ब्लॉग के इस अंक में पढ़ें, ममता कालिया की किताब 'कितने शहरों में कितनी बार' का अंश 'फिर वही शहर: इलाहाबाद'। इसमें उन्होंने अपने इलाहाबाद के दिनों को याद किया है।
शहर कब किसके हुए हैं, शहरयार तक के नहीं। तभी न उनके दिल से निकली थी यह नज्म ‘इस शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यूँ है?’ उन्हें क्या पता हर शहर में हर शख्स परेशान ही रहता आया है।
कितने वक्त में कोई शहर हमारा बन पाता है। हम अपने बंजारे मन से पूछते हैं। यह मन तो मानो उतावला हुआ पड़ा है कि कब हम इस पर अपनी गठरी-मोटरी लादें और यह दौड़ पड़े। लेकिन हम मन को अपनी मजबूरियाँ समझाते रहे, खुक्ख पड़ी बैंक की पासबुक दिखाते रहे और धीरज धरवाते रहे। लेखन जगत की च्वूइंगगम और चाॅकलेट उसे चटाते रहे। आज फलाँ जगह की अध्यक्षता, फलाँ जगह की मुख्य अतिथिगिरी। अरे लगा लो दिल। ऐसी गर्मियाँ और कहाँ मिलेंगी! लेकिन तीन घटनाएँ ऐसी हो गईं कि मूढ़-से-मूढ़ मनुष्य भी डोल जाता। अपना लोटा-डोर समेटकर बोल पड़ता, ‘रहना नहिं देस बिराना है।’
1988 की बात है। जैसे इलाहाबाद में हर चार साल में दंगे भड़कते थे वैसे या उससे ज़्यादा मेरी माँ की तबीयत खराब हुआ करती। अभी वे चोपला पर चाट खा रही हैं, अभी खबर आती वे तो मोहननगर के नरेन्द्र मोहन हाॅस्पिटल के सघन चिकित्सा कक्ष में दाखिल हैं। उनकी बीमारियाँ हिन्दी फिल्मों की नाटकीयता लिए आतीं और बांग्ला फिल्मों की मन्थरता लिए विदा होतीं। इलाहाबाद में सन् 1988 में साम्प्रदायिक दंगे उबाल पर थे। गाजियाबाद से खबर आई माँ बीमार हैं। संक्षिप्त सी सूचना थी, किसी तीसरे आदमी के मुँह से दी गई। पर मैं कैसे इसे झूठ मानती जबकि मेरा कलेजा हर समय कलपता था अपने एकाकी माँ-बाप के लिए। परिवार में तय हुआ कि बिना एक भी दिन गँवाए, ममता को आज ही चले जाना चाहिए। उस वक्त शहर से निकलना उतना ही जटिल था जितना शहर में घुसना। दिन का कर्फ्यू, पी.ए.सी. की हथियारबन्द गश्त, स्टेशन जाने को न वाहन न साधन। ऐसे में मैं घर की खिड़की से झाँक रही थी कि बगल के पड़ोसी ने पूछा, ‘‘क्या बात है?’’
‘‘स्टेशन जाना है, कोई पुलिसवाला दिखे तो कोतवाली से पास बनवा लूँ।’’ मैंने बताया।
अनीस अहमद ने सुना, कुछ कहा नहीं। थोड़ी देर में उनकी खिड़की से एक कैंची वाला हाथ बाहर बढ़ा जिसने बाहर के खम्भे से हमारे टेलीफोन का तार काट दिया। मैं भागकर फोन के पास गई। उठाकर देखा, ठंडा और ठप्प पड़ा था। संचार का एकमात्रा साधन संकट काल में छिन गया। रानीमंडी में अपनी अल्पसंख्यक स्थिति पर पहली बार चिन्ता करनी पड़ी। मुझे लगा जैसे यह सिर्फ टेलीफोन का तार नहीं, परस्पर विश्वास और सद्भाव का तार किसी ने काट डाला है। यह शहर में फैले तनाव का परिचायक था। दंगे के दिनों में रानीमंडी के बाशिन्दे समझते थे कि हम सब पुलिस के मुखबिर हैं। मैंने रवि से कहा, ‘‘ऐसे हालात में कैसे चली जाऊँ, तुम बच्चों और झाईजी को अकेले सँभाल लोगे?’’ रवि ने कहा, ‘‘तुम रुक भी तो नहीं सकतीं, यहाँ की फिक्र मेरे ऊपर छोड़ो, दंगे थम भी सकते हैं।’’ गली-गली लुकते-छिपते हम किसी तरह कोतवाली पहुँचे, वहाँ से पास बनवाया और पुलिस की ही जीप में मैं स्टेशन गई।
उन वर्षों में गाजियाबाद जाना बेचैनी का सफर होता। घर पर तो बस ताला लटका रहता, माता-पिता मोहन नगर के अस्पताल में मिलते। लाल कम्बल ओढ़े पड़ी हुई ममी, कुर्सी पर अखबार लेकर बैठे हुए पापा। हालत यह कि जिसकी आँखें बन्द हैं वह सो नहीं रहा, कोमा में पड़ा है। जिसके हाथ में अखबार है वह पढ़ नहीं रहा, मरीज की कलाई पर लगी ड्रिप को बूँद-बूँद ताक रहा है। रेल की धूल और ऑटोरिक्शे के धक्के, आँखों की नींद और आँसू सबको पीछे धकेल मैं धीरे से अटैची कमरे की दीवार से टिकाती और कहती, ‘‘पापा, मैं आ गई।’’
‘‘अरे मुन्नी! आ गई, बहुत जानो। इन्दु, देख तेरी बेटी आई है, आँख खोल।’’ पापा टूटने लगते, ‘‘तीन दिन से ऐसे ही पड़ी है तेरी माँ, न हिले, न डुले, न बोले। डाॅक्टर कुछ नहीं बताते, कहते हैं अग्रवाल साब चालीस परसेंट बचने का चांस है। बताओ उनका चालीस परसेंट मेरे किस काम का। बाकी साठ परसेंट किससे माँगू?’’
ऐसे क्षणों में मुझे बेटी और बेटा, नर्स और वाॅर्डबाॅय, दोस्त और सलाहकार, सब बन जाना होता। निकल जाता मेरे अन्दर से कुछ दिनों के लिए इलाहाबाद, एक अन्य अवतार हो जाता मेरा वजूद- अस्पताल के गलियारों में डाॅक्टरों के पीछे भागता, दवा की दुकान से दवाइयाँ खरीदता, पैथोलोजी लैब से रिपोर्ट लाता, एक्सरे रूम से माँ की स्ट्रेचर ट्राॅली के साथ-साथ लपकता। पापा कोमा विषय पर गहन सैद्धान्तिक अध्ययन में लिप्त हो जाते। वे अपनी जानकारी से डाॅक्टरों को इतना चकरा डालते कि डाॅक्टर उनसे गुजारिश करते, ‘‘प्लीज! अग्रवाल साहब, हमें इलाज करने दीजिए।’’
माँ का मस्तिष्क आघात ठीक होता, कभी चालीस दिन में, कभी चौदह दिन में। यकायक वे एक दिन होश में आ जातीं। पुनर्जन्म की तरह वे अपनी दुनिया में लौटतीं, अपनी नई दिनचर्या में नई-नई दवाओं की बन्दनवार बैग में रखकर। कमजोरी के मारे वे फिर नए सिरे से चलना सीखतीं, उन्हें हर चीज का स्वाद नया लगता, उनके अन्दर बच्चों जैसी जिज्ञासा और विस्मय जन्म लेने लगते, दरअसल उस समय उन्हें सेवा सुश्रूषा की बेहद जरूरत होती पर उनको घर पहुँचाते ही मेरा मनपाखी छटपटाने लगता अपने शहर, अपने घर-द्वार लौटने को। मैं सोचती काश किताबों की तरह मेरे भी दो संस्करण हो जाते। एक इस शहर में रह लेता, एक उस शहर में।
यह कितनी विचित्रा सचाई है कि सन् 1988 से सन् 2003 के बीच हुई तो होंगी कई अच्छी घटनाएँ भी लेकिन वे हमें शहर में रोक रखने में कोई निर्णायक भूमिका अदा नहीं कर पाईं।
जैसे गर्मियों के एक रविवार की सुबह मेरी सहेलियाँ अनिता गोपेश और शशि शर्मा मुझे खींच ले गईं रसूलाबाद के गंगा तट पर कि आज लहरों पर लेटकर गप्प मारेंगे। हम नाव से बीच धार पहुँचे। अनीता को तैरना आता था, हम दोनों को डूबना। इसलिए मैं और शशि तो घुटने-घुटने पानी में आराम से बैठ गईं और हाथ-पैर फैलाकर तैरने का नाट्य करती रहीं। इस घाट पर नदी ‘तन्वंगी गंगा ग्रीष्म विरल’ कतई नहीं थी। जल में तरंग भी थी और तीव्रता भी। जल शीतल इतना कि लगे कोई देह में बर्फ के इंजेक्शन लगा रहा है। अनीता तैरने को मचल रही थी। चपल मछली-सी वह दूर चली जाती और जल प्रवाह के साथ-साथ तैरती हुई वापस आती। नदी का वेग उसे दूर खींचता, बतरस का चाव उसे लौटा लाता। हम तीनों साथ-साथ सुमित्रानन्दन पन्त, हरिवंश राय बच्चन और कैलाश गौतम को याद करते रहे। तीनों की धड़कनों में प्रयाग की गंगा रही और बही थी। हमने गंगा का न आचमन किया न सूर्य नमस्कार, न प्राणायाम किया न अभ्यर्थना, हम एक-दूसरे को किस्से और कविता सुनाते रहे। बचपन में कभी पापा से सुनी बच्चनजी की पंक्तियाँ याद आती गईं: ‘हर हर हर हर हहर हहर / ऊँची आती लहर-लहर / ऐसी लगती दूरी पर जैसे मोती की झालर।’ पन्तजी की ‘नौका विहार’ तो हम तीनों को याद थी। लेकिन सबसे ज़्यादा जुबान पर चढ़ी हुई थी कैलाश गौतम की कविता, अमौसा का मेला: ‘गुलब्बन क दुलहिन चलै धीरे-धीरे / भरल नाव जइसे नदी तीरे-तीरे।’ एक कहती। ‘सजल देह जइसे हौ गौने की डोली / हँसी सो बताशा शहद हउवै बोली।’ दूसरी कहती। ‘अ देखेलीं ठोकर बचावै ली धक्का / मनैमन छोहारा मनैमन मुनक्का।’ हम सब बोलतीं।
धूप सिर पर चढ़ आई थी। नाव वाले ने कहा, दुई घंटे से ऊपर होबे करी। हम सब बेमन से उठे कि मैं चिहुँक पड़ी, ‘‘अरे, मेरी साड़ी कहाँ गई?’’ शशि और अनीता हक्की-बक्की एक बार मुझे देखें, एक बार पानी के वेग को। गंगा की लहरों में कब साड़ी मेरे बदन से अलग होकर बह गई थी मुझे पता ही नहीं चला। नाववाले ने मुश्किल समझकर तसल्ली दी, ‘‘जाए दें, पानी का वेग देखें, साड़ी तो बनारस पहुँच गई होगी।’’
मैं झेंपती रही, अनिता और शशि हँसते-हँसते लोटपोट होती रहीं। वे सुनाने लगीं, ‘‘कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ / जिससे उथल-पुथल मच जाए / एक हिलोर इधर से आए, एक हिलोर उधर से आए।’
अनिता ने कहा, ‘‘जब आप कह रही थीं कि पानी हमें काटकर आगे बह रहा है, वह आपका चीरहरण कर रहा था।’’ नाव में रखे सूखे कपड़े पहन लिए गए पर वह साड़ी गंगा को समर्पित हो गई। इस अनुभव की स्मृति हमें जब-तब गुदगुदा जाती और हम हँसने लगते।
शशि शादी के बाद लखनऊ चली गई। मैं और अनिता कभी-कभी मिलते। हमारे दो मकसद होते। कुछ बहुत अच्छा पढ़ लेते तो उसे बाँटने की इच्छा होती या इकट्ठे सिनेमा देखने की। सिनेमा के लिए रवि को राजी करना डाॅक्टर के यहाँ ले जाने जैसा मुश्किल काम था। अगर कभी साथ चले भी गए तो इनकी टीका-टिप्पणी ने रसभंग कर डाला।
यह घिसी-पिटी कहानी देखने में क्या तुक है।
यह फिल्म हमने पहले भी कई बार देखी है।
मैं बोर हो रहा हूँ।
दो-चार बार ऐसे प्रयोगों के बाद यह स्पष्ट हो गया कि रवि के लिए सिनेमा सन्त्रास के सिवा कुछ नहीं है। अनिता के साथ बहुत फिल्में देखीं। काम के दबाव को उतार फेंकने का यह हमारा तरीका था। हमारा रसायन भी एक जैसा था। चुप बैठे रहकर भी हमारी रुचियों की जुगलबन्दी बनी रहती। बाहर निकलकर कभी हम चाट और चाय की एय्याशी के बाद घर जाते तो कभी सीधे वापस।
दशहरे के दिनों में इलाहाबाद में रात-भर मेले का रेला रहता है। सड़क के किनारे रंगीन रोशनी की झालर, खोमचेवाले, झाँकियों के रथ, भीड़, बच्चे, रिक्शे, स्कूटर और कारों का एक सिलसिला चला करता है। हम दोनों ने मुट्ठीगंज में फिल्म देखी और गौतम टाॅकीज के बाहर से ही वापसी का रिक्शा किया। हमारी बातें भी चल रही थीं और रिक्शा भी चल रहा था। भीड़ भरे बाजार को पार कर रिक्शा हिन्दू हाॅस्टल के फाटक पर पहुँचा जहाँ से कटरे का रास्ता शुरू होता है। यकायक रिक्शे की चेन उतर गई। वहाँ घुप्प अँधेरा था। रिक्शेवाले ने अन्दाजे से चेन ठीक की और रिक्शे को पैदल चलाने लगा। अनिता ने कहा, ‘‘जल्दी चलो, हमें देर हो रही है।’’ तभी कहीं से एक मोटरबाइक पर दो लड़के आए। पीछे की सीटवाले लड़के ने मेरी गोद में रखा मेरा पर्स बड़ी सफाई से छीना और उसकी मोटरबाइक दन्नाती हुई आगे भाग गई। ‘अरे, मेरा पर्स कहाँ गया।’ मेरे चिल्लाने से निरपेक्ष रिक्शेवाला वैसे ही रिक्शा चलाता रहा। अनिता ने अपना शक जाहिर किया, ‘‘इस जगह अक्सर लोगों के पर्स लूटे जाते हैं, रिक्शेवाले जब तुम्हें पता था तुमने यहाँ रिक्शा क्यों रोका?’’
रिक्शेवाले ने कहा, ‘‘हम तो नए आए हैं, हमें क्या पता कहाँ क्या होता है?’’
हमने तय किया कि पुलिस थाने में रिपोर्ट की जाए।
वहाँ का अनुभव और भी निराला था। हमारी बात सुनकर सबसे पहले एक सिपाही ने रिक्शेवाले को पीटकर उसकी कुल कमाई छीन ली और उसे एक तरफ बिठा दिया। फिर उसने हमें दीवान के सामने प्रस्तुत किया जो वायरलैस पर मेले की गश्त का हाल ले रहा था। कुछ देर बाद वह हमसे मुखातिब हुआ। उसने दो बातें कहीं, ‘‘पर्स पकड़कर नहीं बैठतीं आप लोग? पर्स में कितने रुपए थे?’’ दोनों ही बातों के उत्तर से उसे सन्तोष नहीं हुआ। यह बताने पर कि पर्स में साढ़े सात सौ रुपए थे, उसने बड़ी खिल्ली उड़ाई ‘‘और सिर्फ साढ़े सात सौ के लिए आप थाने चली आईं।’’
इसके बाद एक नौजवान सब इंस्पेक्टर आया। उसने हमारी लिखी रिपोर्ट दीवान को सौंपी और अनिता से कहा, ‘‘आप चलकर मौका वारदात दिखाएँ।’’
सब इंस्पेक्टर अगले हफ्ते से रोज अनिता के घर दो-तीन पर्स लेकर पहुँचने लगा, ‘‘जो आपको जँचे, रख लीजिए।’’
पर्स के साथ घर की चाभियों का गुच्छा, टेलीफोन डायरी, पार्कर पेन और रेवलाॅन लिपस्टिक की हानि में सबसे ज़्यादा परेशानी चाभियों की हुई। सभी अलमारियों और दरवाजों के ताले तुड़वाने और बदलवाने पड़े।
इस प्रसंग में मेरी बेवकूफी तो अपनी जगह थी ही मेरी लापरवाही भी जाहिर थी। फिर भी अपनी नागरिक चेतना को धक्का लगा। जब अखबारों में छिनैती और डकैती की खबरें पढ़ती थी हमेशा यही सोचती कि ये औरों के संग होनेवाली दुश्वारियाँ हैं। मन में खुशफहमी रहती, बच्चा-बच्चा तो यहाँ जाना-पहचाना है और हम यहाँ के खास अपने हैं। अपनों को कौन लूटता है। लुटते तो बेचारे परदेसी हैं। खैर धारणा ध्वस्त हुई, तबीयत जरा पस्त हुई।
शहर के लिए किसी का रहना जश्रूरी नहीं होता। ये तो लोग होते हैं जो उससे नाता जोड़ते हैं। कुछ लोग तो अपने नाम के साथ उसे नत्थी कर लेते हैं जैसे वसीम बरेलवी, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफी आजमी। कुछ लोग नत्थी नहीं करते फिर भी उनके साथ शहर की शोहरत चिपक जाती है, जैसेµमजाज के साथ लखनऊ, गालिब के साथ दिल्ली, राही मासूम रजा के साथ अलीगढ़, कमलेश्वर के साथ मैनपुरी, राजेन्द्र यादव के साथ आगरा। रहे हैं ये सब और शहरों में भी लेकिन वह एक शहर इनका अता-पता बन गया। शहरवालों को भी इनके किस्से-कहानी सुनाने में मजा आने लगा; शहर के कुछ अड्डे इनके नाम से सरनाम हुए, साल-दर-साल इनके हवाले से न जाने कितने सच-झूठ तमाम हुए।