महादेवी वर्मा : विचार का आईना
महादेवी वर्मा की पुण्यतिथि पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, 'विचार का आईना' शृंखला में उन पर एकाग्र पुस्तक की समीक्षा। इसमें उनके कला, साहित्य और संस्कृति के बारे में विचारों पर दृष्टि डालने का प्रयास किया गया है। 

पुस्तक - विचार का आईना : महादेवी वर्मा

सम्पादक - अर्चना सिंह 

प्रकाशक - लोकभारती प्रकाशन

समीक्षा - रमाशंकर सिंह

भारतीय समाज उस दौर से गुजर रहा है जहाँ धर्म, राजनीति और समाज की चौहद्दी के अंदर कला, साहित्य, संस्कृति के चिरंतन भारतीय विमर्श को आगे बढ़ाने के लिए पश्चिम द्वारा प्रदत्त श्रेणियाँ और सामाजिक सिद्धांत नाकाफ़ी साबित हो रहे हैं। ऐसे में उन चिंतकों की तरफ़ ध्यान जाना स्वाभाविक है जिन्होंने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के साये में और स्वतंत्र भारत में अपने चिंतन और सृजन से भारत का बौद्धिक वातावरण आलोकित किया है। महादेवी वर्मा (26 मार्च 1907-11 सितम्बर 1987) उनमें से एक दीगर हस्ती हैं। उन्होंने अस्सी वर्ष की आयु पायी जिसका आधा हिस्सा गुलाम भारत में और आधा हिस्सा आज़ाद भारत में गुजरा। उनके लेखन और विचारकर्म में यह दोनों किस्म के भारत मौजूद हैं। 1947 से स्त्री जीवन में पहले गुलामी घर और बाहर दोनों थी, 1947 के बाद वह गुलामी घरेलू और महीन दायरों में चली गयी जो कभी-कभी दिखाई भी नहीं पड़ती। महादेवी ने भारतीय स्त्रियों की अधीनता को जगह-जगह से अनावृत कर दिया।


ऐतिहासिक रूप से, बीसवीं शताब्दी में भारत ने पश्चिम से स्त्री मुक्ति के बहुत से मुहावरे उधार लिए तो इसी दौर में एक भारतीय ढंग की स्त्री चेतना भी अस्तित्त्व में आयी। सावित्री बाई फुले, ताराबाई शिंदे, बेगम रुकैया सखावत हुसैन, हंसा मेहता, इरावती कर्वे, दक्षयानी वेलायुधन, कमलादेवी चट्टोपाध्याय और महादेवी वर्मा जैसी विदुषियों की एक लंबी शृंखला अस्तित्त्व में आयी जिसने न केवल सामान्य और कामगार समूहों की स्त्रियों की दशा पर लिखा बल्कि भारतवर्ष के समाज पर अपनी पैनी नज़र डाली, उसे बदलने का प्रयास किया। महादेवी वर्मा ने आज़ादी के आंदोलन की धाराओं से न केवल विचारप्रवणता हासिल की थी बल्कि उन्होंने घरेलू दायरों में सिमटी हुई भारतीय स्त्री की दशा, सार्वजनिक जीवन में पुरुषों की प्रधानता और बौद्धिक हलकों में स्त्रियों के किनारे किए जाने के कारणों पर विचार किया।

आरम्भ में महादेवी वर्मा के कवयित्री रूप को ज्यादा प्रतिष्ठा मिली लेकिन उनके विचारक रूप पर विद्वानों ने कम ध्यान दिया था। इक्कीसवीं शताब्दी में विद्वानों का ध्यान उनकी तरफ़ एक बार फिर गया है, वह भी जेंडर, गैर-बरबरी, सम्पत्ति के अधिकार और आत्म सबलीकरण की एक प्रमुख चिंतक के रूप में। महादेवी वर्मा के इस पक्ष पर अर्चना सिंह ने “महादेवी वर्मा- कला, साहित्य, संस्कृति” नामक एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक सम्पादित की है जिनमें कला, साहित्य और संस्कृति सम्बन्धी उनके कुछ महत्त्वपूर्ण निबंध सम्मिलित किए गए हैं। यह पुस्तक एक महत्त्वाकांक्षी परियोजना का हिस्सा है जिसमें गाँधी, नेहरू, टैगोर, राममनोहर लोहिया, अज्ञेय, जयशंकर प्रसाद, मुक्तिबोध आदि पर सम्पादित पुस्तकें प्रकाशित की गयी हैं। इस शृंखला के सम्पादक इतिहासकार और मानवविज्ञानी बद्री नारायण हैं। महादेवी वर्मा से सम्बन्धित इस किताब की एक सुचिंतित भूमिका अर्चना सिंह ने लिखी है जो महादेवी के विचार संसार को देखने का एक व्यापक समाजशास्त्रीय नज़रिया उपलब्ध कराती है। इस संकलन में “कला और हमारा चित्रमय साहित्य; हमारे वैज्ञानिक युग की समस्या; साहित्यकार की आस्था; यथार्थ और आदर्श; छायावाद; सामयिक समस्या; समाज और व्यक्ति; श्रृंखला की कड़ियाँ; भारतीय संस्कृति और नारी; स्त्री के अर्थ-स्वातंत्र्य का प्रश्न; आधुनिक नारी-उसकी स्थिति पर एक दृष्टि” जैसे महत्त्वपूर्ण निबंध शामिल किए गए हैं।

महादेवी वर्मा के इन निबंधों की पढ़त के लिए अर्चना सिंह एक नयी देशज दृष्टि प्रस्तावित करती हैं। वे इस बात से न केवल वाकिफ़ हैं बल्कि उसकी अंतर्द्रष्टा भी हैं कि नए तरह के समाजविज्ञान लिखने के हिंदी साहित्य एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। वे रेखांकित करती हैं कि हिंदी साहित्य में हुए महत्त्वपूर्ण बौद्धिक कार्य जो समाजविज्ञानियों की चर्चा से बाहर रहे हैं, उन्हें एक बार फिर खंगालना होगा। समाजविज्ञान लिखते समय हमें अपनी पोजीशन, समाज को देखने का लेंस देशज रखना होगा। कई बार हम वैधता के प्रश्न में उलझ कर अपने अनुभवजन्य ज्ञान को नकार देते हैं और पश्चिमी ढांचे से प्रेरित होकर पूर्वाग्रह रहित सार देखने के फेर में सामाजिक संदर्भो की अनदेखी कर जाते हैं।

यदि साहित्य समाज का दर्पण है तो उसका कोई न कोई संदर्भ बिंदु तो होगा ही जहाँ से उसे देखा जाना होता है। उत्तर भारतीय समाज आज़ादी के तीव्र आंदोलनों से गुजरा, आज़ादी के बाद के विमर्शों से गुजरा, नवीन प्रकार की पारिवारिक और व्यक्तिवादी चेतना का निर्माण हुआ, शिक्षा बढ़ी लेकिन स्त्रियों को वह साधारण मानवीय गरिमा नसीब नहीं हुई जहाँ वे अपनी नियति को रूप दे सकें। महादेवी वर्मा ने एक राष्ट्र के रूप में भारत की इस मानसिक बनावट पर उँगली रख दी। अपने निबंध साहित्यकार की आस्था में उन्होंने लिखा भी : “समष्टि की इकाई होने के कारण साहित्यकार के जीवनदर्शन और आस्था का निर्माण भी समाज विशेष और युग विशेष में होता है। पर उसका सृजन-कर्म उसकी आस्था के साथ जैसा अभिन्न और प्रगाढ़ सम्बन्ध रखता है, वैसा अन्य व्यक्तियों और उनके व्यवसायों में नहीं रहता।” समष्टि के भीतर व्यष्टि और वह भी स्त्री के जीवन के बारे में महादेवी जी मुखर रही हैं। उन्होंने शृंखला की उन कड़ियों की पहचान की जिससे भारतीय स्त्री जीवन निर्मित होता है। स्त्रियों के वजूद से ताकत छीनकर पुरुष प्रधान समाज अपने हाथ में ले लेता है, और उसे भनक भी नहीं लगती है। इसकी पड़ताल की जानी थी। महादेवी वर्मा ने अपने निबंधों में इसकी निर्मम पड़ताल की है। ध्यान दीजिए कि छायावाद की प्राण प्रतिष्ठा के दौर में प्रसाद जी ने कामायनी में लिखा था कि “नारी! तुम केवल श्रद्धा हो/ विश्वास- रजत-नग पद तल में/ पीयूष स्रोत सी बहा करो/ जीवन के सुंदर समतल में” उसी समय “शृंखला की कड़ियाँ” निबंध की शुरुआत में ही महादेवी जी ने लिखा था : “प्रायः जो वस्तु लौकिक साधारण वस्तुओं से अधिक सुन्दर या सुकुमार होती है उसे या तो मनुष्य अलौकिक और दिव्य की पंक्ति में बैठाकर पूजा ही समझने लगता है। या वह तुच्छ समझी जाकर उपेक्षा और अवहेलना की भाजन बनती है। अदृष्ट की विडम्बना से भारतीय नारी को दोनों ही अवस्थाओं का पूर्ण अनुभव हो चुका है।” महादेवी वर्मा ने भारतीय स्त्री को उसकी इयत्ता की महिमा को कायम रखते हुए स्वतंत्रचेता के रूप में परिकल्पित किया जो अपने जीवन प्रश्नों पर गंभीरतापूर्वक विचार कर सकती है। समीक्ष्य पुस्तक की अपनी भूमिका में अर्चना सिंह महादेवी के इस पक्ष को प्रस्तुत विस्तार से रखती हैं। वे लिखती हैं कि इन सामाजिक संदर्भो को समझे बिना हम शक्ति संचरण की प्रक्रिया नहीं समझ सकते हैं। अपवंचना की निर्मिति करने वाली शक्ति केवल संसाधनों तक सीमित नही रहती है, वह ज्ञान की दुनिया को भी नियंत्रित करने का प्रयास करती है।...अकादमिशियनों व समाजशास्त्रियों ने इन प्रतिरोधों के विभिन्न आयामों का विस्तृत अध्ययन व डाक्यूमेन्टेशन किया है लेकिन स्त्री जीवन के छोटे-छोटे प्रतिरोध, मुक्ति की चाह में उठाए गए छोटे-छोटे कदम अन-डाक्युमेन्टेड रह जाते हैं। महादेवी का साहित्य उसी दिशा में उठाया गया कदम है।

इस किताब की भूमिका में अर्चना सिंह ‘आर्ग्युमेंटेटिव इंडियंस’ के उस विरोधाभास की तरफ़ इशारा करती हैं जहाँ भारतीय पुरुष अपनी बहस की परम्पराओं को दमकते हुए अक्षरों में अंकित तो करना चाहते हैं लेकिन वे स्त्री आवाज़ों को नामहीन कर देते हैं। वे ‘सीमन्तनी उपदेश’ की चर्चा करती हैं जहाँ लेखिका का नाम प्रकाश में नहीं आया केवल उसका आर्ग्युमेंट सामने आता है। स्त्रियों के ख़िलाफ़ युग का जो झुकाव था, वह महादेवी वर्मा के समय भी चला आया जिसमें स्त्रियों से सवाल उठाने की अपेक्षा नहीं की जा रही थी। इस प्रकार ‘सीमन्तनी उपदेश’ स्त्री के यातना के विभिन्न पक्षों को सामने लाती है। इसमें विधवा स्त्री की पीड़ा, सती प्रथा का विरोध, सतीत्व जैसी दमनकारी छवि का पुरजोर खंडन है। अर्चना सिंह का मानना है कि हम साहित्य की इस धारा को स्त्री विमर्श के सैद्धांतिक खांचे में भले न रख पाएँ परन्तु ये एक नए तरह के प्रतिरोधी विमर्श का उद्भव था जिसमे स्त्री प्रश्नों को अलग अलग तरीके से उठाया गया। प्रस्तुत संकलन उस विमर्श को विस्तार देता है। यह किताब हिंदी के सामान्य पाठकों, शोधकर्त्ताओं और राजनीतिक, आर्थिक और लैंगिक बराबरी की विभिन्न पहलकदमियों में शामिल लोगों के लिए एक अनिवार्य पुस्तक है। 

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