ब्लॉग के इस अंक में पढ़ें, प्रभात रंजन की किताब 'पालतू बोहेमियन' का अंश, 'हमने यह माना कि दिल्ली में रहें, खाएँगे क्या'। इसमें उन्होंने अपने शोध के दिनों को याद किया है।
मनोहर श्याम जोशी जी से मैं इसलिए मिला था क्योंकि मैं उनके उपन्यासों पर पी-एच.डी. कर रहा था। मैं पहला ऐसा शोधार्थी था जो उत्तर-आधुनिक सन्दर्भों में उनके उपन्यासों पर शोध कर रहा था। लेकिन मजेदार बात यह रही कि वे मुझे कहानी लिखना पढ़ाते रहे, अमेरिकन सेंटर लाइब्रेरी के चक्कर लगवाते रहे, किताबों की दुनिया की सैर करवाते रहे। उन्होंने कभी यह नहीं पूछा कि शोध की क्या प्रगति है? शोध कब पूरा होगा? हद तो यह रही कि न तो मैंने उनको कभी अपनी पी-एच.डी. की प्रति दी, न ही उन्होंने मुझसे कभी मेरे शोध प्रबन्ध की प्रति माँगी। उलटे उन्होंने इस बात की पूरी कोशिश की कि भले मैं शोध करूँ या न करूँ लेकिन अकादमिक दुनिया से किसी भी तरह का नाता न जोडूँ।
सच बताऊँ तो शोध का वह पूरा ताना-बाना ही इसलिए था क्योंकि मुझे यू.जी.सी. की फेलोशिप मिलती थी। जैसे-जैसे फेलोशिप समाप्त होने का समय नजदीक आता जा रहा था, वैसे-वैसे यह डर सताता जा रहा था कि अब क्या होगा? दिल्ली विश्वविद्यालय में नौकरी की कोई सम्भावना दिखाई नहीं दे रही थी। मेरे समकालीन अपना जो समय अपने गुरुओं के आगे-पीछे करने, उनकी नजर में आने में लगाते थे, वह समय मैं कहानी लिखना सीखने, विश्व साहित्य पढने, जोशी जी से दिशा-निर्देश लेने में लगा रहा था। इससे भी बड़ी समस्या यह थी कि जिसके कारण प्राध्यापकी मिल पाना असम्भव लग रहा था, वह कारण यह था कि मेरे शोधगुरु सुधीश पचौरी थे। उन दिनों हिन्दी विभागों के वे प्रतिपक्ष की तरह माने जाते थे। विश्वविद्यालयों में नौकरी पूरी तरह से गुरुओं की कृपा और उनके प्रताप से ही मिलती थी। आज भी उसी तरह मिलती है। मेरे गुरु पचौरी जी की कृपा तो मेरे ऊपर पूरी थी लेकिन उनका स्वयं का प्रताप नहीं था।
अब पचौरी साहब का प्रसंग आ गया है तो कुछ बातें और।
मैं उनका पहला शोधछात्र था। जब दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग ने उन्हें मेरा शोध-निर्देशक नियुक्त किया तो मैं उनसे मिलने गया। उन्होंने बाकायदा मेरा साक्षात्कार लिया बल्कि साफ तौर पर यह भी कह दिया कि एक तो मैं आपको नौकरी दिलवाने की स्थिति में नहीं हूँ; दूसरे, मेरे कारण हो सकता है, आपको परेशानी भी उठानी पड़े।
लेकिन उन दिनों सुधीश पचौरी ने जड़ हिन्दी समाज को ऐसा झकझोर दिया था कि हम एक तरह से उनके दीवाने हो गए थे। लिखने की एक नई शैली, विषयों को नये अन्दाज से उठाने के कारण सुधीश जी को पढना उन दिनों हिन्दी विभागों के मूढ़ प्राध्यापकों की बोरिंग क्लास की ऊब को मिटा देता था। हिन्दी विभाग सूर, तुलसी, कबीर से आगे बढ़ता था तो निराला, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय में उलझकर रह जाता था। उनमें समकालीनता का सिरे से अभाव था, जबकि सुधीश जी हर विषय को समकालीन सन्दर्भों से जोड़कर देखते थे। इसलिए उनकी उक्त बातों का कोई खास प्रभाव मेरे ऊपर नहीं पड़ा और मैंने उनसे साफ शब्दों में कह दिया, 'सर, मुझे आपके निर्देशन में ही शोध करना है।’
लेकिन जैसे-जैसे समय गुजरता जा रहा था, वैसे-वैसे फेलोशिप बन्द होने का वक्त करीब आता जा रहा था। इससे मन उचटने-सा लगा था। पहले, हफ्ते में कम-से-कम एक बार तो जरूर जोशी जी के घर किताबें लाने-ले जाने के सिलसिले में जाता था, पर अब उस मामले में मैं बेपरवाह हो गया था।
जैसे-जैसे इस बात का अहसास होता जा रहा था कि सुधीश पचौरी सर ने सही कहा था कि उनके स्टूडेंट होने से मैं जो फायदा चाहता था, हो सकता है, वह मुझे हो जाए लेकिन नौकरी का तो सवाल ही नहीं उठता था, वैसे-वैसे अचानक बेरोजगार हो जाने का खौफ बढ़ता जा रहा था।
वह जमाना और था। उस जमाने में हिन्दी पढने वालों के लिए मौके बहुत सीमित होते थे। सबसे बड़ा मौका कॉलेज में पढ़ाना ही माना जाता था। पत्रकारिता का नम्बर उसके बाद आता था। बाकी मौके मुम्बई में थे। शायद उन दिनों जोशी जी से जुडऩे का एक बड़ा कारण यह भी था कि उनके माध्यम से, उनके रसूख का इस्तेमाल करते हुए मैं मुम्बई जाना चाहता था। लेकिन सच बताऊँ तो फेलोशिप और पी-एच.डी. तक पढ़ाई के कारण वह अपेक्षित साहस मेरे अन्दर नहीं था कि सब कुछ छोड़कर मुम्बई चला जाऊँ।
ऊपर-ऊपर तो यह सब दिखाई दे रहा था कि पी-एच.डी. के बाद भी कुछ नहीं होनेवाला था, लेकिन मन में फिर भी एक आस थी कि अच्छी पढ़ाई-लिखाई का कुछ तो सिला मिलेगा। अचानक मैंने जोशी जी की बताई रीडिंग लिस्ट की किताबें पढनी छोड़ दी थीं।
उन्हीं दिनों जोशी जी मुझे लाइब्रेरी से अर्नेस्ट हेमिंग्वे की कहानियों की किताब 'द कम्प्लीट शॉर्ट स्टोरीज ऑफ अर्नेस्ट हेमिंग्वे’ लाने के लिए कहा। मैं ले आया। मुझे यह तो पता था कि हेमिंग्वे को नोबेल पुरस्कार मिला था। उनके उपन्यास 'ओल्ड मैन एंड द सी’ की एक प्रति होस्टल में अपने सीनियर रविकान्त के कमरे में मुझे दिखाई भी दी थी लेकिन मैंने उसे कभी पढऩे की कोशिश नहीं की थी। कहानियों के नाम पर विदेशी कथाकारों में मोपासां, चेखव की कहानियों के अनुवाद हिन्दी में उपलब्ध थे, लेकिन हेमिंग्वे की कहानियाँ तो हिन्दी अनुवाद में कहीं दिखाई भी नहीं देती थीं कि पढ़ता।
जब मैं हेमिंग्वे की सम्पूर्ण कहानियों की किताब लेकर उनके यहाँ गया तो उस दिन उन्होंने हेमिंग्वे की कहानी-कला के बारे में विस्तार से बताया। बताया कि हेमिंग्वे जैसी कहानियाँ लिखना आसान नहीं है। वह अपने जैसे अकेले थे। उनकी कहानियों में जो व्यक्त करना होता था, वह अव्यक्त रह जाता था। आलोचकों ने उनकी इस तकनीक को 'हिडेन फैक्ट’ कहा। आधुनिक एब्स्ट्रैक्ट चित्रकला की तरह अमूर्तन में कहीं गहरे छिपा अर्थ, इसके बावजूद पठनीयता और रोचकता। इसी कारण से उनकी कई कहानियाँ कलाकृतियों की तरह लगती हैं।
उसके बाद उन्होंने हेमिंग्वे की सम्पूर्ण कहानियों का संग्रह उठाया और उसमें से कुछ कहानियों पर पेंसिल से टिक लगाने लग गए। कुछ कहनियों के नाम मुझे आज भी याद हैं—द स्नो ऑफ किलिमंजारो, हिल्स लाइक व्हाइट एलिफैंट, ए क्लीन वेल लिटेड प्लेस...। उसके बाद उन्होंने यह कहते हुए मुझे किताब वापस की कि निर्मल वर्मा का कहानी संग्रह 'पिछली गर्मियों में’ पढऩा, शायद इनमें से कुछ कहानियों की याद आ जाए।
उनसे किताब लेकर मैं वापस आ गया। लेकिन मैंने हेमिंग्वे की कहानियाँ पढ़ीं ही नहीं। क्योंकि उन दिनों मैं दूसरी ही धुन में था।
मेरा पुराना दोस्त राकेश रंजन कुमार, जिसको हम 'महाशय’ बुलाते थे, मुम्बई में अभिनय और लेखन के छोटे से दौर के बाद दिल्ली लौट आया था। हम दोनों उन दिनों कैरियर में एक से संकट से गुजर रहे थे और उनसे निकलने के लिए एक-सी योजनाओं के ऊपर काम कर रहे थे। जोशी जी की हर किताब में उनके परिचय में लिखा होता है : '21 साल की उम्र से पूर्णत: मसिजीवी’। हम दोनों ने भी यह तय किया कि अब मसिजीवी ही बनना है। कलम से लिखना है, लिखकर कमाना है।
प्रभात रंजन की पुस्तकें यहाँ उपलब्ध हैं।