पाकिस्तानी औरत अपने जन्म के हादसे की क़ैदी है
राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, साक्षात्कारों पर आधारित नासिरा शर्मा की किताब 'औरत की आवाज़' से एक पाकिस्तानी सियासी महिला का साक्षात्कार। 

सैयदा आबिदा हुसैन

पाकिस्तान

सैयदा आबिदा हुसैन हीर के इलाक़े झंग (पंजाब) से हैं। आप पाकिस्तान की पहली सियासी महिला हैं जो 1985 में क़ौमी असेम्बली की सदस्या (धारा 66 से) दो सौ सदस्यों में से एक चुनी गईं। जब तक राष्ट्रपति ने उन्हें हटाया नहीं तब तक वह उस कुर्सी पर थीं। शिया होने के बावजूद किसी भी तरह के समझौते न करने और हक़ की आवाज़ बुलन्द करने में आबिदा कभी नहीं झिझकीं। इनके पिता को भी बहुत कष्ट उठाने पड़े थे मगर दोनों कभी सत्ता के आगे नहीं झुके हैं। इस्लामाबाद में आबिदा हुसैन के सियासी व्यक्तित्व की पुख़्तगी के इतने चर्चे सुने कि मिलना ज़रूरी समझा। उनसे बातचीत के मुख्य अंश दिए जा रहे हैं :

पाकिस्तानी औरत अपने जन्म के हादसे की क़ैदी है

नासिरा शर्मा : नवम्बर में होने वाले चुनाव के बारे में आपका क्या ख़याल है?

आबिदा हुसैन : बदक़ि‍स्मती से पिछले चालीस साल में हम पाकिस्तान में चुनाव की कोई परम्परा की नींव नहीं डाल पाए, न उसकी शर्तें व क़ानून ही तय कर पाए हैं। पाकिस्तान बनने के बाद 1953 में हुआ पहला चुनाव, फिर 1960 में राष्ट्रीय व प्रान्तीय चुनाव, 1965 में संसद चुनाव हुआ जिसमें दस हज़ार वोटर का मेंडेट एक माना जाता था। यह चुनाव पूरी तरह आज़ाद चुनाव नहीं थे। 1970 में राष्ट्रीय चुनाव और 1971 में बंगलादेश बनने के बाद आज के नए पाकिस्तान का पहला अगला चुनाव 1977 में हुआ। ठीक सात साल के गैप के बाद चुनाव रद्द करके पाकिस्तान मार्शल लॉ का शिकार हो गया, 1979 और 1983 में स्थानीय चुनाव हुए फिर संसद चुनाव 1985 में हुआ मगर नान पार्टी बुनियाद पर और वही संसद कुछ समय पहले ख़त्म कर दी गई। अब चुनाव कब होता है कह नहीं सकती क्योंकि ज़िया साहब पिछले नौ वर्ष से चुनाव की बात कर रहे हैं।

नासिरा शर्मा : तो फिर उन्हें हमेशा के लिए पाकिस्तान का राष्ट्रपति क्यों नहीं चुन लिया जाता है ताकि जनता चुनाव की उत्तेजना व इन्तज़ार से मुक्त होकर सुख से रहे?

आबिदा हुसैन : परमानेंट तो सिर्फ़ ‘ख़ुदा’ की ज़ात है। अभी तक पाकिस्तान में हमेशा के लिए राष्ट्रपति का चलन नहीं हुआ है। 5 जुलाई को ज़िया साहब के ग्यारह साल पूरे हो गए हैं। फ़ौजी सत्ता का कुछ तय नहीं, जैसे वह आती है वैसे ही चली भी जाती है। अयूब ख़ान कमांडर इन चीफ़ बने फिर कमांडर इन चीफ़ व डिफ़ेंस मिनिस्टर बने, फिर चीफ़ मार्शल एडमिनिस्ट्रेटर बने और 1960 में राष्ट्रपति के साथ चीफ़ मार्शल एडमिनिस्ट्रेटर भी बने रहे। 1960 में मार्शल लॉ हट गया तो वह केवल राष्ट्रपति बने रहे। 1969 तक पौने ग्यारह साल सत्ता में रहे। अप्रैल 1969 में जनरल याहिया ख़ाँ ने बागडोर सँभाली, 1971 में भुट्टो साहब जब आए तो उन्होंने अपने को चीफ़ मार्शल एडमिनिस्ट्रेटर बनाकर पेश किया जबकि वह पश्चिमी पाकिस्तान में चुनाव जीत चुके थे। इसलिए ज़िया-उल-हक़ साहब का हमेशा के लिए पाकिस्तान का राष्ट्रपति बना रहना भी नामुमकिन है।

नासिरा शर्मा : क्या इस्लामी क़ानून जो ज़िया साहब ला रहे हैं उसमें औरत के ऊपर क़ानून की गिरफ़्त ज़्यादा मज़बूत होगी, एक समाज-सेविका के रूप में आप इसकी व्याख्या कैसे करेंगी?

आबिदा हुसैन : पाकिस्तानी औरत अपने जन्म के हादसे की क़ैदी है। वह देहात में ग़रीब व शहर में अगर ग़रीब घराने में पैदा हुई तो जीने का बुनियादी हक़ उसके घर के मालिक के हाथ में होता है और इसी में वह अपनी सारी ज़िन्दगी गुज़ार लेती है। उसे न अपनी ख़ूबी का पता चलता है, न यह महसूस करती है कि वह भी कमाती है और उस पर उसका भी हक़ है। वह चुपचाप अपनी कमाई भाई, बाप, शौहर या बेटे के हाथ में रख देती है। मध्यवर्ग की औरत जो देहात में है, उसकी दशा भी यही है कि वह अपने को बेबस और बेकस समझती है मगर शहर में वह काम करती है, पढ़ती है मगर उसको अपने फ़ैसलों यानी उसका शौहर, घर कैसा हो, उसको कितने बच्चे चाहिए इस पर कोई अधिकार नहीं होता है। अब रही उच्चवर्ग की औरत जो पाकिस्तान में ज़्यादा पढ़ी-लिखी भी है, अपने फ़ैसलों में आज़ाद भी है। पाकिस्तान में फ़ौज की नौकरी छोड़कर औरतें आज हर विभाग में नज़र आती हैं जबकि ज़िया साहब ने इस्लाम का ज़ोर बाँध रखा है और क़ानून की व्याख्या भी रूढ़िवादी दृष्टिकोण लिए हुए होती है, तो भी हमारी औरतों की स्थिति में काफ़ी सुधार आ रहा है, ख़ासकर शहरों में।

नासिरा शर्मा : एक तरफ़ औरतें इंक़लाबी होती जा रही हैं दूसरी तरफ़ शरियत क़ानून की बहस गर्म है। ऐसी स्थिति में गाँव, क़स्बे व निम्न-मध्यवर्ग की औरतें जिनकी तादाद ज़्यादा है, उनकी दशा क्या होगी उस इस्लामी व्यवस्था में?

आबिदा हुसैन : हमारे यहाँ इस्लामी व्यवस्था नहीं बल्कि आमिराना निज़ाम (तानाशाही) है। हमारी इस व्यवस्था में फ़ौज का बहुत दख़ल है जो आपके यहाँ नहीं है। आपके यहाँ चुनाव हर पाँच साल बाद होते हैं और हमारे यहाँ कभी दो साल तो कभी आठ साल बाद। मगर जो ज़िया-उल-हक़ साहब ने ‘निफाज़े इस्लाम’ किया है वह एक क़ानूनी बात है जिसकी अभी तक व्यावहारिक रूप से कोई व्याख्या सामने नहीं आई है। अभी तक ब्रिटिश क़ानून परम्परा ही चल रही है, मैं समझती हूँ चलनी भी चाहिए क्योंकि पाकिस्तान में ‘सेक्टेरियन’ एकता नहीं है। इस्लाम में विभिन्न स्कूल विभिन्न फिकहे (क़ानून) हैं। इसलिए पाकिस्तान में यूनिफ़ार्म इस्लामी निज़ाम को लाना इतना आसान नहीं है। यह तो ज़िया साहब अपनी सत्ता को तूल देने के लिए इस्लाम का इस्तेमाल कर रहे हैं मगर उससे कोई फ़र्क़ आम आदमी पर नहीं पड़ा है। हम जितने पहले मुसलमान थे उतने ही आज।

नासिरा शर्मा : पढ़ी-लिखी औरतों की कोई सियासी संस्था है जो इसका विरोध कर सके?

आबिदा हुसैन : 1947-48 से ‘वीमेन्स एसोसिएशन’ के नाम से पुरानी संस्था ज़रूर चली आ रही है मगर सियासी महिला संस्था कोई नहीं है, हाँ, सोशल वेलफ़ेयर के नाम से कई महिला संस्थाएँ हैं जो ग़ैर-सरकारी हैं। सरकारी तौर पर वीमेन डिविज़न है जहाँ से काम करने की ग्रांट इत्यादि मिलती है।

नासिरा शर्मा : आप नवम्बर में होने वाले चुनाव में किस पार्टी के टिकट से खड़ी होने वाली हैं?

आबिदा हुसैन : मेरे वालिद सियासी व्यक्तित्व वाले थे। उनकी मृत्यु के बाद चूँकि मैं उनकी इकलौती बेटी थी इसलिए पूरी तरह सियासी रंग में रँगी हुई थी। पहले मैंने हुनरमन्द औरतों को जमा करके कशीदाकारी का काम आरम्भ किया और उस संस्था का नाम अपने पिता पर ‘आबिद वेलफ़ेयर को-ऑपरेटिव सोसाइटी’ रखा। 1965 से 1975 के बीच यह संस्था स्वावलम्बी बन गई और मेरे बिना अपने को सँभालने लगी। मैं दूसरे गाँवों की तरफ़ मुड़ी, 1971 में मैं पी.पी.पी. में शामिल हुई और 1972 में प्रान्तीय असेम्बली का चुनाव हुआ जिसमें छह सीटें औरतों के लिए रिज़र्व होती हैं। पाँच साल पी.पी.पी. के द्वारा मैं प्रगति समिति की अध्यक्ष रही। 1977 में जब चुनाव का ऐलान हुआ तो मैं जनरल सीट के लिए खड़ी होना चाहती थी मगर पार्टी के अध्यक्ष ने कहा कि इस तरह एक सीट ख़राब होगी जबकि पी.पी.पी. के अपने पार्टी क़ानून में औरत-मर्द की बराबरी की बात कही गई थी, इस बात पर मैंने पी.पी.पी. से इस्तीफ़ा दे दिया। 1977 में हुए चुनाव के विरोध में पी.पी.पी. के ख़िलाफ़ एक आन्दोलन छिड़ गया। झंग में सारे स्थानीय सत्ताधारी पी.पी.पी. के थे, मैं अकेली विरोधी बची थी। कई मुक़दमे मुझ पर चले जैसा हमारे मुल्क में विरोधी विचार वालों के साथ होता है। मेरे लिए किसी अन्य पार्टी में जाना ज़रूरी हो गया सो मई 1977 में नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी में शामिल हुई। 1977 में दोबारा चुनाव होना मंजूर हुआ ‘ऑपरेशन फेडेल’ के नाम से मगर वह नामुकम्मल रह गया और ज़िया साहब सत्ता में आ गए। मैं राष्ट्रीय असेम्बली के चुनाव में खड़ी हुई मगर चुनाव ही नहीं हुआ। मई 1979 में नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी दो हिस्सों में बँट गई। हैदराबाद जेल में वली ख़ाँ व अन्य साथियों के बीच मतभेद उठ गए और बलूची साथी इनसे अलग हो गए। बलूची ने नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी बनाई और वली ख़ाँ ने वही नाम रखा। मेरे सामने संकट था कि मैं पी.एन.पी. की तरफ़ चलूँ या एन.डी.पी. की तरफ़। वहाँ प्रान्तीय मतभेद शुरू हो गया था, मैं पंजाब से थी सो वह पार्टी मुझे छोड़नी पड़ी, फिर मैं मेम्बर ज़ि‍ला काैंसिल का चुनाव लड़ी, जीती और 79 से 83 तक अध्यक्ष बनी रही। 1983 में फिर आज़ाद उम्मीदवार की शक्ल में झंग से चुनी गई। अब मैं किसी पार्टी के टिकट से नहीं बल्कि आज़ाद उम्मीदवार की शक्ल में खड़ी होना चाहती हूँ।

नासिरा शर्मा : इसका मतलब है कि पाकिस्तान की सियासत में औरत का दाख़ि‍ला जोखिम भरा है।

आबिदा हुसैन : बिलकुल। पाकिस्तानी औरत को किसी भी मुक़ाम पर पहुँचने के लिए समाज, ख़ानदान, धर्म और ज़िन्दगी के जद्दोजहद के कई ऊबड़-खाबड़ और कँटीले रास्तों से गुज़रना पड़ता है।

नासिरा शर्मा : अगर औरत सारे संघर्ष छोड़ एक आम मामूली औरत की तरह जीना चाहे तो उसे भी आपके मुल्क का निज़ाम चैन से नहीं जीने देता है। तब उसका शारीरिक शोषण होता है।

आबिदा हुसैन : इसमें कोई शक नहीं है। मगर एक सच और भी है सारे जहाँ की औरतों का, वह अपनी मर्ज़ी और सलाहियतों के साथ भरपूर तरीक़े से कहीं भी नहीं जी पा रही हैं। यह बात सिर्फ़ पाकिस्तान तक महदूद नहीं है।

नासिरा शर्मा : मैं आपकी बात की ताईद करती हूँ। यह एक ऐसा सच है जिससे असहमति का सवाल ही नहीं उठता है।

(लाहौर, 1987)

 

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