राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, गांधी दर्शन पर नन्दकिशोर आचार्य द्वारा लिखित पुस्तक विद्रोही महात्मा का एक अंश। इसमें महात्मा गांधी के नारीवादी विचारों का विवेचन हैं।
सामाजिक जीवन में अहिंसा का वास्तविक तात्पर्य है सभी प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों में प्रत्येक व्यक्ति के स्वतंत्र व्यक्तित्व और दृष्टिकोण का सम्मान और नारीवादी विमर्श का केन्द्रीय मूल्य हैं, स्त्री के अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा। स्त्री को 'पुरुष-संचालित' रिश्तों के माध्यम से ही हमेशा देखना अर्थात् “स्त्री को माँ, बहन, बेटी इत्यादि ही मानना उसके निजी स्वतंत्र व्यक्तित्व को नकारना है।” इसलिए नारी के स्वतंत्र व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा के बिना किसी भी प्रकार के अहिंसक समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती।
महात्मा गाँधी जीवन को मूलतः एक नैतिक साधना मानते हैं- सत्य की साधना — और जीवन का यह प्रयोजन जितना पुरुष के लिए महत्त्वपूर्ण है, उतना ही स्त्री के लिए भी। पुरुष और स्त्री के जीवन मूल्य भिन्न नहीं हो सकते। यह उल्लेखनीय है कि सामान्यतः आध्यात्मिकता का आग्रह करने वाले विचारकों में स्त्री के स्वतंत्र व्यक्तित्व और अधिकारों को लेकर खुली स्वीकृति कम ही दिखाई देती है। बुद्ध तक ने अपने संघ में स्त्रियों को शामिल करने की अनुमति देते हुए सन्देह प्रकट किया था कि जो संघ हजार वर्ष तक चलता, वह अब केवल पाँच सौ वर्ष तक ही चल पाएगा। कबीर तथा अधिकांश मध्यकालीन सन्तों के लिए तो वह नरक का द्वार ही थी।
इस दृष्टि से महात्मा गाँधी का स्त्री-विमर्श विशेष उल्लेखनीय है। भारतीय समाज में स्त्रियों के सार्वजनिक जीवन में प्रवेश तो महात्मा गाँधी के आन्दोलनों की उल्लेखनीय भूमिका रही ही है; साथ ही एक विचारक के रूप में भी उन्हें एक मुकम्मल नारीवादी कहा जा सकता है। उनके नारीवाद को भी उनकी नैतिक-आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि से अलग करके नहीं समझा जा सकता- क्योंकि नैतिकता की उनकी अवधारणा की व्याप्ति में सारा भौतिक जीवन भी समाहित है।
नारी के व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा का मूल अपने अस्तित्व पर नारी के अपने सम्पूर्ण अधिकार में है। स्वतंत्र व्यक्तित्व का तात्पर्य है कि उसका अस्तित्व किसी अन्य का उपकरण नहीं है। यही कारण है कि जब महात्मा गाँधी स्त्री के अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व का आग्रह करते हैं तो सर्वप्रथम उनका ध्यान इसी बात की ओर जाता है कि उसे उपकरण — टूल-न समझा जाए। स्त्री का उपकरण बनाया जाना ही उसके प्रति हिंसा का मूल कारण है। लेकिन विडम्बना यह हैं कि स्वयं स्त्री भी अपने को वैसा ही मानने लगी है, जैसे उसके जीवन का प्रयोजन पुरुष केन्द्रित हो।
महात्मा गाँधी के लिए प्राथमिक महत्त्व की बात यह है कि स्त्री इस पुरुष-केन्द्रित जीवन-प्रयोजन की अवधारणा से मुक्त होकर अपने को उपकरण नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र अस्तित्व समझे। इसीलिए महात्मा गाँधी कहते हैं: “स्त्री को चाहिए कि वह स्वयं को पुरुष के भोग की वस्तु मानना बन्द कर दे। इसका इलाज पुरुष की अपेक्षा स्वयं स्त्री के हाथों में ज्यादा है। उसे पुरुष की ख़ातिर, जिसमें पति भी शामिल है, सजने से इनकार कर देना चाहिए। तभी वह पुरुष के साथ बराबर की साझीदार बन सकेगी।” वह स्त्रियों को काम-वासना की पूर्ति का माध्यम मानने वाली पुरुष मनोवृत्ति की आलोचना करते हुए स्त्रियों से आग्रह करते हैं कि उन्हें इस प्रवृत्ति के विरुद्ध विद्रोह कर देना चाहिए। उन्हीं के शब्दों में: “यदि मैंने स्त्री के रूप में जन्म लिया होता तो मैं पुरुष के इस दावे के ख़िलाफ़ विद्रोह कर देता कि स्त्री उसके मन बहलाव के लिए पैदा हुई है।” वह तो यहाँ तक कह देते हैं कि स्त्री को काम-वासना की पूर्ति का माध्यम बना देने के कारण संसार उसके वास्तविक अवदान से वंचित हो गया है, क्योंकि उसी के कारण स्त्री अपनी अन्तर्निहित शक्ति का प्रयोग संसार के कल्याण के लिए नहीं कर पाई है।
तोलस्तोय के हवाले से गाँधी कहते हैं कि स्त्री पुरुष के सम्मोहन से आक्रान्त कर दी गई है, जबकि वह वस्तुतः पुरुष से श्रेष्ठ है। वह लिखते हैं: “जब स्त्री को पुरुष के बराबर अवसर प्राप्त हो जाएँगे और वह परस्पर सहयोग और सम्बन्ध की शक्तियों का पूरा-पूरा विकास कर लेगी, तो संसार स्त्री शक्ति या उसकी सम्पूर्ण विलक्षणता और गौरव के साथ परिचय पा सकेगा।”
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