आज नैना पार्क के दो ही चक्कर लगा पाई, उसे जैसे चक्कर-सा आने लगा। कचनार, बादाम के पेड़ के नीचे कोने वाली बेंच पर बैठ गई। अपनी हथेलियों से सिर को उसने कस के पकड़ लिया। आँखों के आगे अँधेरा-सा छाने लगा। आँखों में काले बादल उतर आए और बरसने भी लगे। थोड़ी देर यूँ ही बैठी रही, पर अचानक उसे एहसास हुआ जैसे उसे कोई देख रहा है। नैना अपने को सँभालती हुई बैग से टिशू पेपर निकालती है, मोबाइल हाथ में लेकर भरे हुए पुराने मैसेज डिलीट करने लगती है, नैना को एहसास हुआ कि जिस सीट पर नैना बैठी है, उसी के कोने पर वह अजनबी भी आ बैठा है। नैना को खीज हुई। ‘इसे और कोई जगह नहीं मिली।’ वो अपने मन के भीतर के दलदल में धँसी जा रही थी जहाँ उसे समझने वाला कोई नहीं था। उसे अकेले बैठने में जो आराम और सुकून मिल रहा था, उस व्यक्ति के बैठते ही वो खत्म हो गया।
उसे अकसर अपनी जिन्दगी एक बियाबान-सी लगती है, ऐसा बियाबान जहाँ दूर-दूर तक कोई व्यक्ति नहीं, सूखे बरगद, बाँस के ठूँठ जैसे पेड़, कँटीली झाड़ियाँ ही हैं, उस जंगल में जंगली फूल भी है, लेकिन उसमें खुशबू नहीं है, खुशबू नहीं तो जिन्दगी नीरस है। सब फूल मुरझाए हुए से लगते हैं। इससे पहले कि वह अजनबी नैना से कुछ पूछे, वह अपनी जगह से उठ जाती है और धीमे कदमों से पार्क के गेट के बाहर निकल जाती है। उसे लगता है दो आँखें उसका पीछा कर रही हैं।
अगले दिन नैना जैसे ही पार्क में दाखिल होती है, वही अजनबी व्यक्ति सामने दिख जाता है और वह ऐसी प्रतिक्रिया देता है जैसे वह नैना का इन्तजार ही कर रहा हो। वही जाना-पहचाना चेहरा। वह पिछली सुबह की तरह फिर नैना को देख रहा है। देख क्या रहा है, जैसे उसकी आँखों में कुछ पढ़ रहा हो। नैना को महसूस होता है, जैसे वह उसी का इन्तजार कर रहा हो। नैना उसे खुद को देखता पाकर दूसरी तरफ नजरें फेर लेती है। और उलटी दिशा में चलना शुरू करती है। उसे इग्नोर करने के लिए जल्दी से कानों में ईयर फोन ठूँस लेती है। जल्दी-जल्दी टहलने लगती है, उसके कदम आगे की ओर बढ़ रहे हैं लेकिन उसका मन पीछे लौट रहा है। उस अजनबी आँखों की ओर मन उलझ-सा गया। सवालों की बाढ़-सी आ रही है मन में कि आखिर यह व्यक्ति ऐसी अजीब निगाहों से देखता हुआ मेरा पीछा क्यों कर रहा है?
“एक्सक्यूज मी मैं डॉक्टर फजल, तुम्हारा नाम?”
इस सवाल का जवाब न देना चाहते हुए भी नैना के होंठों से निकल गया।
“नैना, क्यों क्या हुआ?”
“नहीं, हुआ तो कुछ नहीं, अगर तुम चाहो तो बहुत कुछ हो सकता है।”
“मतलब?”
“मतलब यह कि तुम डिप्रेशन से परेशान लगती हो। मैं तुम्हें बेचैन देख रहा हूँ, ये डिप्रेशन के लक्षण हैं। मैं एक मनोचिकित्सक हूँ। यानी साइकियाट्रिस्ट। आज काफी देरी हुई तुम्हें आने में।”
नैना न चाहते हुए भी कह उठती हैं, “कमाल है, मैं आपकी किसी बात का जवाब नहीं देना चाह रही हूँ। आप हैं कि फिर भी पीछे पड़े हैं। आपको अपनी उम्र का खयाल नहीं है।”
“इसलिए तो तुम्हारी फिक्र कर रहा हूँ। तुम डिप्रेशन की शिकार हो।”
“आप अपनी डॉक्टरी अपने पास रखें।”
“वह तो मैं अपने पास ही रख लूँगा, मैं चाहता हूँ तुम्हें भी थोड़ी दे दूँ ताकि तुम्हारा भला हो जाए।”
“लगता है समाज सेवा का बीड़ा आपने उठा रखा है।”
“ऐसे ही तुम जैसे लोगों के लिए। पति से झगड़ा, मिसकैरिज, दोस्तों से अनबन, दफ्तर में टेंशन, दफ्तर में काम करती हो या हाउस-वाइफ हो? कई बार ऐसा भी होता है कि स्त्रियाँ काम करना चाहती हैं, पर उन्हें करने नहीं दिया जाता। घरेलू जिम्मेदारियों की चक्की के तहत वह खुद को पीसती रहती हैं। यह भी डिप्रेशन का बहुत बड़ा कारण है।”
“एक मिनट...डॉक्टर साहब। आप काफी स्मार्ट दिखते हैं।”
“और गुस्सा आता है। सब कुछ कर लेने की तमन्ना लेकिन कुछ न कर पाना। आगे बढ़कर अपना नाम रोशन करने की बलवती इच्छा। यह भी डिप्रेशन का कारण है।”
नैना उस अजनबी की बातों से खीज रही थी, पर कहीं हौले-से उसका मन उस अजनबी मनोचिकित्सक की ओर आकृष्ट भी हो रहा था। अचानक डर-सा लगा कहीं इसने ‘हिप्नोटिज्म’ तो नहीं कर दिया। लोग ‘हिप्नोटाइज’ करके अपनी मनचाही बातें लोगों से उगलवा लेते हैं, उन्हें अपने वश में कर लेते हैं। उसने ऐसा अखबारों में बहुत पढ़ा है। वरना इस व्यक्ति को मेरे बारे में इतनी जानकारी कैसे मिली।
“एक्सक्यूज मी,” कहती हुई नैना धीरे-धीरे लॉन की ओर चली गई। वो जब बेचैन होती है, तो पेड़ों के झुरमुट में बने इस घास पर आकर पैर फैलाकर गुमसुम-सी बैठ जाती है। बोगनवेलिया, रातरानी, चमेली, हरसिंगार, कचनार, सारे फूल बैठी-बैठी देखती रहती है। पौधों की पत्तियों से धूप के बिखरे-बिखरे टुकड़े छन-छन कर नैना के चेहरे पर चमकते रहे थे। जैसे कोई दूर से आईना चमका रहा हो।
कभी-कभी नैना सूरज की किरणों के सामने अपनी आँखें मूँदकर बैठ जाती है। कभी अपलक दुनिया की गतिविधियों को देखती रहती है। असल में वह आँखों से सब कुछ देखते हुए भी कुछ भी नहीं देख रही होती। वह अपने मन की खोह में गहरी चोट खाई-सी गिरी रहती है। जब वह अकेलेपन की खोह से बाहर आती है, तो उसे सिर्फ एक बात सुहाती है। पार्क में चारों तरफ लगे स्पीकर्स से छन-छन कर आते पुराने गानों के कुछ इंस्ट्रूमेंटल-ट्यून्स। कोई पुराना भूला-बिसरा गाना। जिसे सुनकर वो कुछ पल खुद को भूलकर साथ-साथ गुनगुनाती है।
अंकित टीवी सीरियल्स के लिए कहानी के ‘प्लॉट’ बुनता है। कहानी में मनोविज्ञान को स्क्रीन-प्ले में ढालता है, जब वह लिखता होगा, जाहिर है उन मनोभावों को जीता होगा, उनसे गुजरता होगा। लेकिन लिखते वक्त वह उस मनोविज्ञान का कारोबार करता है। नैना के जज्बात को कभी क्यों नहीं समझ पाता। शायद समझ लेगा तो उसका बना-बनाया ‘होम-स्वीट-होम’ का सपना ढह जाएगा। उसके होने वाले बच्चे की परवरिश कौन करेगा? वो बच्चा, जो कि अभी धरती पर आया ही नहीं। नैना के मन में भी कहीं ख्वाहिशों के अंकुर फूट पड़े और बच्चा पालने के परे कुछ अलग करने की ख्वाहिश परवान चढ़ गई। उसके मन की बगिया में भी फल-फूल लग गए तो फिर उसका घर कौन सँभालेगा? अंकित चाहता है उसकी प्रोफेशनल दुनिया भी सुनहरी हो और घर आए तो सजी-सँवरी एक अदद पत्नी चाय की ट्रे के साथ मौजूद रहे। नैना को वह एक खूबसूरत यंत्र की तरह इस्तेमाल करना चाहता है। बन्द आँखों को जोर से मिचमिचाकर खोला तो देखा डॉक्टर फजल सामने बैठे हैं। नैना को थोड़ा गुस्सा आया, पर आँखों में उतर आए बादल डॉक्टर फजल की आत्मीयता से सूखे पत्ते की तरह उड़ गए। उस रोज नैना को डॉक्टर फजल बड़े अपने-से लगे।
जॉगर्स पार्क में डॉ. फजल अब नैना को अक्सर ही मिलने लगे, यहाँ तक कि नैना सुबह का अलार्म लगा लेती और डॉक्टर फजल के आने से पहले ही पार्क में उपस्थित हो जाती, निगाहें घड़ी के इर्द-गिर्द होतीं। दरअसल अपने हालात से परेशान होकर टूट जाने वाला कायर कहलाता है, नैना जिन्दगी से हारना नहीं चाहती बल्कि जिन्दगी को बदलना चाहती है, हालात से समझौता करके अपने सपनों को कुचलने से बचाना चाहती है।
चन्द दिनों में डॉक्टर फजल नैना के इतने करीबी हो गए, जैसे जन्म-जन्म का नाता हो उनसे। नैना उस रोज तेज-तेज कदमों से पार्क में घने पेड़ों की ओर चली जा रही थी, पीछे से डॉक्टर फजल की आवाज सुनकर मुड़कर देखा लेकिन उस पार्क में बीच से उलटकर लौटा नहीं जा सकता। अगर आप बीच से उलटा लौटे तो केयर-टेकर आपको सीटी बजाकर टोक देता है। जिन्दगी में भी हम पीछे लौट नहीं पाते सिर्फ आगे की ओर ही बढ़ना होता है।
उस दिन सुबह से ही नैना के सिर में भयंकर दर्द हो रहा था, जॉगर्स पार्क का जैसे-तैसे एक चक्कर लगाकर नैना बेंच पर बैठकर फेसबुक के इन-बॉक्स और व्हाट्सएप के कुछ मैसेजेस डिलीट करने लगी। शादी के शुरुआती दिनों में भेजे गए अंकित के कुछ सन्देश भी व्हाट्सएप में पड़े थे। कुछ बेहद रूमानी तस्वीरें नैना को मुँह चिढ़ाने लगीं। जाने क्या हुआ उसे कि जल्दी-जल्दी वह सारे मैसेजेस और तस्वीरें डिलीट करने लगी। ‘इस दिखावे से तो अच्छा है कि कोई सन्देश न भेजे जाएँ। क्या जो लोग इन-बॉक्स या व्हाट्सएप पर मैसेज नहीं भेजते वह अपनी पत्नी से प्यार नहीं करते, शायद ज्यादा करते हैं।’ तमाम मैसेज डिलीट करते हुए नैना ने मोबाइल की स्क्रीन ऑफ करके उसे बेंच पर रख दिया।
“मैसेज डिलीट कर देने से न जिन्दगी डिलीट होती है, न जिन्दगी में घटी घटनाएँ। मोबाइल से बातें डिलीट कर दोगी, किन्तु दिल के डेटा का क्या करोगी? उसे कैसे हटाओगी? अपने जज्बात से लड़ना सीखो, अपने मन की बातों को सुनो। क्या तुम सच में भूल पाती हो अंकित की बातें? क्या तुम्हें उसकी फिक्र नहीं होती?” डॉक्टर फजल ने बेंच के कोने में बैठते हुए बोला।
“आपकी यही आदत बुरी लगती है। हर वक्त आप नसीहत की पोटली लिये तैनात रहते हैं।” रोष से भरी थी नैना।
“दरअसल समस्या तुम्हारी इतनी बड़ी नहीं है, तुम्हारे मन का कैनवस बहुत बड़ा है और बहुत कमजोर। इसीलिए तुम छोटी-छोटी बातों को ज्यादा तूल देती हो। जिसके बारे में ज्यादा सोचा जाए, वह बात उतनी ही तकलीफ देती है।”
“डॉक्टर, आप मुझे कितना जानते हैं, जो इतने फलसफे मुझे बता रहे हैं!”
“अब जैसे उस शाम अंकित पार्टी में नहीं पहुँच पाया, तो इसका मतलब वह तुम्हारी केयर नहीं करता, हो सकता है उसकी कोई मजबूरी हो। जिस फील्ड में वह काम करता है, वहाँ तो इस तरह की बात बहुत कॉमन है। अच्छा छोड़ो यह सब, यह देखो मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूँ। तुम्हें पसन्द हैं न गुलाब जामुन और मेथी के पराँठे।”
“आपकी वाइफ ने बनाए होंगे।”
“हाँ, हम दोनों ने मिलकर।”
नैना के तने हुए चेहरे पर थोड़ी नरमी आ गई। “आप लोग रोज साथ में लंच और डिनर करते हैं। अक्सर ही साथ-साथ घूमने जाते होंगे? आपने एक तस्वीर भी तो दिखाई थी मुझे। आप दोनों का जब कभी झगड़ा होता है तो कौन किसको मनाता है? आप उनका बहुत खयाल रखते होंगे, है न?”
‘ये देखो, गुलाब जामुन पर चाँदी का वर्क। इसे हटाकर खाना। ये सिर्फ सजावट है, इस चमक में मिठास नहीं होती। वह देखो वह पेड़ उसकी पत्तियाँ सुर्ख नारंगी लग रही हैं। दो पंछी एक साथ बैठे हैं, कितना भला-भला-सा लग रहा है उन्हें देखकर।” डॉक्टर फजल ने बातों के तार को मोड़ते हुए कहा।
जॉगर्स पार्क से थोड़ी ही दूर क्यारियों के पीछे कुछ बेंच है, जहाँ कुछ लोग बैठे मेडिटेशन कर रहे हैं। उनके चेहरों की शान्ति और होंठों के गोलाई से लग रहा है कि वह ऊँ-ऊँ कहते हुए अपने मन को साध रहे हैं। कुछ लोग टहलकर, थककर पसीना सुखा रहे हैं। कुछ आपस में बतिया रहे हैं। लाफ्टर-क्लब के कुछ बूढ़े ताली बजा-बजा कर हँस रहे हैं। ऐसा वो रोज करते हैं। शायद हँसी-हँसी में अपने दर्द को बाहर निकाल देते हैं। वहीं एक वृद्ध जोड़ा बैठा कुछ गा रहा है। वृद्ध ने वृद्धा के कंधे पर हाथ रखा और धीरे-से कुछ कहा। औरत के गालों पर सेब-सी ललाई फैल गई। धूप में उसका ताँबई रंग खिल उठा। नैना छपाक्-से जा पहुँची यूनिवर्सिटी के उन दिनों में। फ्री पीरियड में अंग्रेजी विभाग के सामने गोला बनाकर सहेलियों के साथ बैठी थी। नैना के ग्रुप की लड़कियाँ बड़ी शरारती थीं। हमेशा हँसती रहतीं। जोर-जोर से ठहाके लगातीं। अचानक एक लाल डंठल गुलाब उसके ऊपर आ गिरा। सहेलियों ने खूब मजाक बनाया। और वह सिरफिरा लड़का नैना के पीछे ही पड़ गया, जिसने वह फूल फेंका था। बात घर तक पहुँची। घरवालों ने बजाय नैना की बात समझने के हाथ आए एक खूबसूरत कमाऊ नौजवान से चटपट उसका ब्याह कर दिया। वही नौजवान अंकित अब उसका पति है। वो गुलाब वाला नौजवान मजनूँ बना घूमता रह गया।
नैना की ख्वाहिशों का गला घोंट दिया गया। वह पढ़ाई पूरी करके करियर बनाना चाहती थी, लेकिन ख्वाहिशें इतनी आसानी से रौंदी नहीं जा सकती हैं। हवा का झोंका मिलते ही पंख लगाकर आसमान में उड़ चलती हैं। नैना ने आरजू के पंख लगाकर जब-जब आसमान में उड़ना चाहा, तब-तब अंकित की आवाज मोहब्बत की चाशनी में भीग गई, ऐसा लगा मोहब्बत की इस दुनिया से बेहतर कोई और दुनिया नहीं।
‘घर में नन्ही किलकारी गूँजेगी, तो हम दोनों के सुर नया राग गाएँगे। हम दोनों नहीं बल्कि हम तीनों खुशियों के सागर में डूब जाएँगे।’ कहते हुए अंकित ने नैना के बालों में उँगली फिरा दी। उसके बाल हवा में उड़ गए। शायद उस रोज नैना के ख्वाबों का महल भी धीरे से उड़ गया था। लेकिन ख्वाब कहाँ उड़ते हैं, वो फिर वापस लौटकर मन पर कब्जा कर लेते हैं और ख्वाबों का बनना-बिगड़ना जारी रहता है।
अंकित की बातों के तिलिस्म ने नैना के अरमानों को गृहस्थी की अलमारी में बन्द कर दिया। उस अलमारी में उपलब्धियों का भंडार है। नई-नई इच्छाओं का छतनार पेड़ है, जिसके तले नैना अपनी पूरी जिन्दगी गुजार सकती है लेकिन ‘वह’ नहीं है जिसकी चाहत नैना को है। नैना के उन पौधों में, छतनार पेड़ में बहार तो आती है लेकिन फूल नहीं खिलते। बारिशों का पानी उसे गुदगुदाता नहीं। नैना के बी.टेक. का आखिरी साल था। वह पूरा करके किसी अच्छी जगह जॉब करना चाहती थी। लेकिन अंकित के दिखाए सब्ज-बाग ने उसके मन के कोंपल को सुखा डाला। उसके भीतर अंकुर फूटा लेकिन वह अपने अरमानों को जल्दी ही भूलने लगी। अपने पेट में आकार ले रहे फूल के साथ ही वह मुस्कराना सीख गई। वक्त ने जल्द ही करवट ली। एक दिन वह फूल भी मुरझा गया। पाँचवें महीने में मिस-कैरिज...उसके दिल की परतों में दबी टीस और ज्यादा उभर आई। वो टूटकर सूखा तना बन गई। उदासी और हताशा से बाहर आए, इससे पहले ही अंकित उसके सामने प्यार की नई गठरी लिये खड़ा था।
“कोई बात नहीं, कई औरतों के साथ ऐसा होता है, हम अगली कोशिश करेंगे।” नैना सोच में पड़ गई। सामने अंकित के प्यार का अथाह सागर, उसके भीतर इच्छाओं का हवामहल, किधर जाए वह। वो घबराने लगी, विकल होने लगी, स्त्री होने का एहसास उस पर और ज्यादा हावी होने लगा।
कॉलेज के दिनों में अगर एक लड़के ने फूल फेंका तो इसमें नैना का क्या कसूर? वह अपने आप से ही सवाल पूछ रही है दरअसल हर स्त्री इस तरह के सवालों से रोज जूझती है। बचपन से उसे इतिहास पढ़ने का शौक था। एकेडमिक जॉब करने की चाहना थी। लेकिन उस एक घटना ने उसे जिम्मेदारियों के घेरे में कैद कर दिया। वह बाहर आना चाहती है, लेकिन संस्कारों की जंजीर से जकड़ी हुई है।
दिन में अकेले बैठकर शून्य में ताकना और अंकित के सामने आँखों में नदी भरकर होंठों पर मुस्कराहट के गुलाब सजाना, यही उसका मुकद्दर बन गया।
दिन में वह बगावत की पीठिका बनाती लेकिन शाम-रात अंकित के आते ही उसकी अपनी नकली मुस्कराहट ही असली लगने लगती। यह उसके भीतर का ऊहापोह था। रोज की तरह आज भी वह सुबह-सुबह ट्रैक सूट और वॉकिंग शूज पहनकर निकल पड़ी पार्क की ओर। आज डॉक्टर फजल से खूब सारी बातें करना चाह रही थी। रोज की तुलना में आज उसका मन कुछ हल्का था। चिन्ता की लकीरें उसकी आँखों में कम थीं। गेट से घुसते ही वह तेज-तेज कदमों से उसी तरफ चली जा रही थी, जहाँ से अक्सर डॉक्टर फजल उसे आते हुए मिलते। जॉगर्स पार्क का चक्कर लगाते हुए फव्वारे वाला दोराहा निकल गया। बैडमिंटन के नेट वाला बड़ा-सा मैदान भी पीछे छूट गया। तीन-चार चक्कर लगाने के बाद उसे थकान-सी महसूस होने लगी। जहाँ डॉक्टर फजल और नैना बैठते हैं, उसी सीट पर जाकर आराम से पैर फैलाकर बैठ गई और इन्तजार करने लगी डॉक्टर फजल का।
डॉक्टर फजल उसे कहीं नजर नहीं आए। पौधों को पार कर धूप ने खुले मैदान पर अपना कब्जा कर लिया और हरी घास पर ठहरी ओस की बूँदें कहीं गायब हो गईं। पार्क में अब इक्का-दुक्का लोग ही बचे थे। हवा गरम लगने लगी, नैना ने घड़ी की ओर देखा ‘लगता है आज डॉक्टर फजल को हॉस्पिटल जल्दी जाना रहा होगा, इसलिए वे न आए हों, सोचते हुए पार्क से बाहर हो गई। अगले दिन सुबह इस उम्मीद में कि डॉक्टर फजल से शिकायत करेगी कि वे कल नहीं आए और न ही कोई सूचना दी। यह सोचते हुए नैना पार्क में दाखिल हुई और रोज की तरह उसने जॉगर्स पार्क का चक्कर लगाना शुरू कर दिया। थोड़ी देर आँखें मूँदकर बैठी रही। आँखें बन्द थीं लेकिन बन्द आँखों से डॉक्टर फजल का रास्ता देख रही थी। पर आज भी डॉक्टर फजल नहीं आए। डॉक्टर फजल से सुबह-सुबह मिलना, उनसे बातें करना, उनकी बातें सुनना अब नैना की आदत ही नहीं, बल्कि दिनचर्या का एक हिस्सा बन चुकी थी। आज जॉगर्स पार्क के गेट की ओर देखते-देखते वो निराश हो गई। यही एक शख्स है जिनसे वह दिल खोलकर बातें करती है, उन्होंने भी पार्क में आना बन्द कर दिया। अब वह किससे अपने मन की बातें करे, सोचते हुए भारी कदमों से पार्क से बाहर निकल गई।
घर पहुँचकर नैना ने सबसे पहले डॉक्टर फजल को फोन मिलाया। उधर से कोई रिस्पांस नहीं मिला। उसने मैसेज किए, कोई प्रत्युत्तर नहीं आया। इसी तरह कई दिन बीत गए। डॉक्टर फजल की ओर से न कोई फोन आया, न कोई सन्देश। अब नैना के मन की घबराहट तेज होने लगी। ऐसा क्या हो गया, जो डॉक्टर फजल बिना बताए गायब हो गए हैं। कहीं उनकी सेहत तो नहीं खराब है, लेकिन उनका फोन उनकी पत्नी तो उठा सकती हैं। एक बार डाॅ. फजल ने जिक्र किया था कि उनका बेटा कैलिफोर्निया में रहता है। बेटी के बारे में न उन्होंने बताया, न नैना ने कभी पूछा।
नैना की आँखों के सामने डॉ. फजल के मोबाइल की गैलरी सचित्र ठहर गई है। मनाली की अनगिनत तस्वीरें थीं, जिन्हें देखते हुए नैना खुद मनाली की सैर पर निकल गई थी। फिर हौले-से उसकी आँखों में दर्द की लकीर-सी कौंधी थी कि शादी के बाद वो अपना शहर छोड़ के कहीं घूमने ही नहीं गई। डॉ. फजल की दोस्ती ने उसके अवसाद को कम कर दिया है। जिस व्यक्ति ने कई बरस बाद मुस्कराना सिखा दिया हो, उसका अचानक अपनी दुनिया से गायब हो जाना उसके लिए फिक्र की बात तो है न।
नैना ने कैब बुक किया, ‘कहीं आज अंकित घर जल्दी न आ धमकें’ इस खयाल पर धूल डालते हुए उसने अपना पर्स उठाया और मोबाइल से पता पढ़ती हुई कमरे से बाहर हो गई।
डॉ. फजल का घर खोजना उनके मिजाज की तरह सरल न था। ईंटों की क्यारियों और फूलों से सजा बँगलानुमा पुराने डिजाइन का घर था। हरसिंगार के पेड़ को दरवाजे की शेप में तराश कर दरवाजानुमा बनाया गया था, उस दरवाजे के बाद एक दरवाजा और था जिस पर सन्नाटे का ताला लटक रहा था। पर नैना ने फिर भी बेल का बटन दबा दिया।
“कौन?”
नैना की आँखें हैरानगी से उस आवाज को खोजने लगीं। हलके हाथ से धकेलने पर ही दरवाजा खुल गया। कमरे में सन्नाटे की रुनझुन सुनाई दे रही थी, जैसे बारिश की रात में झींगुरों की आवाज। दरअसल रात के झींगुरों का ये गान सुरीला नहीं बल्कि डरावना, बल्कि कहें कि उदास लगता है। ड्राइंग रूम पार करते हुए नैना सीधे बरामदे से होती हुई उस कमरे की तरफ देखकर ठिठक गई, जिसमें परदा हिल रहा था। शायद फैन चलने की वजह से। इसका मतलब इस कमरे में कोई है। अजीब-सा घर है। इनसान की आवाज की बजाय सिर्फ सन्नाटे और उदासी का स्वर घुला-मिला है। दीवारों के पीले रंग-रोगन से उदासी झर-झर कर बिखरी है। आखिरकार साहस करके नैना ने परदा सरकाया। अधखुले दरवाजे को धकेलती अन्दर दाखिल हो गई। फिर मद्धम-सी आवाज आई, “कौन? सुनीता?” रजाई से अपना चेहरा बाहर निकालते हुए डाॅ. फजल बोले थे। दस मिनट की इस अवधि में नैना को ये पहली आवाज सुनने को मिली थी।
“अरे तुम, कैसे आईं यहाँ तक कोई दिक्कत तो नहीं हुई?” कराहते हुए
डॉ. फजल बोले थे। उनके इन दो वाक्यों में उनकी अथाह पीड़ा समाई हुई थी। नैना उनकी कराह के पीछे छुपी आवाज को सुनने को व्याकुल हो गई। उसकी निगाहें कुछ खोज रही थीं। वह कुछ पूछना चाह रही थी लेकिन शब्द...शब्द मुँह तक नहीं आ रहे थे।
डॉ. की पत्नी इन्हें इस हाल में छोड़कर कहाँ गई होंगी भला? हो सकता है किसी जरूरी काम से गई हों, आती ही होंगी, बच्चे भी कहीं नजर नहीं आ रहे, खैर, खुद के सवालों से निजात पाने की गरज से उसने पूछा, “किस डॉक्टर का इलाज चल रहा है?”
“...”
तभी डॉ. फजल को तेज खाँसी आई। देखा तो जग खाली पड़ा था। नैना पानी लेने अन्दाजे से रसोईघर की ओर भागी, जहाँ बर्तन बेतरतीब रखे थे। कई दिन से जैसे खाना न बना हो। दीवार पर चिपकी एक छिपकली आहट पाकर रसोई के दूसरे कोने पर भागी। पानी लेकर रसोईघर से कमरे में आई तो देखा डॉ. फजल बिस्तर से उठकर सोफे पर बैठ चुके थे। सामने की कुर्सी पर बैठते हुए नैना ने एक सवालिया निगाह चारों ओर डाली।
“इससे पहले कि तुम सवालों की झड़ी लगाओ, मैं तुम्हें खुद ही बताना चाहता हूँ। कई बरस पहले पत्नी मुझे छोड़कर बेटे के साथ विदेश चली गई। जब थी तब भी मेरे लिए उसका होना, न होना बराबर था। उसकी अपनी अलग ही एक दुनिया थी जिसमें मैं बिलकुल मिसफिट था, उसे आजादी चाहिए थी। अपना जीवन खुद जीने का हक। इसलिए हम दोनों ने एक-दूसरे को आजाद किया। अब उससे हमारा कोई कागजी रिश्ता नहीं बचा है। हाँ, बेटी ससुराल से कभी-कभार मिलने चली आती है।”
“पर आप रोज अपनी पत्नी का जिक्र करते थे?”
“मैं कहाँ करता था, तुम्हीं बार-बार उसका नाम लेती थीं।”
नैना की आँखों के सामने वो दृश्य कौंध गया, जब गुलाब जामुन और मेथी के पराँठे डॉ. फजल लेकर आए थे। नैना पूछती रही—‘किसने बनाए?’ इस प्रश्न को टालते हुए कोई और बात उन्होंने शुरू कर दी थी।
ऐसा कई बार उन्होंने किया था। पर नैना ने इस पर गौर नहीं किया। डॉ. फजल की इस बात से नैना की आँखों और मन में अंधड़-सा शुरू हो गया। सवालों का सैलाब आ गया कि ऐसा क्यों, कैसे हुआ। उसे अपने जीवन की, अंकित से जुड़ी तमाम घटनाएँ याद आने लगीं। सन्नाटे की आवाज अब और तेज हो गई थी। झींगुरों का गान, उदासी और रुदन में तब्दील हो गया।
“मुझे किसी बड़ी बीमारी ने आ घेरा है, मेरा सफर कब तक है, कुछ पता नहीं।”
नैना की आँखें शून्य में ताक रही थीं। उसे डिप्रेशन ने फिर आ घेरा।
डॉ. फजल की आँखों में बादल उमड़ आए थे। कमरे में नैना के बिलख-बिलख कर रोने की आवाज बिखर गई थी।