अब सोचने पर सब कितना अजीब और बेमतलब लगता है और पता नहीं कुछ हुआ भी था या...। अब उसे ऐसा लगने भी लगा है। यही कि वह कभी-कभी बातें सोच लेता है और समझता है वह सचमुच हुई हैं। वह उनको सच साबित करने के लिए लोगों से लड़ तक सकता है।
गौर किया जाए तो बात थी ऐसी कौन-सा अजूबा ? क्या दूसरे लोगों के साथ ऐसा कभी होता ही नहीं होगा ? ये जो इतने सारे लोग सड़कों पर सीने फुलाए फिरते हैं, क्या सब उतने ही मज़बूत और निडर हैं जितने नज़र आते हैं ? और उन सबके सीने ठोस हैं ? फिर क्या वह ख़ुद सड़क पर चलता हुआ इन लोगों से किसी तरह कमज़ोर नज़र आता है? लेकिन खुद अपने बारे में यह जानता है कि जब भी उसने जमीन को नापते हुए इस तरह क़दम उठाए हैं, जैसे उसके पीछे ज़मीन कालीन की तरह लिपटती जा रही है, तभी वह इतना कमज़ोर रहा है कि अगर कोई फूंक भी देता तो वह न केवल डगमगाता, उसी जगह ढेर हो जाता। लेकिन उसे लगता है, जिन्दगी में जो भी फ्रासले उसने ते किए हैं ये इन्हीं लम्हों में हैं। उलझकर भटक जाना इसकी आदत बन गई है। बात शुरू कहीं से होती है और फिर किन-किन चीज़ों की भीड़ में खो जाती है।
कल रात भी कुछ ऐसा ही हुआ था। उसे आठ बजे सिंह साहब के यहाँ पहुंचना था। उनके यहाँ किसी तरह की कोई पार्टी थी जैसी अक्सर होती रहती है। शहर के बड़े-बड़े लोग, सरकारी नौकर, नेता सबका मजमा रहता है। कभी मुशायरा, कभी गुजरा, कभी क़व्वाली, कभी बस यूँ ही। जब से सिंह साहब से उसकी भेंट हुई थी, चन्द मिनट बातचीत हुई थी, तब से ही - ही बाज़ ए मस्ट (उसका होना जरूरी था।) हर पार्टी में आने के लिए सिंह साहब ऑफ़िस में ही पर्सनली उसे फ़ोन पर इन्वाइट करते। जवाब ज़ाहिर है-यस सर, श्यौर सर, आई'ल बी इन टाइम, थैंक्यू सर वह सिंह साहब की आँखों का तारा था, और उन जैसे मर्तबे के आफ़ीसर की आँख का तारा होना कुछ मतलब रखता था।
घर से वह स्कूटर पर चला था। थोड़ी देर में स्कूटर रास्ते में एक अनजान मैकेनिक के यहाँ रख, स्वदेशी मशीनों को कोसता हुआ वह पैदल हो गया था। मौसम अच्छा था। हवा चल रही थी और आसमान में जिस तरह की रोशनी थी, उससे उसने अन्दाज़ा लगाया था कि पूर्णमासी का चाँद रहा होगा। आठ बजने में थोड़ी देर थी इसलिए वह पैदल ही चलता गया।
थोड़ी देर चलने के बाद वह उस लम्बी वीरान सड़क पर पहुँचा। जिस पर आगे सिंह साहब की कोठी थी। लम्बी वीरान सड़क, जाना-पहचाना सा अँधेरा और अँधेरे के कालेपन में आब-सी पैदा करती चाँदनी। सूखे पत्ते हवा के ज़ोर से सरसराते हुए उसके आगे निकले जा रहे थे। सड़क से दूर एक तरफ खोए-खोए-से मकान थे, दूसरी तरफ़ काफ़ी दूर पर घाटी के नीचे तालाब सब ठीक था और वह सिगरेट के कश खींचता हुआ आगे बढ़ा जा रहा था। किसी ख्याल के साथ वह एक सूने से वृक्ष के नीचे रुका-किसी के घर पहुँचकर फ़ौरन टॉयलेट की आवश्यकता!
तभी जाने क्या हुआ कि उसकी नज़रें अँधेरे में उभरते से पत्थर के उस टीले पर टिक गई। गुज़रे सालों में बेगिनती बार वह इस सड़क पर आया था और इस टीले के पास से ऐसे गुज़र गया था जैसे सड़क पर फैली दूसरी तमाम चीजें । उसने देखा-मोटे दरख़्त का केवल तना रह गया था। शाखें, पत्तियाँ कुछ भी चाँदनी को झेलने के लिए नहीं बची थीं। उसकी उँगलियों में जलती सिगरेट वैसे ही दबी रही।
― हाथी की क़बर, उसे याद आया यह हाथी की क़बर थी। और एकदम - वह छोटा हो गया। स्कूल से लंच ऑवर में वह और सुनील अपने खाने के डब्बे लेकर अक्सर यहाँ आ जाते थे। पत्थरों के चिकने तख़्ते, उन पर बिखरे दरख़्त के सूखे पत्ते और पत्थरों की दराज़ों में उगकर सूखी हुई घास। सुनील का लंच बॉक्स, बाइल्ड-ऐग्ज़....
उसके क़दम आप ही आप वोझिल हो गए। कुछ बात शायद कभी भी समझ में नहीं आतीं। या शायद एक बार न समझने पर हम कभी उन्हें समझने की कोशिश ही नहीं करना चाहते। मला हाथी की क़वर क्यों! और क़बर कहाँ, यह तो अच्छा-खासा मज़ार था! वह धीरे-धीरे क़दम उठा रहा था। एकदम उसके आस-पास का सब कुछ फिर से बदल गया। वह वापस फिर उसी सड़क पर आ गया, जिस पर थोड़ी देर पहले था। पुरानी बचपन वाली सड़क एकदम चौड़ी हो गई थी, वीराने में जगह-जगह मकान बन गए थे, पुराने मकानों को नए ढंग से बनाने की कोशिश की गई थी, तालाब उससे बहुत दूर चला गया था, चिड़ियाँ, फ़ाखताएँ, मैनाएँ उड़ गई थीं, दरख्त कट गए थे, ज़मीन की बेशुमार झाड़ियाँ और घास....कितनी बार उसने ख़ुद जलते देखी थीं। और धुआँ, दूर-दूर तक फैलता धुआँ।
फिर उसका दिल, एक बार इस बुरी तरह धड़का कि पल भर को उसके कदम रुक गए। उसे कभी-कभी लगता है वह हार्ट-अटैक से मरेगा, एक दिन इसी तरह! इस सड़क पर कुछ और आगे वह रहती है! उसके क़दम और भारी हो गए। उसे क्यों याद आ गया, एक पल उसने खुद पर झुंझलाने की कोशिश की।
और अब तो तुम्हारी बीवी है! बच्चे हैं! उसके भी तो हैं, उसने अनजाने ही ऊँची आवाज़ में ख़ुद से कहा, और फिर चौंककर अपने चारो तरफ देखा था।
― वह भी कितना ज़लील है ! एकदम शर्म उसके खून में मिलकर शरीर में दौड़ने लगी। कभी-कभी आदमी कितना गिर जाता है उसने कितनी बार रो-रोकर यह दुआ मांगी थी कि उसका पति....उसे कुछ हो जाए वह...! और फिर उसके बाद.... दुनिया का हर रास्ता उसे उस तक ही ले जाता था। यह दुआ उसने उसी वेबसी से मांगी थी जिसके साथ बचपन में वह गिरते पानी में धूप निकलने की दुआ माँगता था....डोर और माँझे की चरखी और पतंग थामे, काले बादलों से अटे आकाश की ओर देखते हुए जो थकन और हार का एहसास उसे होता था, वह धीरे-धीरे उन तमाम बीते सालों के ऊपर फैलता चला गया था।
― सब मूर्खता थी! कम उम्र, कम तजुरबा! उसने अपने आपको समझाया। और तभी अजीब तरह से डरते हुए, उसने सोचा कि वह दुआ, वह उसे पूरी तरह भूला नहीं है! आज भी वह उस दुआ को फिर से माँग सकता है। पता नहीं क्या है उसमें? आज भी राह चलते हुए अगर वह कभी उसे नज़र आ जाती है तो सब कुछ गड़बड़ होने लगता है, वह छुपने के लिए जगह ढूँढ़ने लगता है। फिर उसे ख़ुद पर ही गुस्सा आ जाता है। कुछ मिलाकर ऐसा नया क्या है?
उसने मायूस होकर सोचा। शायद हर आदमी की ही कोई एक ऐसी प्रेमिका होती है, जिसे वह हासिल नहीं कर पाता। मजबूरियाँ, दुःख, और फिर अजनबियों के बीच बैठकर वह उसकी बात करता है। या तब जब शराब पीने के बाद वह एकदम ख़ुद को बहादुर महसूस करने लगे। और ज़्यादातर यह औरत प्रेम करने वाले के दिमाग की पैदा की हुई होती है! एकदम पाक-साफ़, मुलायम या कठोर, दुःख-दर्द देने वाली। वह समझता है, अच्छी तरह जानता है कि यह सब जीवन से फ़रार ढूँढ़ने के तरीके हैं, लेकिन फिर भी! और तुम तो बेटा-उसने मन-ही-मन ख़ुद को डाँटा― तुम तो उन लोगों में भी नहीं फिट होते। तुम्हारा प्रेम तो आदर्श भी नहीं कहा जा सकता। तुम तो कितनी ही बार जब अपनी पत्नी के साथ होते हो, तब भी उसी की कल्पना करते हो!
अँधेरा उसी तरह फैला हुआ था। ज़मीन पर फैली हुई डामर की वह सड़क, जो चाँदनी से चमकदार नज़र आ रही थी, बहुत ही सुविधा के साथ एक से दो में बँट गई। दाईं तरफ़ थोड़ा-सा तिरछा होकर एक रास्ता मुड़ गया था, दूसरे पर घाटी उतरने के बाद तालाब था... आगे कुछ और चलकर उसका घर।
इस सड़क पर बीते वर्षों में वह कितनी ही बार आया था और दाहिने मुड़ गया था। दफ़्तर, सीनियर आफ़ीसर, सिंह साहब। कुछ लोगों को जाने, आप ही आप, हमसे कैसी हमदर्दी हो जाती है। क्यों कोई दूसरा आपके लिए आपके बड़ों से लड़े! आपके लिए ढाल बन जाए? सिंह साहब न होते तो वह खुद आज कहाँ होता?
वह एक आदत की तरह दाहिने मुड़ा था। कुछ क़दम चलता गया और फिर जाने क्या हुआ! जिस समय वह वापस मुड़ा, उसे सौ फ़ीसदी विश्वास है उसका दिमाग विल्कुल खाली था। अब सोचने पर लगता है जैसे...बस एक बेमतलब हरकत थी जो आप ही आप हो गई! वह वापस मुड़ा और घाटी उतरते-उतरते सिंह साहब को बिल्कुल भूल गया। दरख्तों की शाखों पर हवा में झूमते पत्तों की सरसराहट उसके कानों को फिर से एकदम साफ़ सुनाई देने लगी थी।
तालाब की लहरें सुनो! कभी उसने पूछा था, उससे! सुनो, कभी गौर किया है यह लहरें कहाँ से आती हैं...? ― तब भी चाँदनी थी, दरख्तों के पत्ते हवा में इसी तरह सरसरा रहे थे। वह हँसने लगी थी। शायद सचमुच उस पल वह मूर्ख लगा था आज भी ख़ुद उसका अपना सवाल उसके भीतर कहीं अटका है। बस सन्दर्भ सब बदल गए हैं, और अपने मूर्ख लगने के डर से अब वह यह सवाल किसी से कर भी नहीं पाएगा। लेकिन सवाल आज भी ज्यों-का-त्यों, वैसा ही है। सालों उसे याद नहीं आता। हो सकता है, आज के बाद उसकी मौत तक न याद आए, लेकिन वह मरेगा तो...।
कोई चीज़ उसे उसकी ओर खींचे लिए जा रही थी। उसे लग रहा था-नहीं, अभी सब कुछ नहीं बदला। वह आज भी बरामदे के जँगले पर झुकी उसका इन्तज़ार कर रही होगी। उसे प्यार करेगी। वह चाँदनी में इसी तालाब के किनारे घूमेंगे, बातें करेंगे। वह समय जो उसने उसके साथ बिताया है-और वह क्षण...शायद वह अगर थोड़ा और समझदार होता तो इतने पास आने के बाद तो कोई भी... और फिर सम्बन्ध तो सम्बन्ध होते हैं... उनकी हदें तो नहीं बनाई जा सकतीं...वह सारी बेवक़ूफ़ी ख़ुद उसकी अपनी थी... अगर उसे थोड़ा-सा तजुरबा होता तो... अगर अब...
उसके क़दम एकदम जैसे जम से गए। सामने उसका घर आ गया था! कम्पाउंड में एक जीप खड़ी थी उसे मालूम था, उसके पति की। कुछ क्षण वह वैसे ही खड़ा रहा।
― शहर चलोगे? ― सामने से आता ऑटो-रिक्शा उसके पास रुका और ड्राइवर ने पूछा। उसने झल्लाकर इनकार किया था। हवा की तेज़ी कम हो गई थी, पत्तों की सरसराहट लगभग गायब । उसने देखा, आकाश पर एक बड़ा-सा बादलों का घेरा चाँद की ओर बढ़ रहा था। थोड़ी देर में अँधेरा हो जाएगा।
उसने घड़ी की ओर देखा-आठ पैंतीस अब भी वह अगर तेज़ी करे तो सिंह साहब की पार्टी अटेंड कर सकता है।
दूसरे ही पल वह घाटी चढ़कर सिंह साहब के घर की ओर वापस जा रहा था।
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