान थे।
गुलदाउदी ही गुलदाउदी।
बड़े के घर में घुसते ही लम्बे गलियारे के शीशे पार लॉन की किनारियाँ बनाते हर रंग हर नाप में गुलदाउदी।
बहन ने देखा भाई पाइप थामे फूलों में पानी दे रहे हैं। सूरज चमक रहा था और पीछे के पेड़ के पार एक सुनहरी धार चमक रही थी, जैसे परमात्मा ने धूप से हाथ मले हों और उनमें से सूरज कुछ टपक टपक पड़ा हो।
बहन की पीठ ने पनीर कांड सुना देखा। माँ की पीठ की माँ जाने।
कामवाली से भाई ने कहा, बहन की माँ के कमरे में जाती पीठ को देखते हुए, कि अम्मा से कहो सूरज चमक रहा है और गुलदाउदी फूले हैं, लॉन में कुर्सी लगा दो, यहीं आकर बैठें सब।
कह कर भाई गुलदाउदी के भविष्य की सोचने लगे, यानी बाकियों की तरह इस बड़े शहर में, रिटायर होकर फ़्लैट में जाने की बात। कितनों को गमलों में करके ले जाएँ? उन ज़रा सी बैल्कनियों में गमले भर दें तो कपड़े और खुद और बाक़ी अनाप-शनाप के लिए जगह?
कुर्सियाँ तो लग गयीं पर बड़े अकेले वहाँ बैठे। अपने मरहूम पिताजी की तरह जो जाड़ों में यहाँ धूप सेंकते थे, आधा रुख गुलदाउदी की तरफ़, बाक़ी शीशे के दरवाज़े से नज़र आते घर के कमरों और गलियारे के अन्त पे खुले बड़े दरवाज़े की तरफ़। बाप बेटे दोनों को अभ्यास था कि बायीं आँख की पुतली बायें कोने में सरकाएँ और दाहिनी की दायें दायें दायें, ताकि दुनिया के दोनों अद्धे ज़द में आ जाएँ और घटता सब पता चल जाए। शायद अलग धातु के स्नायु होंगे जो आँख ऐसे देख पाती, दोनों ओर के दृश्य साधे। या नहीं साध पाती होगी और दृश्य लुढ़क पुढ़क होते हों?
बहन की आवाज़ आ रही थी।
गुलदाउदी ही गुलदाउदी।
माँ की आयी ‘नहीं’
हर रंग के हर नाप के। फुटबॉल, मकड़ा, चपटे, कंचे, फुदकते, अम्मा।
मानती कहाँ है?
बैंगनी, सफ़ेद, पीले, गुलाबी, हरे भी।
लॉन के ऊपर आसमान को लहलह करते।
मैं ले चलूँगी ना, छड़ी ले लो ना।
नहीं। अरे। चक्कर। छड़ी। नइ। धूप। नइ। फूल। न न नयी...
बड़े उठ आये। माँ के कमरे में, बहन की बग़ल में।
दोनों ने आँख न-मिली सी मिलाई और कुछ न-मुस्कराए से मुस्कराए। बातचीत अरसे से बंद है। हूंस गयी पर आदत रह गयी। अब आता नहीं सामने सामने भाई बहन जैसी अर्रबर्र करना।
उठीं? उन्होंने माँ की पीठ को ललकारा। कब से आई है, कुछ खिलवाइये, बनवाइए, नहीं तो सड़ा गला कुछ पहुँच जाएगा किचन से।
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