भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास 'रेखा' का अंश
‘‘इस छल और कपट के भार को लेकर तुम कैसे सो सकोगी ? जब तक तुम अपना अपराध स्वीकार न कर लोगी, तब तक तुम्हें शान्ति न मिलेगी। तुमने जो कुछ किया है, वह पाप है, एक जघन्य पाप ! उस पाप को तुम बिना प्रायश्चित किए न धो सकोगी। आज तुमने जो कुछ कर डाला है, उसे तुम्हें प्रोफेसर को बतलाना ही होगा।’’

राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास 'रेखा' का एक अंश। 

कार जब रेखा के बँगले में पहुँची, वहाँ सन्नाटा छाया था। बनवारी शायद सो रहा था। रेखा ने अपनी तरफवाला कार का दरवाजा खोला और बड़ी मुश्किल से नीचे उतरी। तब तक सोमेश्वर उसकी बगल में आ गया था। उसने रेखा को सहारा देते हुए कहा, ‘‘चलिए, मैं आपको घर के अन्दर पहुँचा दूँ।’’

सोमेश्वर के उस स्पर्श से रेखा के शरीर में एक कँपकँपी-सी उठ पड़ी। सहारा-सहारा- रेखा ने अनुभव किया कि सहारा किसको कहते हैं। वह सोमेश्वर के हाथों पर जैसे झूल-सी गई। कितनी बलिष्ठ बाँहें हैं उसकी ! ड्राइंग-रूम में पहुँचकर रेखा सोमेश्वर के शरीर के सहारे खड़ी हो गई। वह मुस्करा रही थी, ‘‘कितने अच्छे हैं आप ! मैं बेहोश नहीं हूँ, न मुझे नींद आ रही है। मुझे आपका यह सहारा कितना अच्छा लगा, मैं कह नहीं सकती।’’

एकाएक सोमेश्वर ने कसकर रेखा को आलिंगन-पाश में जकड़ लिया। रेखा घबरा गई, ‘‘यह क्या कर रहे हैं आप, मुझे छोड़िए, मैं कहती हूँ मुझे छोड़िए। यह बड़ा गलत काम है।’’ रेखा केवल कह रही थी यह सब, जहाँ तक शरीर का सम्बन्ध था, वह असीम सुख का अनुभव कर रहा था, वह शरीर जैसे सोमेश्वर के शरीर से पृथक होने के स्थान पर उससे लिपटता जा रहा था। और रेखा ने देखा कि सोमेश्वर का मुख उसके मुख की ओर झुक रहा है। वह किचकिचाकर कह रही थी, ‘‘नहीं-नहीं।’’ लेकिन उसकी आँखें बन्द होती जा रही थीं। एक बेहोशी-सी छाती चली जा रही थी उसके ऊपर, आत्मा की बेहोशी ! लेकिन वह अनुभव कर रही थी कि उसका शरीर पूरी तौर से होश में है।

और जिस समय उसकी आत्मा की बेहोशी टूटी, उसने देखा कि रात के साढ़े-बारह बज चुके हैं और सोमेश्वर उससे कह रहा है, ‘‘अब मैं जा रहा हूँ, प्रोफेसर के लौटने का समय हो रहा है। कल सुबह नौ-दस बजे मैं तुम्हें फोन करूँगा,’’ और उसने यह भी देखा कि सोमेश्वर बरामदे की ओर बढ़ रहा है। रेखा बुरी तरह घबरा गई कि यह सब क्या हो गया और कैसे हो गया उससे ! लड़खड़ाते हुए पैरों से वह उठी, उसने घर का दरवाजा बन्द किया और कपड़े बदले। यद्यपि उसका थका हुआ शरीर यह सब करने से बार-बार इनकार कर रहा था। वह चुपचाप बिस्तर पर लेट गई और अनायास ही रो पड़ीद-यह क्या कर डाला उसने ! उसकी सारी पवित्राता नष्ट हो गई, उसने अपने देवता, अपने आराध्य के साथ कितना बड़ा विश्वासघात कर डाला !

रेखा के कान अब बाहर की ओर लग गए। किसी भी समय प्रोफेसर आ सकते हैं। वह क्या करे ? उसके सामने यह प्रश्न था। आज जो कुछ हुआ, सब कुछ वह प्रोफेसर से कह देगी, छिपाएगी कुछ नहीं। जो कुछ हुआ, वह बेहोशी की हालत में हुआदृइसमें उसका कसूर नहीं है। उसे अपने ऊपर क्रोध आ रहा था और उसी समय उसे बाहर फाटक पर रुकनेवाली कार की आवाज सुनाई दी।

उसने उठकर बेडरूम का दरवाजा खोला, प्रोफेसर प्रभाशंकर बरामदे में आ गए थे; और साथ ही उसे दूर से घंटे पर दो बजने की आवाज सुनाई पड़ी। प्रोफेसर कह रहे थे, ‘‘उफ्, कितनी देर हो गई- तुम अभी तक जाग रही हो ! कितनी अच्छी हो तुम ! मेरा कितना खयाल रखती हो ! इस समय तक मेरा इन्तजार कर रही हो तुम ! उफ्, कितनी सर्दी है, चलो लेटो चलकर ! आँखें नींद से झपी जा रही हैं,’’ और रेखा चुपचाप प्रोफेसर की बात सुन रही थी, अपने में खोई-सी।

कपड़े बदलकर प्रभाशंकर बिस्तर पर लेट गए। रेखा सोच रही थी कि किस प्रकार वह अपनी बात कहे, और रेखा ने प्रभाशंकर के नींद से भरे उल्लसित मुख की ओर देखा। कितना सन्तोष था, कितनी शान्ति थी उनके मुख पर ! और एकाएक किसी ने उसके अन्दर से कहा, ‘‘इस मुख और शान्ति पर आघात पहुँचाना क्या तुम्हारे लिए उचित होगा ? इस समय इन्हें सुख से आराम करने दो, कितने थके हुए हैं ये ! इस समय नहीं, किसी हालत में नहीं !’’ और उसने देखा कि प्रभाशंकर के हाथ में उसका हाथ था, प्रोफेसर की आँखें बन्द हैं, उनके मुख पर एक मनमोहक प्रफुल्लता है।

तभी रेखा के अन्दर से दूसरी आवाज उठी, ‘‘इस छल और कपट के भार को लेकर तुम कैसे सो सकोगी ? जब तक तुम अपना अपराध स्वीकार न कर लोगी, तब तक तुम्हें शान्ति न मिलेगी। तुमने जो कुछ किया है, वह पाप है, एक जघन्य पाप ! उस पाप को तुम बिना प्रायश्चित किए न धो सकोगी। आज तुमने जो कुछ कर डाला है, उसे तुम्हें प्रोफेसर को बतलाना ही होगा।’’

रेखा प्रभाशंकर से लिपट गई, लेकिन उसने देखा कि प्रभाशंकर नींद की गहरी बेहोशी में डूब चुके हैं। और रेखा अलग हो गई। उसने दूसरी ओर करवट ली- जीवन का क्रम अब क्या होगा, वह यह सोचने लगी। कितना बड़ा धक्का लगेगा प्रभाशंकर को यह सुनकर! लेकिन इससे क्या, जो कुछ होना हो वह हो, अपने पाप को लेकर तो उसके लिए रहना कठिन हो जाएगा। और उसने आँखें बन्द कर लीं। देर तक वह करवटें बदलती रही, और धीरे-धीरे तन और मन की थकावट उस पर छाने लगी।

सुबह जब रेखा की आँख खुली, प्रभाशंकर सो रहे थे। दिन काफी चढ़ आया था, बरामदे की धूप में आकर वह बैठ गई और उसने उस दिन का अखबार उठा लिया। बनवारी उसके सामने सुबह की चाय रख गया और रेखा ने चाय बनाई। एक नवीन उल्लास और नवीन जीवन का वह अनुभव कर रही थी। कितना सुन्दर था उसके चारों ओर का वातावरण, कितना सुन्दर था उसका बँगला और कितना सुन्दर था वह बरामदा, जिसमें वह बैठी थी ! चाय में एक सुन्दर स्वाद था, हर तरफ उसे सुन्दरता-ही-सुन्दरता दिखाई दे रही थी।

तभी उसने देखा कि प्रभाशंकर उसके सामने आकर बैठ गए, कुछ थके हुए-से और मुर्झाए हुए-से, रेखा की खुशी को एक तरह का झटका देते हुए। रेखा ने कहा, ‘‘आपको जगाया नहीं, क्योंकि रात को इतनी देर से सोए थे, और दिन-भर आपको काम करना हैदृआराम करने को नहीं मिलेगा।’’ यह कहकर उसने प्रभाशंकर के लिए चाय बनाई। प्रभाशंकर ने चाय का प्याला लेते हुए कहा, ‘‘क्या बतलाऊँ, रात इतनी देर हो गई और तुम्हें मेरी प्रतीक्षा करनी पड़ी ! तुम्हें सो जाना चाहिए था, मुझे तो कभी-कभी इतनी देर हो ही जाया करेगी। प्रोफेसर गार्डनर और उनके साथी ताजमहल देखकर कितने प्रसन्न हुए, फिर मौसम भी कल बड़ा सुन्दर था और चाँदनी बड़ी खूबसूरत थी। कार में जगह नहीं थी, मैं तुम्हें भी साथ ले चलता।’’

रेखा मौन थी, उसके मन का उल्लास अनायास ही जाता रहा। एक अजीब तरह की घुटन अब वह अपने अन्दर अनुभव करने लगी थी। उसने उनके इस उल्लास में योग नहीं दिया, प्रभाशंकर ने यह देख लिया और उन्होंने पूछा, ‘‘क्यों, क्या बात है, जो तुम आज चुप हो ? तबीयत तो ठीक है ?’’

रेखा ने अपने को सुस्थिर करते हुए कहा, ‘‘हाँ तबीयत तो ठीक है। कल रात ठीक तौर से नींद नहीं आई, और आदत के अनुसार सुबह तड़के ही आँख खुल गई।’’ रेखा का स्वर किसी कदर लड़खड़ा रहा था।

‘‘बस इतनी-सी बात ! दोपहर में खूब अच्छी तरह से सो लेना !’’ और यह कहकर प्रभाशंकर बाथरूम की तरफ चले गए।

रेखा फिर अपने में खो गई। एक भयानक द्वन्द्व मचा हुआ था उसमें, भावना और बुद्धि का असह्य संघर्ष चल रहा था, जिसमें रेखा डूबती चली जा रही थी। कितने भले थे उसके पति, कितना विश्वास था उनका उसके ऊपर ! और उनको उसने धोखा दिया। किस तरह वह उनसे अपनी बात कहे, किस तरह वह उनसे क्षमा माँगे ? और अपने पति से अपने विश्वासघात की बात कहकर उसे बहुत सम्भव है शान्ति मिल भी जाए, लेकिन क्या वह अपने देवता में एक भयानक अशान्ति न उत्पन्न कर देगी ? क्या अपने पाप की ज्वाला में अकेले उसका जलना काफी नहीं है ? प्रभाशंकर को भी अपने पाप की ज्वाला में झोंक देना क्या इससे भी बड़ा पाप न होगा ? और प्रोफेसर को सब कुछ बतला देने से तो उसका पाप नहीं धुल जाएगा।

भावना पर बुद्धि विजय पाती चली जा रही थी। उसका कुल है, उसका समाज है, और इस कुल और समाज की मर्यादाएँ हैं। अगर वह प्रोफेसर से कल रातवाली बात बतला दे तो प्रोफेसर न जाने क्या कर डालें ! हो सकता है कि एक बहुत बड़ा व्यतिक्रम उत्पन्न हो जाए उनके जीवन में। आदमी झूठे-सच्चे विश्वासों पर ही तो कायम है, इन विश्वासों को तोड़ने का अर्थ होता है, अपने अस्तित्व को ही चुनौती देना।

नहीं, अपनी बात वह प्रोफेसर को न बतला सकेगी- अपने हित में नहीं, प्रोफेसर के हित में। प्रोफेसर को ज़रा भी पीड़ा पहुँचे, यह भाव उसके लिए असह्य था, और एक भयानक पीड़ा वह स्वयं प्रोफेसर को पहुँचाए, यह पाप उसके विश्वासघातवाले पाप से भी बड़ा होगा। उसे अपने ही अन्दर प्रायश्चित की ज्वाला में तपना चाहिए, इसमें प्रोफेसर को घसीटना, प्रोफेसर के प्रति अन्याय होगा। अपने इस कलंक को उसे अपने अन्दर एक गहरा भेद बनाकर रखना होगा, हमेशा-हमेशा के लिए। इस भेद को अपने अन्दर किसी कोने में डाल रखना होगा।

एकाएक टेलीफोन की घंटी बजी। वह समझ गई कि वह टेलीफोन किसका होगा। उसने अपने हाथवाली घड़ी देखी, नौ बज रहे थे। सोमेश्वर ने नौ बजे टेलीफोन करने का वादा किया था। बनवारी ने आवाज दी, ‘‘बीबीजी, टेलीफोन आया है !’’

‘‘तुम देख लो,’’ रेखा बोली, ‘‘अगर मेरा हो तो कह देना कि मैं घर पर नहीं हूँ- एक घंटा हुआ, कहीं चली गई हूँ।’’ रेखा न सोमेश्वर से मिलना चाहती थी और न सोमेश्वर से बात करना चाहती थी। उसी में उसका और उसके पारिवारिक जीवन का कल्याण है। उसे बनवारी की आवाज सुनाई पड़ रही थी, ‘‘मेम साहेब एक घंटा हुआ, कहीं चली गई हैंदृनहीं, कुछ बताया नहीं। पता नहीं कब तक आएँगी। हाँ, कह दूँगा कि आपका फोन आया था।’’ और उसने बनवारी के रिसीवर रखने की आवाज सुनी। अब वह बल लगाकर उठी, उसे अपने को संयत करना होगा। जो हो गया वह हो गया, उस पर अब उसका कोई अधिकार नहीं रहा। लेकिन आगे जो कुछ होगा, उस पर तो उसका अधिकार है।

उसने स्नान किया और कपड़े बदले। ड्रेसिंग टेबल के सामने वह बैठ गई अपना शृंगार करने और उसने देखा कि चेहरे पर एक प्रकार की आभा आ गई है। इतनी देर के आन्तरिक संघर्ष के बाद उसका मन अत्यधिक हलका हो गया था। वह अब अपने मन में पहले से दुगुने उल्लास का अनुभव कर रही थी। बड़े मनोयोग से अपना शृंगार किया। ड्रेसिंग टेबल से वह हटी, प्रोफेसर प्रभाशंकर कपड़े पहनकर अपनी स्टडी में बैठ गए थे और काम कर रहे थे। रेखा ने कहा, ‘‘चलिए, नाश्ता कर लीजिए चलकर, दस बज रहे हैं।’’

प्रोफेसर प्रभाशंकर अपने काम-काज में बेतरह डूबे हुए थे, उन्होंने रेखा की बात जैसे सुनी ही नहीं। रेखा उनके पास पहुँची, हाथ पकड़कर उन्हें उठाते हुए उसने कहा, ‘‘आप तो इतने डूब जाते हैं अपने काम में कि आपको कुछ खयाल ही नहीं रहता। नाश्ता लगा दिया है बनवारी ने, फिर आपको यूनिवर्सिटी भी तो जाना है। दस बज रहे हैं, चलिए।’’

प्रभाशंकर ने उठते हुए कहा, ‘‘अरे हाँ, इतनी देर हो गई !’’ फिर वह हँस पड़े, ‘‘कभी-कभी मैं बेतरह भुलक्कड़ बन जाया करता हूँ। तुमने मुझे आज लेट होने से बचा लिया ! चलो !’’ और दोनों डाइनिंग-रूम में आ गए।

दोनों नाश्ता करते जाते थे और आपस में हँसते-बोलते जाते थे। इतनी आसानी से उसके पति से उसकी दूरी मिट गई, रेखा को आश्चर्य हो रहा था। नाश्ता करके प्रभाशंकर को कार पर बिठाकर वह यूनिवर्सिटी की तरफ चल दी।

प्रोफेसर प्रभाशंकर को यूनिवर्सिटी पहुँचाकर जब रेखा वापस लौटने लगी, उसने अनजाने ही अपनी कार शहर की ओर मोड़ दी और उसी समय उसके अन्दर किसी ने कहा, ‘‘अरे, यह क्या कर रही हो तुम ? यह तुम कहाँ चल रही हो ? तुमने उससे टेलीफोन पर बात भी नहीं की थी। यह कैसी कमजोरी ? इतनी जल्दी तुम भूल गईं अपने संकल्प को !’’

रेखा मुस्कराई, ‘‘खतरे से भागने में कल्याण नहीं, खतरे से भागना कायरता है।’’ उसने अपने से कहा, ‘‘पाप का शमन झूठ बोलकर भागने से तो नहीं होता है। नहीं, मैं सोमेश्वर से साफ-साफ कह देना चाहती हूँ कि वह मुझसे फिर कभी न मिले। हमारे सुखमय पारिवारिक जीवन में व्याघात बनकर आने का उसे कोई अधिकार नहीं। आज मैं अन्तिम बार सोमेश्वर से मिलकर यह सब कह देना चाहती हूँ।’’ और रेखा ने कार की स्पीड बढ़ाई। जल्दी-से-जल्दी वह सोमेश्वर के होटल में पहुँच जाना चाहती थी।

और तभी उसके अन्दर से फिर किसी ने कहा, बड़ी कड़ी आवाज में, ‘‘झूठ ! झूठ ! झूठ ! तुम यह क्यों नहीं स्वीकार करती कि तुम्हारे शरीर की भूख एकाएक जग पड़ी है। और उस भूख को दबाना तुम्हारे वश में नहीं है। इस शरीर की भूख से विकल होकर तुम जा रही हो और झूठ बोलकर अपनी आत्मा को धोखा दे रही हो ! लेकिन यह शरीर की भूख बड़ी खतरनाक है, इतना समझ लो ! यह शरीर की भूख बुद्धि को नष्ट कर देती है, यह कटु और कठोर सत्य है। अब भी मौका है- तुम बच सकती हो, लौट चलो !’’

लेकिन रेखा के ऊपर जैसे इस शरीर की भूख का पागलपन सवार होता जा रहा था। उसने अपने दाँतों को किटकिटाकर कहा, ‘‘चुप रहो, भूख भूख है, वह दबाने के लिए नहीं होती, वह शान्त करने के लिए होती है। भूख प्रकृति है, उसे दबाना प्रकृति के साथ अन्याय करना होता है। बुद्धि इतना जानती है। उपवास करना, अपने को प्रताड़ित करना, यह सब अन्धविश्वास की परम्परा है, वैज्ञानिक और स्वस्थ बुद्धि के स्तर से अलग की चीज।’’

उसकी कार इस समय तक सोमेश्वर के होटल के कम्पाउंड में पहुँच गई थी। अपनी कार खड़ी करके रेखा ने होटल के लाउँज में प्रवेश किया। सोमेश्वर वहाँ नहीं था। वह अब सोमेश्वर के कमरे का नम्बर पूछकर उसके कमरे में पहुँची।

सोमेश्वर सोफे पर चुपचाप लेटा हुआ कुछ सोच रहा था। रेखा को देखते ही वह एक झटके के साथ उठ खड़ा हुआ, ‘‘अरे तुम ! इस समय तुम्हारे यहाँ आने की तो मैंने कल्पना ही नहीं की थी। मैंने वादे के मुताबिक तुम्हें नौ बजे फोन किया था, नौकर ने बतलाया कि तुम घर पर नहीं हो, एक घंटा पहले कहीं चली गई हो।’’

रेखा मुस्करा रही थी, ‘‘वह झूठ था, मैं घर पर थी और मुझे पता था कि फोन तुम्हारा होगा, इसलिए नौकर से यह कहला दिया था। मैंने तय कर लिया था कि मैं अब तुमसे कभी नहीं मिलूँगी। लेकिन प्रोफेसर को यूनिवर्सिटी पहुँचाकर जब मैं लौटने लगी तो मैंने कार इस ओर मोड़ दी।’’ और सोमेश्वर ने देखा कि एक तरह का उन्माद भरा है रेखा की मुस्कराहट में, ‘‘ओह सोमेश्वर ! कौन-सा पागलपन जगा दिया है तुमने मेरे अन्दर ? बोलो, चुप क्यों खड़े हो ? मैं किस सम्मोहन से खिंची चली आई हूँ तुम्हारे पास ?’’

और रेखा ने देखा कि सोमेश्वर की आँखें भी चमकने लगीं एक पागलपन से। उसे अनुभव हुआ कि सोमेश्वर एक बलिष्ठ पशु है जो उसकी ओर झपट रहा है, और रेखा ने अनुभव किया कि वह पशुता उसके अन्दर भी जाग पड़ी है। उस पशुता में कितना सम्मोहन है, कितना पुलक है ! रेखा के अन्दरवाली समस्त बची-खुची चेतना लोप होती जा रही थी। उसके अन्दरवाली पशुता ने जैसे उसके अन्दरवाले मानव को दबा दिया था।

और रेखा जब सोमेश्वर के होटल से वापस लौटी, उसकी चेतना अर्द्धमूर्च्छित-सी उसके पास लौट आई। लेकिन यह विवेक की भावनात्मक चेतना नहीं थी। वह चेतना शुद्ध रूप से बौद्धिक थी। उस चेतना में अपने ऊपर ग्लानि नहीं थी, अपने से वितृष्णा नहीं थी। उसमें केवल भय और आशंका थी और इस भय और आशंका के कारण दुराव की प्रवृत्ति थी। उसने चलते हुए सोमेश्वर से कहा, ‘‘जब तक तुम यहाँ हो, मैं रोज इसी समय तुम्हारे यहाँ आया करूँगी। शाम को तुम्हें मेरे यहाँ आने की कोई आवश्यकता नहीं है।’’

और रेखा के मुख पर बुद्धि की विजय की मुस्कराहट थी।

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