पूरा गाँव भन्ना रहा है। दिन के ग्यारह बज गए हैं। सूरज टीन की तरह तपकर झुलस रहा है। पूरे गाँव में एक खट्टी-सी महक भरी हुई है। बब्बा को खाट पर से उतारा जा चुका है। नब्बे साल के बब्बा इस साल तीन बार खाट से उतारे जा चुके थे। सूखकर एकदम गठरी हो गए बब्बा में न मालूम जीने की कौन- सी ताब बची थी कि गंगाजल की दो बूँद पड़ी नहीं कि आँखें खोल देते थे।
और इसके साथ ही चाची का बड़बड़ाना शुरू हो जाता, ‘इनकर पेट न अहै, मड़ार अहै। जब तक कुल न लील लीहैं, तब तक न भरी।’
चाची भी क्या करतीं! घर की माली हालत, घर की तरह ही गिर चुकी थी। किसी तरह ढाँक-तोपकर घर का गुजारा चल रहा था। कमानेवाला कोई नहीं और खानेवाले ढेरों मुँह। बभनौटी का चलन ही ऐसा था कि कोई औरत खेत में जाकर काम नहीं कर सकती थी। ऊपर से खेत का काम चाची को आता भी नहीं था।
मुँह-अँधेरे किसी का गेहूँ साफ करके, किसी की दाल दल के चाची कुछ अनाज बटोर लाती थीं, लेकिन पिछले तीन दिन से घर का गुजारा निछान आलू पर हो रहा था। बब्बा उर्फ जगबेटा ने सारी उम्र खेत बेचकर घर की शान-शौकत बनाए रखी। मेहनत की न तो उनको आदत थी और न ही मजबूरी। पुरानी जमींदारी की जमीन अभी भी उनका पेट पालने के लिए काफी थी। खेत में जाना और काम करना उनको मंजूर नहीं था। और अधिया यानी बटाई पर खेती लग्गी से घास काटने जैसी था। खैर, एक-एक कर खेत-दुकान सब पराये हो गए। और जब तक बब्बा को समझ आई, वह शरीर और मन, दोनों से टूट चुके थे। चार बेटियाँ और एक बेटा। वह बेटा भी मुम्बई की भीड़ में हमेशा के लिए खो गया और पीछे छोड़ गया गर्भवती पत्नी यानी चाची।
कैसे होगा इन्तजाम? कौन करेगा किरिया-करम?—गाँव भर में यही चर्चा थी। कानों-कान सबको बब्बा के मरने की खबर मिल चुकी थी। अपना-अपना काम निपटाकर, चाय-नाश्ता करके ही घर से निकलना ठीक है, लगभग सबने यह तय कर लिया था। वैसे भी सबको अन्दाज है कि इतनी जल्दी मिट्टी उठवाने का उस घर में किसी में दम नहीं, लेकिन जाना तो पड़ेगा। आखिर चहकारी (मृत्यु के बाद रस्मन मिलना) जरूरी है। गाँव भर के लोग एक दूसरे के यहाँ बच्चों को भेजकर पता करा रहे थे कि बब्बा के यहाँ कौन-कौन पहुँचा। सबके मन में एक ही डर समाया था कि कहीं कोई हाथ-गोड़ जोड़कर उधारी न माँग ले। सामने पड़ी मिट्टी और ऐसे माहौल में कहीं कुछ देना पड़ा, तो वापस कौन करेगा?
बब्बा के घर की सबसे छोटी बेटी घर-घर जाकर सबसे उम्मीद-भरे स्वर में उधारी की याचना कर रही थी। गाँव-भर को सूद पर उधार देने में पारंगत ठाकुर मुसाफिर सिंह को यह कर्ज देने में कोई रुचि नहीं थी। हँसी-ठिठोली में भी दया-क्षमा की बात का एक ही जवाब था, ‘घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या?’ बात-बात पर अपना एटीएम कार्ड थमा देनेवाले, जीप और बलैरो के मालिक भगवान शंकर मिश्रा आज घर से ही नहीं निकले और कहला भेजा कि उन्होंने गुरुमन्त्र लिया है और मरनी-करनी में नहीं जा सकते। पूरे गाँव में सिर्फ नीम के आँसुओं की आवाज थी और निमकौरी चारों ओर बिछती जा रही थी।
बँसवारी के बाँस आपस में उलझकर टूट पड़ने को आतुर थे। उनकी अर्राहट पूरे माहौल में एक डर घोल रही थी। इस गाँव में ज्यादातर लोग आपस में पट्टीदार हैं यानी खानदान का कोई न कोई एक सिरा आपस में जुड़ता है, लेकिन ज्यादातर घर एक दूसरे से पीठ किए खड़े थे। आपस में मुकदमा-फौजदारी की पुरानी रस्म थी। कोई किसी का रास्ता बन्द करने में अपनी ताकत झोंके पड़ा था तो कोई किसी की नाली। रही बात सुख-दुख की, यह तो राज-काज है। हर घर में कोई न कोई बीमार और कोई न कोई कष्ट। सच पूछो तो कहीं किसी के घर में परेशानी की खबर से ज्यादातर लोगों को अपार तृप्ति मिलती थी। भगवान यहाँ उनके दुखों पर ऐसे ही मरहम लगाता है।
गाँव की औरतें एक दूसरे को कोस और गरिया रही थीं, ‘इतनी देर से मिट्टी पड़ी है। इनका सबै के लाज नाय आवत।’ और कुछ अपने हाथ खाली होने से सच में दुखी थीं। तभी बच्चों ने आकर खबर दी कि बब्बा के घर कोई गाड़ी से आया है। यह खबर गाँव में आग की तरह फैल गई। सबने फटाफट काम किनारे किया और बब्बा के घर का रास्ता ले लिया। बड़की बिट्टी आई है। बब्बा से ज्यादा बड़की बिट्टी को देखने के लिए भीड़ जुटनी शुरू हो गई।
आज से पाँच साल पहले अहिराने के महेन्दर यादव के साथ भागी बड़की बिट्टी पहली दफा गाँव आई थी। गाँव आने की कोशिश तो उसने पहले भी की थी, लेकिन पूरा गाँव उलटकर एक हो गया था। फिर उसकी हिम्मत नहीं पड़ी। भाग्य ने पलटा खाया, बड़की बिट्टी का आदमी पुलिस में इंस्पेक्टर हो गया। उसी की जीप में बैठकर बिट्टी गाँव आई थी।
बिट्टी के आते ही कफन, लावा, टिकठी सब जुट गया। बब्बा की मौत हो गई है, यह भी सबको याद आ गया। गाँव के लाला की अम्मा कढ़ा-कढ़ाकर (गा-गाकर) रोने लगीं। बब्बा की शान-शौकत, फराखदिली के किस्से चल निकले। जोर-जोर से रोने का आरोह-अवरोह, दहाड़ें और पछाड़ें। पूरा गाँव सक्रिय हो उठा था। सौ-सौ के दो कर्रे नोट पाकर रवि बाबू कच्चे बाँस चुन-चुनकर कटवाने लगे।
इस भीड़-भाड़ में एक और इनसान था, जिसकी किसी को भी सुध न थी। बब्बा की पत्नी उर्फ गोमती अम्मा। दुख, अपमान और गरीबी ने उन्हें इतने थपेड़े मारे थे कि अधेड़ होते-होते उनका शरीर पूरी तरह से झूल गया था। चिन्दी-चिन्दी बटोरकर अम्मा ने अब तक घर चलाया। कहते हैं, अम्मा शहर की तरफ की थीं। पूरे गाँव में वह पहली महिला थीं जो शौच जाने के लिए पानी का डिब्बा लेकर जाया करती थीं। गाँव के रिवाज के मुताबिक ब्राह्मण-क्षत्रिय औरतों का शौच आना-जाना किसी को पता नहीं चलना चाहिए। बब्बा और उनका सम्बन्ध जगजाहिर था। खेत बिका, दुकान बिकी, लेकिन पैसा बाजार में आया और वहीं चुक गया। अम्मा ने पूरे गाँव में पहली दुकान खोली थी। और सबने नाम दिया ः ‘दौड़ा कम्पनी’। लेमनचूस, नल्ली, चुर्री, नमकीन और चाय की पत्ती ने अम्मा को एक वक्त में बड़ा सहारा दिया। बाजार दूर था लेकिन बभनौटी की वह पहली औरत थीं जो बाजार जाती थीं, लेकिन बेटे की मौत का दुख उन पर फालिज बनकर टूटा। ठीक तो हो गईं, लेकिन बाजार जाकर सौदा लाने का दम नहीं बचा। वक्त के साथ हालात और भी खराब ही हुए। अब तो गाँव में और भी दुकानें खुल गईं। जैसे काँकर, वैसे बिया। यानी जैसा फल, वैसा बीज। बड़की बिट्टी घर से भागी तो हर किसी ने ताने की झड़ी लगा दी। शादी-ब्याह में अम्मा का काम किलो-किलो भर उड़द पीसना हो गया, लेकिन रसोईघर में जाकर सब्जी चलाने की अनुमति नहीं मिली।
बड़की बिट्टी अम्मा के गले मिलीं और हाथ में पारले बिस्कुट थमा दिया। अम्मा ने फट कोठरी का दरवाजा उढ़काया और बिस्कुट को पानी से भिगोकर बच्चों की तरह खाने लगीं। बिट्टी को गले लगाकर अपने हाथ से उतारकर प्लास्टिक का कड़ा थमाते हुए उन्होंने कहा, ‘बिटिया, ई हमार कड़ा रख ल्या, बाद में दै दिहू, इनन रंडी अभै हमार कड़ा तोड़ देइहैं।’
पेट में थोड़ी जान पड़ी तो आँखों से आँसू छलछला उठे और अम्मा का रुदन पूरे गाँव में भर गया : ‘नदिया का गाड़ा, जीयतै खाइस, मोइते खाइस।’
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