कवि मनाली गया
राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, यशवंत व्यास के व्यंग्य संग्रह 'कवि की मनोहर कहानियाँ' से उनका व्यंग्य 'कवि मनाली गया।' 

कवि मनाली गया

अपने प्रधानमंत्री भी गए थे।

प्रधानमंत्री पर पूरा फीचर आया, कवि का किसी ने नोटिस नहीं लिया। इससे पहले पार्टी मसूरी बैठक कर आई थी। कवि भी मसूरी की माल पर घूमा। लेकिन वह क्या देखता है कि कुत्ते के सिर पर हाथ फिराते हुए चित्रों में वह कहीं नहीं है।

कोई कहता है, कवि खो गया है। कोई कहता है कवि सो गया है। कवि को शिकायत है कि वह सोता है तो लोग खोता हुआ कहने लगते हैं। पहाड़ों पर उसे प्रेम इसलिए आता है कि वहाँ ऊँचाई होती है और अकेलापन होता है। शिखर के अकेलेपन में भय और शान्ति—दोनों होते हैं। कवि इस पर ग्रंथ लिखना चाहता है। जाहिर है ग्रंथ आएगा तो भीड़ होगी, भीड़ होगी तो माहौल बनेगा और माहौल भी भय के साथ भरोसा देता है। कवि भय पैदा करना चाहता है, बदले में भरोसा लेना चाहता है। भरोसे का सौदा एजेंडे पर है।

तो कवि पहाड़ों की गड़बड़ पर ध्यान केन्द्रित किए हुए है। ध्यान और केन्द्र दोनों को साधने की गम्भीर कोशिश है। उसका ध्यान केन्द्र पर है। केन्द्र में रहना उसकी मजबूरी है। वह ध्यान करते-करते केन्द्र साध लेता है। केन्द्र साधते-साधते ध्यान में चला जाता है। यह उसका ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ है।

फर्ज कीजिए कहीं सुदूर पूरब में कोई शांग्रीला है। तो वह प्रधानमंत्री कार्यालय को देखता है, कि दूत भेजे जा रहे हैं, सरकार गिराई जा रही है, सांसद पटाये जा रहे हैं। पहले आग लगाई जा रही है, फिर पानी मँगाया जा रहा है, आखिर पानी से राख का पेस्ट बनाकर पूरी सरकार को तिलक लगाया जा रहा है। कवि उस तिलक के ठीक बाद, ध्यान के केन्द्र में चला जाता है।

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कवि अपने पिटे हुए जीवन का दर्शनशास्त्र बघारकर गुप्त प्रेम की रोटी से खाता है। वह आत्म-सम्मोहन से निद्रा में जाता है और फिर सपने देखता है। सपने में सलाहकार होते हैं। स्वदेशी होते हैं। विदेशी होते हैं। साझीदार होते हैं। विनिवेश होता है। सन्देश, गोलगप्पे और चिकित्सक होते हैं। वह नीचे से बढ़ते चरण छूनेवाले हाथों को देखता है। वे हाथ जो घुटने की ओर बढ़ रहे हैं, उसके लिए अचानक पद्मभूषण के दस्तावेजों में बदल जाते हैं।

कवि आँखें खोल देता है।

सपनों के बारे में खुली आँखों से सोचता है और सोचता ही रह जाता है।

कवि को प्रधानमंत्री से जलन होने लगती है। कवि का धन्धा सोचना और का क्रेडिट प्रधानमंत्री को? बहुत नाइंसाफी है ये! चलो यही क्या कम है कि जलते हुए कवि के पास सोचना है, सोना है और चना है। कवि चने चबाता है, सोचता है और सो जाता है। इससे उसे भारत भाग्य विधाता के करीब जाने में सहूलियत होती है।

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पहाड़ों पर जब प्रधानमंत्री कुत्ते के सिर पर हाथ फेरते हैं, कवि नीचे देखता है।

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शिखर से नीचे मनाली। मनाली में भी कोई नाली होगी। कोई मन होगा। किसी ने कसम ली होगी। किसी ने मना किया होगा। किसी ने खैर मना ली होगी। कवि का मन नाली में अटक गया है। नालियाँ दिल्ली के करोल बाग में भी होती हैं। नालियाँ नॉर्थ र्और साउथ ब्लॉक में भी होती हैं। आगरा, ग्वालियर, कुमारकोम, वायनाड और अयोध्या में भी होती हैं। नाली, नाली का फर्क है।

कवि का मन जुड़ता है तो प्रकृति बदलकर मनाली हो जाती है—इसकी मनाली, उसकी मनाली, तेरी दुनाली, मेरी नाली। अहा दिल की नाली, मनाली!

मनाली में मन बह निकलता है। मनाली शिखर है, मनाली प्रेम है, मनाली ऊँचाई है, मनाली गहराई है। अकेलेपन के लिए मन को ऐसी नाली चाहिए जिसमें कोई रुँधा हुआ कोना न हो। मनाली में विचारों का ड्रेनेक्स मिल जाता है जो चोक पाइप को भी साफ कर देता है। मुश्किल यही है, हर किसी को मनाली नहीं मिलती।

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पहाड़ों पर पैर रगड़ता कवि पर्यटन विभाग के ब्रोशर देखता है। लटकी हुई लालटेन देखता है। चट्टानों के धसकने की चीख सुनता है। गुल होती बिजली, पाताल में गया पानी और देवदार देखता है। सरकार के सांस्कृतिक सलाहकार देखता है। आरामकुर्सी पर आँख मूँदे, ठेकेदार से पैर दबवाते लीडर देखता है। पहाड़ी धुन पर लोकल गाइड से मारी हुई टूटी बंसी बजाता है और थककर बैठ जाता है।

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पगडंडी से प्रधानमंत्री की सवारी निकलेगी।

सवारी टीवी पर उतरेगी।

कवि की मनाली, प्रधानमंत्री की मनाली।

कवि फिर कुल्ला करेगा, प्रधानमंत्री फिर सलाहकार के साथ बैठकर नया मंत्रिमंडल बनाने की सोचेगा।

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कवि को कुछ गड़बड़ लग रही है, लेकिन प्रधानमंत्री तरोताजा हैं।

मनाली के पहाड़ों जितनी गड़बड़ के लिए दिल्ली के प्रधानमंत्री-भर निश्चिन्तता चाहिए।

कवि को सन्देह है, वह सोचता ही रहेगा, मनाली में रगड़ाता रहेगा, प्रधानमंत्री देश दौड़ाता रहेगा।

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लाख टके का सवाल है—

तो क्या कवि पहाड़ पर न जाए?

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