ऐसी चीख कि मुर्दे भी क़ब्र में से उठकर खड़े हो जाएँ। लगा कि आवाज बिलकुल कानों के पास से आई है। उन हालात में-मैं उछलकर चारपाई पर बैठ गया, आसमान पर अब भी तारे थे-शायद रात का तीन बजा होगा। अब्बाजान भी उठ बैठे। चीख फिर सुनाई दी। सैफ अपनी खुरा चारपाई पर लेटा चीख़ रहा था। आँगन में एक सिरे से सबकी चारपाईयाँ विछी थीं।
“लाहौलविलाकुव्वत।" अब्बाजान ने लाहौल पढ़ी।
“ख़ुदा जाने ये सोते-सोते क्यों चीखने लगता है।" अम्माँ बोलीं।
"अम्माँ इसे रात भर लड़के डराते हैं।" मैंने बताया।
"उन मुओं को भी चैन नहीं पड़ता- लोगों की जान पर बनी है और उन्हें शरारत सूझती है।" अम्माँ बोलीं। सफ़िया ने चादर से मुँह निकालकर कहा, "इससे कहो छत पर सोया करे।"
सैफ़ अब तक नहीं जगा था। मैं उसके पलंग के पास गया और झुककर देखा कि उसके चेहरे पर पसीना था। साँस तेज-तेज़ चल रही थी और जिस्म काँप रहा था। बाल पसीने में तर हो गए थे और कुछ लटें माथे पर चिपक गई थीं। मैं सैफ़ को देखता रहा और उन लड़कों के प्रति मन में गुस्सा घुमड़ता रहा जो उसे डराते हैं।
तब दंगे ऐसे नहीं हुआ करते थे जैसे आजकल होते हैं। दंगों के पीछे छिपे दर्शन, रणनीति, कार्यपद्धति और गति में बहुत परिवर्तन आया है। आज से पच्चीस-तीस साल पहले न तो लोगों को जिन्दा जलाया जाता था और न पूरी की पूरी बस्तियाँ वीरान की जाती थीं। उस जमाने में प्रधानमंत्रियों, गृहमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों का आशीर्वाद भी दंगाइयों को नहीं मिलता था। यह काम छोटे-मोटे स्थानीय नेता अपना स्थानीय और क्षुद्र किस्म का स्वार्थ पूरा करने के लिए करते थे। व्यापारिक प्रतिद्वंद्विता, जमीन पर क़ब्ज़ा करना, चुंगी के चुनाव में हिन्दू या मुस्लिम वोट समेट लेना वगैरा उद्देश्य हुआ करते थे। अब तो दिल्ली दरबार पर कब्जा जमाने का साधन बन गए हैं साम्प्रदायिक दंगे । संसार के विशालतम लोकतंत्र की नाक में वही नकेल डाल सकता है जो साम्प्रदायिक हिंसा और घृणा पर खून की नदियाँ बहा सकता हो।
सैफ़ू को जगाया गया। वह बकरी के मासूम बच्चे की तरह चारों तरफ़ इस तरह देख रहा था जैसे माँ की तलाश कर रहा है। अब्बाजान के सौतेले भाई की सबसे छोटी औलाद सैफ़ुद्दीन उर्फ सैफ़ू ने जब अपने को घर के सभी लोगों से घिरे देखा तो अकबका कर खड़ा हो गया।
सैफ़ू के अब्बा कौसर चाचा के मरने का आया कोना कटा पोस्टकार्ड मुझे अच्छी तरह याद है। गाँव वालों ने ख़त में कौसर चाचा के मरने की ख़बर ही नहीं दी थी बल्कि ये भी लिखा था कि उनका सबसे छोटा बेटा सैफ़ू अब इस दुनिया में अकेला रह गया है। सैफ़ू के बड़े भाई उसे अपने साथ, बम्बई नहीं ले गए। उन्होंने कह दिया है कि सैफ़ू के लिए वे कुछ नहीं कर सकते। अब अब्बाजान के अलावा उसका दुनिया में कोई नहीं है। कोना-कटा पोस्टकार्ड पकड़े अब्बाजान बहुत देर तक ख़ामोश बैठे रहे थे। अम्माँ से कई बार लड़ाई होने के बाद अब्बाजान पुश्तैनी गाँव धनवाखेड़ा गए थे और बची-खुची ज़मीन बेच, सैफ़ू को साथ लेकर लौटे थे। सैफ़ू को देखकर हम सबको हँसी आई थी। किसी गँवार लड़के को देखकर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के स्कूल में पढ़नेवाले लड़के और अब्दुल्ला गर्ल्स कॉलेज के स्कूल में पढ़नेवाली सफ़िया की और क्या प्रतिक्रिया हो सकती थी। पहले दिन ही यह लग गया था कि सैफ़ू सिर्फ़ गँवार ही नहीं है बल्कि अधपागल होने की हद तक सीधा या बेवकूफ़ है। हम उसे तरह-तरह से चिढ़ाया या बेवकूफ़ बनाया करते थे। इसका एक फ़ायदा सैफ़ू को इस तौर पर हुआ कि अब्बाजान और अम्माँ का उसने दिल जीत लिया। सैफ़ मेहनत का पुतला था काम करने से कभी न थकता था। अम्मों को उसकी ये 'अदा' बहुत पसन्द थी। अगर दो रोटियों ज्यादा खाता है तो क्या? काम भी तो कमर तोड़ करता है। साल पर साल गुजरते गए और सैफ़ हमारी जिन्दगी का हिस्सा बन गया। हम सब उसके साथ सहज होते चले गए। अब मोहल्ले का कोई लड़का उसे पागल कह देता था तो मैं उसका मुँह नोच लेता था। हमारा भाई है, तुमने पागल कहा कैसे? लेकिन घर के अन्दर सैफ़ू की हैसियत क्या थी ये हमीं जानते थे।
शहर में दंगा वैसे ही शुरू हुआ था जैसे हुआ करता था - यानी मस्जिद में किसी को एक पोटली मिली थी जिसमें किसी क़िस्म का गोश्त था और गोश्त को देखे बगैर ये तय कर लिया गया था कि चूँकि वो मस्जिद में फेंका गया गोश्त है इसलिए सूअर के गोश्त के सिवा और किसी जानवर का हो ही नहीं सकता। इसकी प्रतिक्रिया में मुग़ल टोले में गाय काट दी गई थी और दंगा भड़क गया था। कुछ दुकानें जली थीं और ज़्यादातर लूटी गई थीं। चाकू-छुरी की वारदातों में क़रीब सात-आठ लोग मरे थे, लेकिन प्रशासन इतना संवेदनशील था कि कर्फ्यू लगा दिया गया था। आजकल वाली बात न थी। हज़ारों लोगों के मारे जाने के बाद भी मुख्यमंत्री मूँछों पर ताव देकर घूमता और कहता कि जो कुछ हुआ सही हुआ।
दंगा चूँकि आसपास के गाँवों तक भी फैल गया था इसलिए कर्फ्यू बढ़ा दिया गया था। मुगलपुरा मुसलमानों का सबसे बड़ा मोहल्ला था इसलिए वहाँ कर्फ्यू का असर भी था और 'जिहाद' जैसा माहौल भी बन गया था। मोहल्ले की गलियाँ तो थीं ही पर कई दंगों के तजरुबों ने यह भी सिखा दिया था कि घरों के अन्दर से भी रास्ते होने चाहिए। यानी इमरजेंसी पैकेज घरों के अन्दर से, छतों के ऊपर से, दीवारों को फलाँगते कुछ ऐसे रास्ते भी बन गए थे कि कोई अगर उनको जानता हो तो मोहल्ले के एक कोने से दूसरे कोने तक आसानी से जा सकता था। मोहल्ले की तैयारी युद्धस्तर की थी। सोचा गया था कि कर्फ्यू अगर महीने भर भी खिंचता है तो ज़रूरत की सभी चीजें मोहल्ले में ही मिल जाएँ।
दंगा मोहल्ले के लड़कों के लिए एक अजीब तरह का उत्साह दिखाने का मौसम हुआ करता था। अजी हम तो हिन्दुओं को मीन चटा देंगे; समझ क्या रखा है धोती बाँधनेवालों ने अजी बुजदिल होते हैं- एक मुसलमान दस हिन्दुओं पर भारी पड़ता है—'हँस के लिया है पाकिस्तान, लड़कर लेंगे हिन्दुस्तान' जैसा माहौल बन जाता था, लेकिन मोहल्ले से बाहर निकलने में सबकी नानी मरती थी। पीएसी की चौकी दोनों मुहानों पर थी। पीएसी के बूटों और उनके बंदूकों के वटों की मार कई को याद थी इसलिए जबानी जमा-खर्च तक तो सब ठीक था, लेकिन उसके आगे―
संकट एकता सिखा देता है। एकता अनुशासन और अनुशासन व्यावहारिकता। हर घर से एक लड़का पहरे पर रहा करेगा। हमारे घर में मेरे अलावा, उस जमाने में मुझे लड़का नहीं माना जा सकता था, क्योंकि मैं पच्चीस पार कर चुका था लड़का सैफ़ू ही था इसलिए उसे रात के पहरे पर रहना पड़ता था। रात का पहरा छतों पर हुआ करता था। मुग़लपुरा चूँकि शहर के सबसे ऊपरी हिस्से में था इसलिए छतों पर से पूरा शहर दिखाई देता था। मोहल्ले के लड़कों के साथ सैफ़ पहरे पर जाया करता था। यह मेरे अब्बाजान, अम्माँ और सफ़िया-सभी के लिए बहुत अच्छा था। अगर हमारे घर में सैफ़ न होता तो शायद मुझे रात में धक्के खाने पड़ते। सैफ़ू के पहरे पर जाने की वजह से उसे कुछ सहूलियतें भी दे दी गई थीं, जैसे उसे आठ बजे तक सोने दिया जाता था, उससे झाड़ नहीं दिलवाई जाती थी। यह काम सफ़िया के हवाले हो गया था जो इसे बेहद नापसन्द करती थी।
कभी-कभी रात में मैं भी छतों पर पहुँच जाता था। छतों की दुनिया पर मोहल्ले के लड़कों का राज हुआ करता था। लाठी, डंडे, बल्लम और ईंटों के ढेर इधर-उधर लगाए गए थे। दो-चार लड़कों के पास देशी कट्टे और ज़्यादातर के पास चाकू थे। उनमें से सभी छोटा-मोटा काम करनेवाले कारीगर थे। ज्यादातर ताले के कारखाने में काम करते थे। कुछ दर्जीगिरी, बढ़ईगिरी जैसे काम करते थे। चूँकि इधर बाज़ार बन्द था इसलिए उनके धन्धे भी ठप्प थे। उनमें से ज्यादातर के घरों में क़र्ज़ से चूल्हा जल रहा था। लेकिन वो खुश थे। छतों पर बैठकर वे दंगों की ताजा ख़बरों पर तब्सिरा किया करते थे या हिन्दुओं को गालियाँ दिया करते थे। हिन्दुओं से ज़्यादा गालियाँ वे पीएसी को देते थे। पाकिस्तान रेडियो का पूरा प्रोग्राम उन्हें जबानी याद था और कम आवाज़ में वह रेडियो लाहौर सुना करते थे। इन लड़कों में दो-चार जो पाकिस्तान जा चुके थे उनकी इज्ज़त हाजियों की तरह होती थी। जो पाकिस्तान की रेलगाड़ी 'तेजगाम'' और 'गुलशने इकबाल कॉलोनी' के ऐसे क़िस्से सुनाते थे कि लगता स्वर्ग अगर पृथ्वी पर कहीं है तो पाकिस्तान में है। पाकिस्तान की तारीफ़ों से जब उनका दिल भर जाया करता था तो सैफ़ू से छेड़छाड़ किया करते थे। सैफ़ू ने पाकिस्तान, पाकिस्तान और पाकिस्तान का वज़ीफ़ा सुनने के बाद एक दिन पूछ लिया था कि पाकिस्तान है कहाँ? इस पर सब लड़कों ने उसे बहुत खींचा था। वह कुछ समझा था, कुछ नहीं समझा था, लेकिन उसे यह पता नहीं लग सका था कि पाकिस्तान कहाँ है।
गश्ती लौंडे सैफ़ को मज़ाक़ ही मजाक़ में संजीदगी से डराया करते थे, “देखो सैफ़ू, अगर तुम्हें हिन्दू पा जाएँगे तो जानते हो क्या करेंगे? पहले तुम्हें नंगा कर देंगे।" लड़के जानते थे कि सैफ़ू अधपागल होने के बावजूद नंगा होने को बहुत बुरी और ख़राब चीज़ समझता है, “उसके बाद हिन्दू तुम्हारे तेल मलेंगे।"
"क्यों, तेल क्यों मलेंगे?
" ताकि जब तुम्हें बेंत से मारें तो तुम्हारी खाल निकल जाए। उसके बाद जलती सलाखों से तुम्हें दागेंगे।"
"नहीं।" उसे विश्वास नहीं हुआ।
रात में लड़के उसे जो डरावने और हिंसक क़िस्से सुनाया करते थे उनसे वह बहुत ज़्यादा डर गया था। कभी-कभी मुझसे उल्टी-सीधी बातें किया करता था। मैं झुंझलाता था और उसे चुप करा देता था, लेकिन उसकी जिज्ञासाएँ ख़त्म नहीं हो पाती थीं। एक दिन पूछने लगा, “बड़े भाई, पाकिस्तान में भी मिट्टी होती है क्या?"
"क्यों, वहाँ मिट्टी क्यों न होगी?"
" सड़क ही सड़क हैं वहाँ, टेरालीन मिलता है वहाँ, सस्ता है।"
"देखो ये सब बातें मनगढ़ंत हैं- तुम अल्ताफ़ वगैरह की बातों पर "कान न दिया करो।" मैंने उसे समझाया।
'बड़े भाई, क्या हिन्दू आँखें निकाल लेते हैं? "
"बकवास है–ये तुमसे किसने कहा?"
"अच्छन ने।"
"ग़लत है।"
"तो खाल भी नहीं खींचते?" 'ओफ़्फ़ोह-ये तुमने क्या लगा रखी है?"
वह चुप हो गया लेकिन उसकी आँखों में सैकड़ों सवाल थे। मैं बाहर चला गया। वह सफ़िया से इसी तरह की बातें करने लगा।
कर्फ्यू लम्बा होता चला गया। रात को गश्त जारी रही। हमारे घर से सैफ़ ही जाता रहा। कुछ दिन बाद एक दिन अचानक सोते में सैफ चीखने लगा था। हम सब घबरा गए लेकिन ये समझने में देर नहीं लगी कि ये सब उसे डराए जाने की वजह से हैं। अब्बाजान को लड़कों पर बहुत गुस्सा आया था और उन्होंने मोहल्ले के एक-दो बुजुर्गनुमा लोगों से कहा भी, लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ। लड़के और वो भी मोहल्ले के लड़के किसी मनोरंजन से क्योंकर हाथ धो लेते?
बात कहाँ से कहाँ तक पहुँच चुकी है इसका अन्दाजा मुझे उस वक्त तक न था जब तक एक दिन सैफ़ू ने बड़ी गम्भीरता से मुझसे पूछा, "बड़े भाई, मैं हिन्दू हो जाऊँ?"
सवाल सुनकर मैं सन्नाटे में आ गया। लेकिन जल्दी ही समझ गया कि यह रात में डरावने किस्से सुनाए जाने का नतीजा है। मुझे गुस्सा आ गया। फिर सोचा, पागल पर गुस्सा करने से अच्छा है गुस्सा पी जाऊँ और उसे समझाने की कोशिश करूँ।
मैंने कहा, “क्यों, तुम हिन्दू क्यों होना चाहते हो?" "बच जाऊँगा।" सैफ़ बोला।
'इसका मतलब है मैं न बच पाऊँगा।" मैंने कहा। "तो आप भी हो जाइए।" वह बोला।
"और तुम्हारे ताया अब्बा?" मैंने अपने वालिद और उसके चर्चा की बात की।
"नहीं—उन्हें— "वह कुछ सोचने लगा। अब्बाजान की सफ़ेद और लम्बी दाढ़ी में वह कहीं फँस गया होगा। “देखो ये सब लड़कों की खुराफ़ात है जो तुम्हें बहकाते हैं। ये जो तुम्हें बताते हैं सब झूठ है। अरे महेश को नहीं जानते?"
"वो जो स्कूटर पर आते हैं?" वह खुश हो गया।
"हाँ-हाँ, वही।"
"वो हिन्दू हैं?"
"हाँ हिन्दू हैं।" मैंने कहा और उसके चेहरे पर पहले तो निराशा की हल्की-सी परछाईं उभरी फिर वह ख़ामोश हो गया। "ये सब गुंडे-बदमाशों के काम हैं-न हिन्दू लड़ते हैं और न मुसलमान गुंडे लड़ते हैं। समझे?"
दंगा शैतान की आँत की तरह खिंचता चला गया और मोहल्ले में लोग तंग आने लगे। यार, शहर में दंगा करनेवाले हिन्दू और मुसलमान बदमाशों को मिला भी लिया जाए तो कितने होंगे? ज्यादा से ज्यादा एक हज़ार । चलो दो हज़ार मान लो तो भाई दो हज़ार आदमी लाखों लोगों की जिन्दगी को जहन्नुम बनाए हैं और हम लोग घरों में दुबके बैठे हैं। ये तो वही हुआ कि दस हजार अंग्रेज़ करोड़ हिन्दुस्तानियों पर हुकूमत किया करते थे और सारा निजाम उनके तहत चलता रहता था। और फिर हर दंगे से फ़ायदा किसको है? फ़ायदा? अजी हाजी अब्दुल करीम को फ़ायदा है जो चुंगी का इलेक्शन लड़ेगा और उसे मुसलमान वोट मिल जाएँगे। पंडित जोगेश्वर को है जिन्हें हिन्दुओं के वोट मिलेंगे। अंबे तो हम क्या है? तुम वोटर हो- हिन्दू वोटर, मुसलमान वोटर, हरिजन वोटर, कायस्थ वोटर, सुन्नी वोटर, शिआ वोटर। यही सब होता रहेगा इस देश में? हाँ, क्यों नहीं? जहाँ लोग जाहिल हैं, जहाँ किराए के हत्यारे मिल जाते हैं, जहाँ पॉलीटीशियन अपनी गद्दियों के लिए दंगे कराते हैं वहाँ और क्या हो सकता है? वरना क्या हम लोगों को पढ़ा नहीं सकते? समझा नहीं सकते? हा-हा-हा-हा, तुम कौन होते हो पढ़ानेवाले? सरकार पढ़ाएगी अगर चाहेगी। तो सरकार न चाहे तो इस देश में कुछ नहीं हो सकता? हाँ, अंग्रेजों ने हमें नहीं सिखाया है, हम इसके आदी हैं। चलो मान लो इस देश के सारे मुसलमान हिन्दू हो जाएँ? लाहौलविलाकुव्वत ये क्या कह रहे हो? अच्छा मान लो इस देश के सारे हिन्दू मुसलमान हो। जाएँ? सुभान अल्लाह, वाह वाह, क्या बात कही है। तो क्या दंगे रुक जाएँगे? ये तो सोचने की बात है-पाकिस्तान में शिया-सुन्नी एक-दूसरे की जान के दुश्मन हैं। तो क्या यार आदमी या कहो इनसान साला है ही ऐसा कि वो लड़ते ही रहना चाहता है? वैसे देखो तो जुम्मन और मैकू में बड़ी दोस्ती है। तो यार क्यों न हम मैकू और जुम्मन बन जाएँ? वाह क्या बात कह दी― मतलब-मतलब-मतलब― मैं सुबह-सुबह रेडियो के कान उमेठ रहा था। सफ़िया झाडू दे रही थी कि राजा का छोटा भाई अकरम भागता हुआ आया और फूलती हुई साँस को रोकने की नाकाम कोशिश करता हुआ बोला, "सैफ को पीएसी वाले मार रहे हैं। "
"क्या? क्या कह रहे हो?"
'सैफ को पीएसी वाले मार रहे हैं।" वह ठहरकर बोला।
"क्यों मार रहे हैं? क्या बात है? "
"पता नहीं— नुक्कड़ पर।"
"वहीं जहाँ पीएसी की चौकी है?"
"हाँ वहीं। "
"लेकिन क्यों?" मुझे मालूम था कि आठ बजे से दस बजे तक कर्फ्यू खुलने लगा है और सैफ को आठ बजे के क़रीब अम्मों ने दूध लेने भेजा था। सैफ जैसे पगले तक को मालूम था कि उसे जल्दी से जल्दी वापस आना है और अब तो दस बज गए थे।
"चलो, मैं चलता हूँ।" रेडियो से आती बेढंगी आवाज की फ़िक्र किए बगैर मैं तेजी से बाहर निकला। पागल को क्यों मार रहे हैं पीएसी वाले, उसने कौन-सा ऐसा जुर्म किया है? वह कर ही क्या सकता है? खुद ही इतना ख़ौफ़ज़दा रहता है, उसे मारने की क्या जरूरत है? फिर क्या वजह हो सकती है? पैसा? अरे उसे तो अम्माँ ने दो रुपए दिए थे। दो रुपए के लिए पीएसी वाले उसे क्यों मारेंगे?
नुक्कड़ पर मुख्य सड़क के बराबर कोठों पर मोहल्ले के कुछ लोग जमा थे। सामने सैफ़ पीएसी वालों के सामने खड़ा था। उसके सामने पीएसी के जवान थे। सैफु जोर-जोर से चीख रहा था, "मुझे तुम लोगों ने क्यों मारा― मैं हिन्दू हूँ-हिन्दू हूँ।"
मैं आगे बढ़ा। मुझे देखने के बाद भी सैफू रुका नहीं। वह कहता रहा, “हाँ-हाँ, मैं हिन्दू हूँ।" वह डगमगा रहा था। उसके होंठों के कोने से खून की एक बूँद निकलकर ठोड़ी पर ठहर गई थी।
"तुमने मुझे मारा कैसे—मैं हिन्दू हूँ।"
"सैफू—ये क्या हो रहा है—घर चलो।"
"मैं-मैं हिन्दू हूँ।"
मुझे बड़ी हैरत हुई– अरे क्या ये वही सैफ़ू है जो था- इसकी तो काया पलट गई है। ये इसे हो क्या गया? "सैफ़ू, होश में आओ।" मैंने उसे ज़ोर से डाँटा ।
मोहल्ले के दूसरे लोग पता नहीं किस पर अन्दर ही अन्दर दूर से हँस रहे थे। मुझे गुस्सा आया। साले ये नहीं समझते कि वह पागल है। "ये आपका कौन है?" एक पीएसी वाले ने मुझसे पूछा।
“मेरा भाई है–थोड़ी मेंटल प्रॉब्लम है इसे।"
"तो इसे घर ले जाओ।" एक सिपाही बोला।
"हमें पागल बना दिया।" दूसरे ने कहा।
"चलो-सैफ़ू घर चलो। कर्फ्यू लग गया है—कर्फ्यू-"
"नहीं जाऊँगा – मैं हिन्दू हूँ–हिन्दू–मुझे-मुझे— "
वह फूट-फूटकर रोने लगा।
मारा मुझे मारा– मुझे मारा– मैं हिन्दू हूँ मैं।" सैफ़ू धड़ाम-से जमीन पर गिरा। शायद बेहोश हो गया था।
अब उसे उठाकर ले जाना आसान था ।
असग़र वजाहत की 'प्रतिनिधि कहानियाँ' पुस्तक यहाँ से प्राप्त करें।