लौटकर तो आना ही था देश में भी जेल में भी
राजकमल ब्लॉग के इस अंक में पढ़ें, अशोक कुमार पांडेय की किताब 'राहुल सांकृत्यायन: अनात्म बैचेनी का यायावर' का एक अंश।

चलो, अब धर्म से नाममात्र का भी रिश्ता न रहा

राहुल जब लौटकर आए तो देश में कांग्रेस की सरकारें काम कर रही थीं। कांग्रेस में बिहार जैसी जगहों पर उस दौर में भी ज़मींदारों और मिल मालिकों का ख़ासा प्रभाव था। मजदूर-किसान की पक्षधरता करनेवाले राहुल का असंतोष सहज था। सोवियत संघ वह एक बार हो आए थे और बराबरी का सपना उनकी आँखों में चिंगारी की तरह बसा हुआ था।

भले उत्तर प्रदेश में जन्म हुआ हो कार्यक्षेत्र तो उनका बिहार ही था। अब तो वह जन्मभूमि की भाषा नहीं बल्कि छपरा की भाषा (मल्लिका) बोलते थे। दरभंगा में हो रहे किसान सम्मेलन में उन्होंने इसी भाषा में भाषण दिया। फिर जयप्रकाश के कहने पर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य हो गए और मजदूरों-किसानों के बीच सक्रियता से काम करना शुरू किया। 7 अक्टूबर, 1938 को हरिनगर चीनी मिल के मज़दूरों ने हड़ताल कर दी। कांग्रेसी नेताओं ने बीच-बचाव का काम किया लेकिन मालिकान माँगें माँगने के लिए तैयार नहीं हुए। पुलिस आई और मजदूरों पर भयावह जुल्म हुए। कांग्रेसी राज्य में ग़रीबों के प्रति यह व्यवहार राहुल के लिए आश्चर्यजनक था। उन्होंने गाँव-गाँव जाकर किसानों को संगठित करने का संकल्प लिया। इस वक्त तक नागार्जुन भी लंका से लौट आए थे और पीले चीवर में राहुल के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़े थे।

योजना तो हथुआ की रियासत में सत्याग्रह करने की थी क्योंकि वह बड़ा था और उसका प्रभाव दूर तक जाता लेकिन स्थितियाँ ऐसी बनीं कि सत्याग्रह 24 फरवरी को अमवारी में हुआ। इसका विवरण राहुल के शब्दों में सुनना ही बेहतर होगा—

10 बजे हम ग्यारहों आदमी हँसुवा लेकर खेत में पहुँच गए। शराब पिए मतवाला किए दोनों हाथी पास खड़े थे, उनके पास सैकड़ों लठधरों की पाँती खड़ी थी। लठधरों में से कुछ तो जमींदार ने भाड़े पर बुलाया था, कुछ आदमी आसपास के ज़मींदारों ने दिए थे, और कुछ को समझाया गया था कि कुर्मी एक राजपूत भाई की इज्जत बिगाड़ रहे हैं, जातिगुहार में शामिल होना चाहिए। लेकिन, पिछला प्रोपेगैंडा जान पड़ता है सफल नहीं हुआ, क्योंकि सवेरे के चार-पाँच सौ लठधरों में बहुत-से खेत पर नहीं आए थे। यद्यपि अमवारी में पचासों सशस्त्र पुलिस आ गई थी, लेकिन इंस्पेक्टर ने उन्हें 3 फ़लांग दूर ही एक बाग में रोक रखा था। खेत पर सिर्फ़ दो थानेदार, एक सिपाही और दो चौकीदार आये थे। इंस्पेक्टर को अच्छी तरह मालूम था कि जमींदार खून करने को उतारू है; फिर भी हाथियों और लठधरों को खेत पर जमा होने देना और सिपाहियों को न भेजना इसका क्या अभिप्राय था, हमारे खेत पर पहुँचते ही जमींदार-परिवार के दो व्यक्ति लठैतों को लाठी चलाने के लिए उकसा रहे थे, लेकिन कोई आगे बढ़ना नहीं चाहता था। शायद मेरे शरीर पर जो पीले कपड़े थे, उसकी वजह से उनको हाथ छोड़ने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। ग्यारह निहत्थे आदमी, हाथ में हँसिया लेकर ऊख काटने आए। मैंने दो ऊख काटी, थानेदार ने मुझे गिरफ़्तार कर लिया। इसी तरह बाक़ी को भी गिरफ्तार कर लिया। मैंने सिर पीछे किया, देखा - ज़मींदार का हाथीवान कुर्बान हाथी से उतरा। मैने दूसरी ओर मुँह घुमाया, उसी वक़्त खोपड़ी के बाईं ओर जोर की लाठी लगी। मुझे कोई दर्द नहीं मालूम हुआ, हाँ, देखा कि सिर से खून बह रहा है। थानेदार ने दूसरी लाठी लगने नहीं दी।

रात सिवान में गंदे कंबलों और पिस्सुओं के बीच गुज़ारने के बाद 26 फ़रवरी को राहुल, नागार्जुन तथा उनके दल के अन्य सात सदस्यों को छपरा जेल में शिफ्ट किया गया। सर में चोट गहरी थी लेकिन बेरहम जेल प्रशासन ने उसकी देखभाल और इलाज में भी हीला-हवाली की। कमला, बाद के दौर में राहुल जी को विस्मृति का जो रोग हुआ, उसके लिए इस चोट को भी ज़िम्मेदार बताती हैं। लेकिन उस समय राहुल इसे बहुत गम्भीरता से नहीं ले रहे थे। उधर समझौते की कोशिशें जारी थीं लेकिन किसान आन्दोलन से पीछे हटने को तैयार नहीं थे। आसपास के गाँवों से भी किसान आ गए थे।

जेल में रहते ही रूस से आचार्य श्वेर्वस्की का पत्र आया जिसमें तीन महीने 'पहले उनके पिता बनने की सूचना थी। लोला और उनकी ज़िन्दगी में ईगोर ने प्रवेश किया। राहुल ने ओगन (रूसी में अग्नि) नाम सुझाया था लेकिन उनका पत्र देर से पहुँचा और नामकरण हो चुका था। राहुल पुत्रजन्म की सूचना पर टिप्पणी करते हैं—' पुत्र-जन्म की प्रसन्नता होनी ही चाहिए, क्योंकि पुत्र ही आदमी का पुनर्जन्म और परलोक है।' आधुनिक पाठक यह पढ़कर एक क्षण ठिठक जाएगा। पुत्र ही क्यों! क्या पुत्री के जन्म पर भी यह टिप्पणी होती? आगे भी जेता को लिखे पत्रों में उन्होंने लिखा है कि 'तुम्हें जया का ख़याल करना है' जबकि जया बड़ी थीं। आज के दौर में यह लिखते कोई सकुचाएगा। लेकिन समय से आगे होने के बावजूद हर दौर की एक सीमा होती है। वामपंथी आन्दोलन में भी जेंडर का सवाल बहुत बाद में गम्भीरता से एजेंडे पर आता है। राहुल भी उस सीमा को नहीं पार कर सके थे। यहाँ सुभाषचन्द्र बोस की याद आती है। एमिली से विवाह करने के बाद जब बिटिया अनीता पैदा हुईं तो उन्हें भी एक क्षण के लिए निराशा हुई थी; वह बेटा चाहते थे।

18 मार्च से राहुल भूख हड़ताल पर चले गए। अगले चार दिन भूख हड़ताल चली। फिर सीवान की अदालत में ले जाते हुए, 2 अप्रैल को वहाँ से लौटते हुए हथकड़ी लगाकर लाया गया। छपरा में स्टेशन से उतरते हुए हथकड़ी में जो तस्वीर ली गई वह अख़बारों में छपी। बात फैल गई। फेनी बाबू ने अपने संस्मरण में लिखा-

भारत लौटकर कुछ महीने बाद जब अखबार में छपा हुआ एक चित्र देखा जिसमें राहुल जी के हाथों में हथकड़ियाँ डाले और मोटी रस्सियों से बाँधकर सिपाही उन्हें ले जा रहे थे तो मैंने उस चित्र को माथे से लगा लिया। मन में कहा 'धन्य हो वीर महात्मा'!

अन्ततः 15 अप्रैल को जेल के भीतर चले मुक़दमे में उन्हें ग़ैरक़ानूनी मजमा लगाने और गन्ने की चोरी के इल्ज़ाम में छह-छह महीने की सजा हुई और दो दिन बाद चीवर उतरवाकर क़ैदियों का कपड़ा पहना दिया गया; राहुल लिखते हैं- 'चलो, अब धर्म से नाममात्र का भी रिश्ता न रहा।'

इस जेलयात्रा के दौरान उन्होंने एक पुस्तिका 'तुम्हारी क्षय' लिखी। पुस्तक के कंटेन्ट का अन्दाजा इसके शीर्षक और संक्षिप्त भूमिका से ही लगाया जा सकता है। वह लिखते हैं-

'तुम्हारी क्षय' के रूप में मैंने अपने कुछ भावों को व्यक्त किया है। वस्तुतः ये भाव कुछ और भी कड़े शब्दों का तकाजा रखते थे, किन्तु कुछ तो उतने कड़े शब्दों को तुरन्त प्राप्त करना मुश्किल था, और कुछ यह भी उखयाल इसमें बाधक हुआ कि पुस्तकों को पाठकों के पास पहुँचाना है।"

आगे पुस्तक में शीर्षक हैं—तुम्हारे समाज की क्षय, तुम्हारे धर्म की क्षय, तुम्हारे भगवान् की क्षय, तुम्हारे सदाचार की क्षय, तुम्हारी जात-पाँत की क्षय, तुम्हारी जोंकों की क्षय। पूँजीपतियों के लिए राहुल अब बाक़ायदा 'जोक' शब्द का इस्तेमाल करना शुरू कर चुके थे। मज़ेदार यह है कि इसके बावजूद पूँजीपतियों से उनके सम्बन्ध ख़राब नहीं थे। तिब्बत यात्राओं में वह धर्ममान साहू के अतिथि होते रहे, मदद भी मिली उनसे। रूस की अन्तिम यात्रा से लौटने के बाद बम्बई जाने पर वह बिड़ला के बैंगले में रुकते थे, कलकत्ता में भी बाद में उनका आवास डाबर-हाउस ही बना। इसके अलावा भी अनेक राजा-महाराजा सामन्त साहूकार पूँजीपति उनके मेजबान और सहायक बनते रहे।

तक़रीबन सत्तर पेज की यह पुस्तिका एक शानदार प्रोपेगैंडा है। सामाजिक कुरीतियों, फ़र्जी नैतिकताओं, जातिवाद और पूँजीवादी लूट की कलई खोलते हुए यह एक समतामूलक समाज का प्रस्ताव रखती है और आज प्रकाशन के कोई आठ दशक बीत जाने के बाद भी भारतीय पाठक के लिए एक जरूरी किताब है।

इसी के साथ उन्होंने एक उपन्यास 'जीने के लिए' लिखा। इसे वह बोलते जाते. थे और नागार्जुन लिखते जाते थे। साढ़े तीन सौ पेज का यह उपन्यास देवराज की कहानी है जो किसानों की ज़मीन के लिए संघर्ष करता है और अन्त में जागीरदार के गुंडों की लाठियों से मारा जाता है। यह उनका पहला उपन्यास था और नायक देवराज में स्पष्ट राहुल की अपनी छवि दिखाई देती है।

राहुल के जेल जीवन पर 'जनता' नामक अखबार ने लिखा- 'बौद्धों की उस पीली पोशाक की जगह उन्होंने खड़ी का हॉफ पैंट और हॉफ कमीज़ पहन रखी थी। जेल में उनके चेहरे पर लाली नहीं, पीलापन है। कम वजन होने पर भी वे प्रसन्न दिखे । साथी किसानों को पढ़ाने लिखाने के साथ अपना साहित्यिक कार्य भी जारी रखे हुए हैं।

एक मई से राहुल फिर हड़ताल पर चले गए। उनके समर्थन में जयप्रकाश नारायण की अध्यक्षता में एक सभा भी हुई थी जिसमें रामवृक्ष बेनीपुरी, अच्युत पटवर्धन, एम आर भसानी, फ़रीदुल्लाह अंसारी सहित कई महत्त्वपूर्ण लोगों ने एक माँगपत्र दिया था। अगले दस दिन तक हड़ताल चली और फिर 10 मई को बिहार सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया।

बीसेक दिन आराम करके उन्होंने फिर काम शुरू किया और उसी अमवारी में एक बड़ी जनसभा को सम्बोधित किया जहाँ उनका सिर फोड़ा गया था। जून 1939 में राहुल किसानों की पुकार पर छितौली पहुँचे और वहाँ के ज़मींदार अशर्फी साहू के ख़िलाफ़ सत्याग्रह का बिगुल फूँक दिया। वहाँ भी लाठी चली, हालांकि राहुल को चोट नहीं आई। मुक़दमा चला और दो साल की सजा हुई। संयुक्त प्रान्त यानी आज के उत्तर प्रदेश के रास्ते उन्हें हज़ारीबाग़ भेजा गया। रास्ते में आजमगढ़ पड़ना था और प्रतिज्ञा पचास वर्ष की उम्र तक वहाँ न जाने की थी, राहुल लिखते हैं-'मैं रेल से उतरा नहीं, न मैंने बाहर झाँककर देखा ही, तो भी 23 जून को मऊ (आजमगढ़) के रास्ते जाना पड़ा। वैसे आज मऊ आजमगढ़ से अलग होकर नया जिला बन चुका है।

इस बार वह पहले ही दिन से भूख हड़ताल पर चले गए और अगले 17 दिन तक अनशन चलता रहा। वज़न 174 पाउंड से घटकर 156 रह गया, हृदयगति 18 हो गई, नब्ज़ 68. सोलहवें दिन के विवरण में राहुल लिखते हैं- दम घुटना, छाती दर्द, सिर में झुनझुनी, एसीटोन। जबर्दस्ती खिलाने की कोशिशों के विरोध में प्रधानमंत्री को लिखा- 'जबर्दस्ती खिलाने को रोकें, क्योंकि मुझे असह्य पीड़ा होती है, मैं शान्ति से मरना चाहता हूँ।' अठारहवें दिन सरकार ने उन्हें रिहा करने का आदेश दिया तब अनार का जूस पीकर उन्होंने भूख-हड़ताल तोड़ दी।

आन्दोलन, जेल यात्राओं और अनशन से स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हुआ था। बाद के दौर में लिखना पढ़ना भी बाधित हुआ ही था। तिब्बत से लाई वर्तिकालंकार के प्रकाशन को लेकर भारतीय विद्या भवन ने आश्वासन दिया था तो बम्बई जाकर उसके प्रकाशन की योजना बनी, लेकिन प्रकाशकीय अत्याचारों से लेखक की मुक्ति आसान नहीं होती। जो राशि प्रस्तावित की गई थी, उसे देने में आनाकानी हुई तो राहुल ने मोल-तोल की जगह ना कहना पसन्द किया और छपरा लौट आए। सोचकर देखिए कि यह महत्त्वपूर्ण किताब 14 साल बाद 1953 में भारतीय विद्यापीठ, बनारस से प्रकाशित हो सकी थी!

एक और घटना का ज़िक्र किए बिना राहुल के आदर्शों और जनप्रतिबद्धता को नहीं समझा सकता। वह लिखते हैं-

क़ुरबान के ऊपर सरकार ने मुकदमा चलाया था, मैं उसमें गवाही देने गया। मैं सोचता था - कुरबान का क्या क़सूर; लाठी उसने नहीं चलाई, उसके मालिक ने चलवाई, फिर उसे जेल की यातना दिलवाने से क्या फ़ायदा? 29 अगस्त को मुक़दमे की तारीख थी। मैंने उस दिन अदालत में जाकर दरख्वास्त दे दी, कि क़ुरबान को छोड़ दिया जाए, मैं नहीं चाहता कि उस पर मुकदमा चलाया जाए।

गांधी याद आते हैं। अफ्रीका में मीर आलम की लाठी के प्रहार से बेहोश हुए गांधी ने होश आने पर कहा था- 'उसे रिहा कर देना चाहिए और मुक़दमे में गवाही देने से इनकार कर दिया था। मतभेदों के बावजूद समानता यह है कि हर महान विचार के मूल में मानवीय संवेदना होती है, या यों कहें कि जहाँ मानवीयता नहीं, वह विचार महान हो ही नहीं सकते।

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