“क्यों बिरजू की माँ, नाच देखने नहीं जाएगी क्या?”
बिरजू की माँ शकरकन्द उबालकर बैठी मन-ही-मन कुढ़ रही थी अपने आँगन में। सात साल का लड़का बिरजू शकरकन्द के बदले तमाचे खाकर आँगन में लोट-लोटकर सारी देह में मिट्टी मल रहा था। चम्पिया के सिर भी चुड़ैल मँडरा रही है—आधे-आँगन धूप रहते जो गई है सहुआइन की दुकान छोवा-गुड़ लाने, सो अभी तक नहीं लौटीय दीया-बाती की बेला हो गई। आए आज लौटके ज़रा! बागड़ बकरे की देह में कुकुरमाछी लगी थी, इसलिए बेचारा बागड़ रह-रहकर कूद-फाँद कर रहा था। बिरजू की माँ बागड़ पर मन का गुस्सा उतारने का बहाना ढूँढ़कर निकाल चुकी थी।—पिछवाड़े की मिर्च की फूली गाछ! बागड़ के सिवा और किसने कलेवा किया होगा! बागड़ को मारने के लिए वह मिट्टी का छोटा ढेला उठा चुकी थी, कि पड़ोसिन मखनी फूआ की पुकार सुनाई पड़ी—“क्यों बिरजू की माँ, नाच देखने नहीं जाएगी क्या?”
“बिरजू की माँ के आगे नाथ और पीछे पगहिया न हो तब नय फुआ!”
गरम गुस्से में बुझी नुकीली बात फुआ की देह में धँस गई और बिरजू की माँ ने हाथ के ढेले को पास ही फेंक दिया—“बेचारे बागड़ को कुकुरमाछी परेशान कर रही है! आ—हा, आय—आय!
हर्र-र-र-र! आय-आय!” बिरजू ने लेटे ही लेटे बागड़ को एक डंडा लगा दिया। बिरजू की माँ की इच्छा हुई कि जाकर उसी डंडे से बिरजू का भूत भगा दे, किन्तु नीम के पास खड़ी पनभरियों की खिलखिलाहट सुनकर रुक गई। बोली, “ठहर, तेरे बप्पा ने बड़ा हथछुट्टा बना दिया है तुझे! बड़ा हाथ चलता है लोगों पर। ठहर!”
मखनी फुआ नीम के पास झुकी कमर से घड़ा उतारकर पानी भरकर लौटती पनभरनियों में बिरजू की माँ की बहकी हुई बात का इंसाफ करा रही थी—“ज़रा देखो तो इस बिरजू की माँ को! चार मन पाट (जूट) का पैसा क्या हुआ है, धरती पर पाँव ही नहीं पड़ते! निसाफ करो! खुद अपने मुँह से आठ दिन पहले से ही गाँव की अली-गली में बोलती फिरी है, ‘हाँ, इस बार बिरजू के बप्पा ने कहा है, बैलगाड़ी पर बिठाकर बलरामपुर का नाच दिखा लाऊँगा। बैल अब अपने घर है, तो हजार गाड़ी मँगनी मिल जाएँगी।’ सो मैंने अभी टोक दिया, नाच देखनेवाली सब तो औन-पौन कर तैयार हो रही हैं, रसोई-पानी कर रहे हैं। मेरे मुँह में आग लगे, क्यों मैं टोकने गई! सुनती हो, क्या जवाब दिया बिरजू की माँ ने?”
मखनी फुआ ने अपने पोपले मुँह के होंठों को एक ओर मोड़कर ऐंठती हुई बोली निकाली—“अर्-र्रे-हाँ-हाँ! बि-र-र-ज्जू की मै—या के आगे नाथ औ-र्र पीछे पगहिया ना हो, तब्ब ना-आ-आ!”
जंगी की पुतोहू बिरजू की माँ से नहीं डरती। वह ज़रा गला खोलकर ही कहती है, “फुआ-आ! सरबे सित्तलमिंटी (सर्वे सेट्लमेंट) के हाकिम के बासा पर फूलछाप किनारीवाली साड़ी पहनके यदि तू भी भटा की भेंटीं चढ़ाती तो तुम्हारे नाम से भी दु-तीन बीघा धनहर ज़मीन का पर्चा कट जाता! फिर तुम्हारे घर भी आज दस मन सोनाबंग पाट होता, जोड़ा बैल खरीदता! फिर आगे नाथ और पीछे सैकड़ों पगहिया झूलती!”
जंगी की पुतोहू मुँहजोर है। रेलवे स्टेशन के पास की लड़की है। तीन ही महीने हुए गौने की नई बहू होकर आई है और सारे कुर्माटोली की सभी झगड़ालू सासों से एकाध मोरचा ले चुकी है। उसका ससुर जंगी दागी चोर है, सी-किलासी है। उसका खसम रंगी कुर्माटोली का नामी लठैत। इसीलिए हमेशा सींग खुजाती फिरती है जंगी की पुतोहू!
बिरजू की माँ के आँगन में जंगी की पुतोहू की गला-खोल बोली गुलेल की गोलियों की तरह दनदनाती हुई आई थी। बिरजू की माँ ने एक तीखा जवाब खोजकर निकाला, लेकिन मन मसोसकर रह गई।—गोबर की ढेरी में कौन ढेला फेंके!
जीभ के झाल को गले में उतारकर बिरजू की माँ ने अपनी बेटी चम्पिया को आवाज़ दी—“अरी चम्पिया-या-या, आज लौटे तो तेरी मूड़ी मरोड़कर चूल्हे में झोंकती हूँ! दिन-दिन बेचाल होती जाती है!—गाँव में तो अब ठेठर-बैसकोप का गीत गानेवाली पतुरिया-पुतोहू सब आने लगी हैं। कहीं बैठके ‘बाजे न मुरलिया’ सीख रही होगी ह-र-जा-ई-ई! अरी चम्पि-या-या-या!”
जंगी की पुतोहू ने बिरजू की माँ की बोली का स्वाद लेकर कमर पर घड़े को सँभाला और मटककर बोली, “चल दिदिया, चल! इस मुहल्ले में लाल पान की बेगम बसती है! नहीं जानती, दोपहर-दिन और चैपहर-रात बिजली की बत्ती भक्-भक् कर जलती है!”
भक्-भक् बिजली-बत्ती की बात सुनकर न जाने क्यों सभी खिलखिलाकर हँस पड़ीं। फुआ की टूटी हुई दन्त-पंक्तियों के बीच से एक मीठी गाली निकली—“शैतान की नानी!”
बिरजू की माँ की आँखों पर मानो किसी ने तेज़ टॉर्च की रोशनी डालकर चैंधिया दिया।—भक्-भक् बिजली-बत्ती! तीन साल पहले सर्वे कैम्प के बाद गाँव की जलन-डाही औरतों ने एक कहानी गढ़के फैलाई थी, चम्पिया की माँ के आँगन में रात-भर बिजली-बत्ती भुकभुकाती थी! चम्पिया की माँ के आँगन में, नाकवाले जूते की छाप घोड़े की टाप की तरह!—जलो, जलो! और जलो! चम्पिया की माँ के आँगन में चाँदी-जैसे पाट सूखते देखकर जलनेवाली सब औरतें खलिहान पर सोनोली धान के बोझों को देखकर बैंगन का भुर्ता हो जाएँगी।
मिट्टी के बरतन से टपकते हुए छोवा-गुड़ को उँगलियों से चाटती हुई चम्पिया आई और माँ के तमाचे खाकर चीख पड़ी—“मुझे क्यों मारती है! ए-ए-ए! सहुआइन जल्दी से सौदा नहीं देती है-एँ-एँ-एँ-एँ!”
“सहुआइन जल्दी सौदा नहीं देती की नानी! एक सहुआइन की ही दुकान पर मोती झरते हैं, जो जड़ गाड़कर बैठी हुई थी! बोल, गले पर लात देकर कल्ला तोड़ दूँगी हरजाई, जो फिर कभी ‘बाजे न मुरलिया’ गाते सुना! चाल सीखने जाती है टीशन की छोकरियों से!”
बिरजू की माँ ने चुप होकर अपनी आवाज़ अन्दाज़ी कि उसकी बात जंगी के झोंपड़े तक साफ़-साफ़ पहुँच गई होगी।
बिरजू बीती हुई बातों को भूलकर उठ खड़ा हुआ था और धूल झाड़ते हुए बरतन से टपकते गुड़ को ललचाई निगाह से देखने लगा था।—दीदी के साथ वह भी दुकान जाता तो दीदी उसे भी गुड़ चटाती, ज़रूर! वह शकरकन्द के लोभ में रहा और माँगने पर माँ ने शकरकन्द के बदले—
“ऐ मैया, एक अँगुली गुड़ दे दे!” बिरजू ने तलहथी फैलाई—“दे ना मैया, एक रत्ती-भर!”
“एक रत्ती क्यों, उठाके बरतन को फेंक आती हूँ पिछवाड़े मेंय जाके चाटना! नहीं बनेगी मीठी रोटी!—मीठी रोटी खाने का मुँह होता है!” बिरजू की माँ ने उबले शकरकन्द का सूप रोती हुई चम्पिया के सामने रखते हुए कहा, “बैठके छिलके उतार, नहीं तो अभी—!”
दस साल की चम्पिया जानती है, शकरकन्द छीलते समय कम-से-कम बारह बार माँ उसे बाल पकड़कर झकझोरेगी, छोटी-छोटी खोट निकालकर गालियाँ देगी—“पाँव फैलाके क्यों बैठी है उस तरह, बेलज्जी!” चम्पिया माँ के गुस्से को जानती है।
बिरजू ने इस मौके पर थोड़ी-सी खुशामद करके देखा—“मैया, मैं भी बैठकर शकरकन्द छीलूँ?”
“नहीं!” माँ ने झिड़की दी, “एक शकरकन्द छीलेगा और तीन पेट में! जाके सिद्धू की बहू से कहो, एक घंटे के लिए कड़ाही माँगकर ले गई तो फिर लौटाने का नाम नहीं। जा जल्दी!”
मुँह लटकाकर आँगन से निकलते-निकलते बिरजू ने शकरकन्द और गुड़ पर निगाह दौड़ाई। चम्पिया ने अपने झबरे केश की ओट से माँ की ओर देखा और नज़र बचाकर चुपके से बिरजू की ओर एक शकरकन्द फेंक दिया।—बिरजू भागा।
“सूरज भगवान डूब गए। दीया-बत्ती की बेला हो गई। अभी तक गाड़ी—”
चम्पिया बीच में ही बोल उठी—“कोयरीटोले में किसी ने गाड़ी नहीं दी मैया! बप्पा बोले, माँ से कहना सब ठीक-ठाक करके तैयार रहें। मलदहियाटोली के मियाँजान की गाड़ी लाने जा रहा हूँ।”
सुनते ही बिरजू की माँ का चेहरा उतर गया। लगा, छाते की कमानी उतर गई घोड़े से अचानक। कोयरीटोले में किसी ने गाड़ी मँगनी नहीं दी! तब मिल चुकी गाड़ी! जब अपने गाँव के लोगों की आँख में पानी नहीं तो मलदहियाटोली के मियाँजान की गाड़ी का क्या भरोसा! न तीन में, न तेरह में! क्या होगा शकरकन्द छीलकर! रख दे उठाके!—यह मर्द नाच दिखाएगा! बैलगाड़ी पर चढ़कर नाच दिखाने ले जाएगा! चढ़ चुकी बैलगाड़ी पर, देख चुकी जी-भर नाच—पैदल जानेवाली सब पहुँचकर पुरानी हो चुकी होंगी।
बिरजू छोटी कड़ाही सिर पर औंधा कर वापस आया—“देख दिदिया मलेटरी टोपी! इस पर दस लाठी मारने से भी कुछ नहीं होता।”
चम्पिया चुपचाप बैठी रही, कुछ बोली नहीं, ज़रा-सी मुस्कुराई भी नहीं। बिरजू ने समझ लिया, मैया का गुस्सा अभी उतरा नहीं है पूरे तौर से।
मढ़ैया के अन्दर से बागड़ को बाहर भगाती हुई बिरजू की माँ बड़बड़ाई—“कल ही पँचकौड़ी कसाई के हवाले करती हूँ राकस तुझे! हर चीज में मुँह लगाएगा। चम्पिया, बाँध दे बगड़ा को। खोल दे गले की घंटी! हमेशा टुनुर-टुनुर! मुझे जरा नहीं सुहाता है!”
‘टुनुर-टुनुर’ सुनते ही बिरजू को सड़क से जाती हुई बैलगाड़ियों की याद हो आई—“अभी बबुआनटोल की गाड़ियाँ नाच देखने जा रही थीं—झुनुर-झुनुर बैलों की झुनकी, तुमने सु—”
“बेसी बक-बक मत करो!” बागड़ के गले से झुनकी खोलती बोली चम्पिया।
“चम्पिया, डाल दे चूल्हे में पानी! बप्पा आवे तो कहना कि अपने उड़नजहाज पर चढ़कर नाच देख आएँ! मुझे नाच देखने का सौख नहीं!—मुझे जगइयो मत कोई! मेरा माथा दुख रहा है।”
मढ़ैया के ओसारे पर बिरजू ने फिसफिसाके पूछा, “क्यों दिदिया, नाच में उड़नजहाज भी उड़ेगा?”
चटाई पर कथरी ओढ़कर बैठती हुई चम्पिया ने बिरजू को चुपचाप अपने पास बैठने का इशारा किया, मुफ़्त में मार खाएगा बेचारा!—
बिरजू ने बहन की कथरी में हिस्सा बाँटते हुए चुक्की-मुक्की लगाई। जाड़े के समय इस तरह घुटने पर ठुड्डी रखकर चुक्की-मुक्की लगाना सीख चुका है वह। उसने चम्पिया के कान के पास मुँह ले जाकर कहा, “हम लोग नाच देखने नहीं जाएँगे?—गाँव में एक पंछी भी नहीं है। सब चले गए।”
चम्पिया को अब तिल-भर भी भरोसा नहीं। संझा तारा डूब रहा है। बप्पा अभी तक गाड़ी लेकर नहीं लौटे।—एक महीना पहले से ही मैया कहती थी, बलरामपुर के नाच के दिन मीठी रोटी बनेगी चम्पिया छींट की साड़ी पहनेगी बिरजू पैंट पहनेगा बैलगाड़ी पर चढ़कर—
चम्पिया की भीगी पलकों पर एक बूँद आँसू आ गया।
बिरजू का भी दिल भर आया। उसने मन-ही-मन इमली पर रहनेवाले जिनबाबा को एक बैंगन कबूला, गाछ का सबसे पहला बैंगन, उसने खुद जिस पौधे को रोपा है!—जल्दी से गाड़ी लेकर बप्पा को भेज दो, जिनबाबा!
मढ़ैया के अन्दर बिरजू की माँ चटाई पर पड़ी करवटें ले रही थी। उँह, पहले से किसी बात का मनसूबा नहीं बाँधना चाहिए किसी को! भगवान ने मनसूबा तोड़ दिया। उसको सबसे पहले भगवान से पूछना है, यह किस चूक का फल दे रहो हो भोला बाबा! अपने जानते उसने किसी देवता-पित्तर की मान-मनौती बाकी नहीं रखी। सर्वे के समय ज़मीन के लिए जितनी मनौतियाँ की थीं—ठीक ही तो! महाबीरजी का रोट तो बाकी ही है। हाय रे दैव!—भूल-चूक माफ करो महाबीर बाबा! मनौती दूनी करके चढ़ाएगी बिरजू की माँ!—
बिरजू की माँ के मन में रह-रहकर जंगी और पुतोहू की बातें चुभती हैं भक्-भक् बिजली-बत्ती!—चोरी-चमारी करनेवाले की बेटी-पुतोहू जलेगी नहीं! पाँच बीघा ज़मीन क्या हासिल की है बिरजू के बप्पा ने, गाँव की भाईखौकियों की आँखों में किरकिरी पड़ गई है। खेत में पाट लगा देखकर गाँव के लोगों की छाती फटने लगीय धरती फोड़कर पाट लगा हैय बैशाखी बादलों की तरह उमड़ते आ रहे हैं पाट के पौधे! तो अलान, तो फलान! इतनी आँखों की धार भला फसल सहे! जहाँ पन्द्रह मन पाट होना चाहिए, सिर्फ दस मन पाट काँटा पर तौलके ओजन हुआ रब्बी भगत के यहाँ।—
इसमें जलने की क्या बात है भला!—बिरजू के बप्पा ने तो पहले ही कुर्माटोली के एक-एक आदमी को समझाके कहा, “ज़िन्दगी-भर मज़दूरी करते रह जाओगे। सर्वे का समय आ रहा है, लाठी कड़ी करो तो दो-चार बीघे ज़मीन हासिल कर सकते हो।” सो गाँव की किसी पुतखौकी का भतार सर्वे के समय बाबूसाहेब के खिलाफ खाँसा भी नहीं।—बिरजू के बप्पा को कम सहना पड़ा है! बाबूसाहेब गुस्से से सरकस नाच के बाघ की तरह हुमड़ते रह गए। उनका बड़ा बेटा घर में आग लगाने की धमकी देकर गया।—आखिर बाबूसाहेब ने अपने सबसे छोटे लड़के को भेजा। बिरजू की माँ को ‘मौसी’ कहके पुकारा—“यह ज़मीन बाबूजी ने मेरे नाम से खरीदी थी। मेरी पढ़ाई-लिखाई उसी ज़मीन की उपज से चलती है।”—और भी कितनी बातें। खूब मोहना जानता है उत्ता ज़रा-सा लड़का। ज़मींदार का बेटा है कि—
चम्पिया, बिरजू सो गया क्या? यहाँ आ जा बिरजू, अन्दर। तू भी आ जा, चम्पिया!—भला आदमी आए तो एक बार आज!
बिरजू के साथ चम्पिया अन्दर चली गई। “ढिबरी बुझा दे।—बप्पा बुलाएँ तो जवाब मत देना। खपच्ची गिरा दे।”
भला आदमी रे, भला आदमी! मुँह देखो ज़रा इस मर्द का!—बिरजू की माँ दिन-रात मंझा न देती रहती तो ले चुके थे ज़मीन! रोज़ आकर माथा पकड़के बैठ जाएँ, “मुझे ज़मीन नहीं लेनी है बिरजू की माँ, मजूरी ही अच्छी!”—जवाब देती थी बिरजू की माँ खूब सोच-समझके, “छोड़ दो, जब तुम्हारा कलेजा ही थिर नहीं होता है तो क्या होगा! जोरू-ज़मीन जोर के, नहीं तो किसी और के!—
बिरजू के बाप पर बहुत तेज़ी से गुस्सा चढ़ता है। चढ़ता ही जाता है।—बिरजू की माँ का भाग ही खराब है, जो ऐसा गोबरगनेश घरवाला उसे मिला। कौन-सा सौख-मौज दिया है उसके मर्द ने! कोल्हू के बैल की तरह खटकर सारी उम्र काट दी इसके यहाँ, कभी एक पैसे की जलेबी भी लाकर दी है उसके खसम ने!—पाट का दाम भगत के यहाँ से लेकर बाहर ही बाहर बैल-हट्टा चले गए। बिरजू की माँ को एक बार नमरी लोट देखने भी नहीं दिया आँख से!—बैल खरीद लाए। उसी दिन से गाँव में ढिंढोरा पीटने लगे, बिरजू की माँ इस बार बैलगाड़ी पर चढ़कर जाएगी नाच देखने!—दूसरे की गाड़ी के भरोसे नाच दिखलाएगा!—
अन्त में उसे अपने-आप पर क्रोध हो आया। वह खुद भी कुछ कम नहीं! उसकी जीभ में आग लगे! बैलगाड़ी पर चढ़कर नाच देखने की लालसा किस कुसमय में उसके मुँह से निकली थी, भगवान जानें! फिर आज सुबह से दोपहर तक, किसी-न-किसी बहाने उसने अट्ठारह बार बैलगाड़ी पर नाच देखने की चर्चा छेड़ी है।—लो, खूब देखो नाच! वाह रे नाच! कथरी के नीचे दुशाले का सपना!—कल भोरे पानी भरने के लिए जब जाएगी, पतली जीभवाली पतुरिया सब हँसती आएँगी, हँसती जाएँगी।—सभी जलते हैं उससे, हाँ भगवान दाढ़ीजार भी!—दो बच्चों की माँ होकर भी वह जस-की-तस है। उसका घरवाला उसकी बात में रहता है। वह बालों में गरी का तेल डालती है। उसकी अपनी ज़मीन है। है किसी के पास एक धूर ज़मीन भी अपनी इस गाँव में! जलेंगे नहीं, तीन बीघे में धान लगा हुआ है, अगहनी, लोगों की बिखदीठ से बचें, तब तो!
बाहर बैलों की घंटियाँ सुनाई पड़ीं। तीनों सतर्क हो गए। उत्कर्ण होकर सुनते रहे।
“अपने ही बैलों की घंटी है, क्यों री चम्पिया?”
चम्पिया और बिरजू ने प्राय: एक ही साथ कहा, “हूँ-ऊँ-ऊँ!”
“चुप!” बिरजू की माँ ने फिसफिसाकर कहा, “शायद गाड़ी भी है, घड़घड़ाती है न?”
“हूँ-ऊँ-ऊँ!” दोनों ने फिर हुँकारी भरी।
“चुप! गाड़ी नहीं है। तू चुपके से टट्टी में छेद करके देख तो आ चम्पी! भागके आ, चुपके-चुपके।”
चम्पिया बिल्ली की तरह हौले-हौले पाँव से टट्टी के छेद से झाँक आई—“हाँ मैया, गाड़ी भी है!”
बिरजू हड़बड़ाकर उठ बैठा। उसकी माँ ने उसके हाथ पकड़कर सुला दिया—“बोले मत!”
चम्पिया भी गुदड़ी के नीचे घुस गई।
बाहर बैलगाड़ी खोलने की आवाज़ हुई। बिरजू के बाप ने बैलों को ज़ोर से डाँटा—“हाँ-हाँ! आ गए घर! घर आने के लिए छाती फटी जाती थी!”
बिरजू की माँ ताड़ गई, ज़रूर मलदहियाटोली में गाँजे की चिलम चढ़ रही थी, आवाज़ तो बड़ी खनखनाती हुई निकल रही है।
“चम्पिया-ह!” बाहर से ही पुकारकर कहा उसके बाप ने, “बैलों को घास दे दे, चम्पिया-ह!”
अन्दर से कोई जवाब नहीं आया। चम्पिया के बाप ने आँगन में आकर देखा तो न रोशनी, न चिराग, न चूल्हे में आग।—बात क्या है! नाच देखने, उतावली होकर, पैदल ही चली गई क्या—!
बिरजू के गले में खसखसाहट हुई और उसने रोकने की पूरी कोशिश भी की, लेकिन खाँसी जब शुरू हुई तो पूरे पाँच मिनट तक वह खाँसता रहा। “बिरजू! बेटा बिरजमोहन!” बिरजू के बाप ने पुचकारकर बुलाया, “मैया गुस्से के मारे सो गई क्या?—अरे अभी तो लोग जा ही रहे हैं।”
बिरजू की माँ के मन में आया कि कसकर जवाब दे, नहीं देखना नाच! लौटा दो गाड़ी!
“चम्पिया-ह! उठती क्यों नहीं? ले, धान की पँचसीस रख दे।” धान की बालियों का छोटा झब्बा झोंपड़े के ओसारे पर रखकर उसने कहा, “दीया बालो!”
बिरजू की माँ उठकर ओसारे पर आई—“डेढ़ पहर रात को गाड़ी लाने की क्या जरूरत थी? नाच तो अब खत्म हो रहा होगा।”
ढिबरी की रोशनी में धान की बालियों का रंग देखते ही बिरजू की माँ के मन का सब मैल दूर हो गया।—धानी रंग उसकी आँखों से उतरकर रोम-रोम में घुल गया।
“नाच अभी शुरू भी नहीं हुआ होगा। अभी-अभी बलरामपुर के बाबू की सम्पनी गाड़ी मोहनपुर होटिल-बँगला से हाकिम साहब को लाने गई है। इस साल आखिरी नाच है।—पँचसीस टट्टी में खोंस दे, अपने खेत का है।”
“अपने खेत का?” हुलसती हुई बिरजू की माँ ने पूछा, “पक गए धान?”
“नहीं, दस दिन में अगहन चढ़ते-चढ़ते लाल होकर झुक जाएँगी सारे खेत की बालियाँ—। मलदहियाटोली पर जा रहा था, अपने खेत में धान देखकर आँखें जुड़ा गई। सच कहता हूँ, पँचसीस तोड़ते समय उँगलियाँ काँप रही थीं मेरी!”
बिरजू ने धान की एक बाली से एक धान लेकर मुँह में डाल लिया और उसकी माँ ने एक हल्की डाँट दी—“कैसा लुक्कड़ है तू रे!—इन दुश्मनों के मारे कोई नेम- धरम जो बचे!”
“क्या हुआ, डाँटती क्यों है?”
“नवान्न के पहले ही नया धान जुठा दिया, देखते नहीं?”
“अरे, इन लोगों का सबकुछ माफ है। चिरई-चुरमुन हैं ये लोग!”
“दोनों के मुँह में नवान्न के पहले नया अन्न न पड़े।”
इसके बाद चम्पिया ने भी धान की बाली से दो धान लेकर दाँतों-तले दबाया—“ओ मैया! इतना मीठा चावल!”
“और गमकता भी है न दिदिया?” बिरजू ने फिर मुँह में धान लिया।
“रोटी-पोटी तैयार कर चुकी क्या!” बिरजू के बाप ने मुस्कुराकर पूछा।
“नहीं!” मान-भरे सुर में बोली बिरजू की माँ, “जाने का ठीक-ठिकाना नहीं— और रोटी बनती है!”
“वाह! खूब हो तुम लोग!—जिसके पास बैल है, उसे गाड़ी मँगनी नहीं मिलेगी भला? गाड़ीवालों को भी बैल की कभी कमी होगी।—पूछूँगा तब कोयरीटोलावालों से!—ले : जल्दी से रोटी बना ले।”
“देर नहीं होगी!”
“अरे, टोकरी-भर रोटी तो तू पलक मारते बना लेती हैय पाँच रोटियाँ बनने में कितनी देर लगेगी!”
अब बिरजू की माँ के होंठों पर मुस्कुराहट खुलकर खिलने लगी। उसने नज़र बचाकर देखा, बिरजू का बप्पा उसकी ओर एकटक निहार रहा है।—चम्पिया और बिरजू न होते तो मन की बात हँसकर खोलते देर न लगती। चम्पिया और बिरजू ने एक-दूसरे को देखा और खुशी से उनके चेहरे जगमगा उठे—“मैया बेकार गुस्सा हो रही थी न!”
“चप्पी! जरा घैलसार में खड़ी होकर मखनी फुआ को आवाज़ दे तो!’
“ऐ फू-आ-आ! सुनती हो फूआ-आ! मैया बुला रही है!”
फुआ ने कोई जवाब नहीं दिया, किन्तु उसकी बड़बड़ाहट स्पष्ट सुनाई पड़ी—“हाँ! अब फुआ को क्यों गुहारती है? सारे टोले में बस एक फुआ ही तो बिना नाथ- पगहियावाली है।”
“अरी फुआ!” बिरजू की माँ ने हँसकर जवाब दिया, “उस समय बुरा मान गई थी क्या? नाथ-पगहियावाले को आकर देखो, दोपहर रात में गाड़ी लेकर आया है! आ जाओ फुआ, मैं मीठी रोटी पकाना नहीं जानती।”
फुआ काँखती-खाँसती आई—“इसी से घड़ी-पहर दिन रहते ही पूछ रही थी कि नाच देखने जाएगी क्या? कहती, तो मैं पहले से ही अपनी अँगीठी यहाँ सुलगा जाती।”
बिरजू की माँ ने फुआ को अँगीठी दिखला दी और कहा, “घर में अनाज-दाना वगैरह तो कुछ है नहीं। एक बागड़ है और कुछ बरतन-बासन। सो रात-भर के लिए यहाँ तम्बाकू रख जाती हूँ। अपना हुक्का ले आई हो न फुआ?”
फुआ को तम्बाकू मिल जाए, तो रात-भर क्या, पाँच रात बैठकर जाग सकती है। फुआ ने अँधेरे में टटोलकर तम्बाकू का अन्दाज़ किया।—ओ-हो! हाथ खोलकर तम्बाकू रखा है बिरजू की माँ ने! और एक वह है सहुआइन! राम कहो! उस रात को अफीम की गोली की तरह एक मटर-भर तम्बाकू रखकर चली गई गुलाब-बाग मेले और कह गई कि डिब्बी-भर तम्बाकू है।
बिरजू की माँ चूल्हा सुलगाने लगी। चम्पिया ने शकरकन्द को मसलकर गोले बनाए और बिरजू सिर पर कड़ाही औंधाकर अपने बाप को दिखलाने लगा—“मलेटरी टोपी! इस पर दस लाठी मारने से भी कुछ नहीं होगा!”
सभी ठठाकर हँस पड़े। बिरजू की माँ हँसकर बोली, “ताखे पर तीन-चार मोटे शकरकन्द हैं, दे दे बिरजू को चम्पिया, बेचारा शाम से ही—”
“बेचारा मत कहो मैया, खूब सचारा है!” अब चम्पिया चहकने लगी, “तुम क्या जानो, कथरी के नीचे मुँह क्यों चल रहा था बाबू साहब का!”
“ही-ही-ही!”
बिरजू के टूटे दूध के दाँतों की फाँक से बोली निकली, “बिलैकमारटिन में पाँच शकरकन्द खा लिया! हा-हा-हा!”
सभी फिर ठठाकर हँस पड़े। बिरजू की माँ ने फुआ का मन रखने के लिए पूछा, “एक कनवाँ गुड़ है। आधा दूँ फुआ?”
फुआ ने गद्गद होकर कहा, “अरी शकरकन्द तो खुद मीठा होता है, उतना क्यों डालेगी?”
जब तक दोनों बैल दाना-घास खाकर एक-दूसरे की देह को जीभ से चाटें, बिरजू की माँ तैयार हो गई। चम्पिया ने छींट की साड़ी पहनी और बिरजू बटन के अभाव में पैंट पर पटसन की डोरी बँधवाने लगा।
बिरजू की माँ ने आँगन से निकल गाँव की ओर कान लगाकर सुनने की चेष्टा की—“उँहुँ, इतनी देर तक भला पैदल जानेवाले रुके रहेंगे?”
पूर्णिमा का चाँद सिर पर आ गया है।—बिरजू की माँ ने असली रूपा का मँगटीक्का पहना है आज, पहली बार। बिरजू के बप्पा को हो क्या गया है, गाड़ी जोतता क्यों नहीं, मुँह की ओर एकटक देख रहा है, मानो नाच की लाल पान की— गाड़ी पर बैठते ही बिरजू की माँ की देह में एक अजीब गुदगुदी होने लगी। उसने बाँस की बल्ली को पकड़कर कहा, “गाड़ी पर अभी बहुत जगह है। जरा दाहिनी सड़क से गाड़ी हाँकना।”
बैल जब दौड़ने लगे और पहिया जब चूँ-चूँ करके घरघराने लगा तो बिरजू से नहीं रहा गया—“उड़नजहाज की तरह उड़ाओ बप्पा!”
गाड़ी जंगी के पिछवाड़े पहुँची। बिरजू की माँ ने कहा, “जरा जंगी से पूछो न, उसकी पुतोहू नाच देखने चली गई क्या?”
गाड़ी के रुकते ही जंगी के झोंपड़े से आती हुई रोने की आवाज़ स्पष्ट हो गई। बिरजू के बप्पा ने पूछा, “अरे जंगी भाई, काहे कन्ना-रोहट हो रहा है आँगन में?”
जंगी घूर ताप रहा था, बोला, “क्या पूछते हो, रंगी बलरामपुर से लौटा नहीं, पुतोहिया नाच देखने कैसे जाए! आसरा देखते-देखते उधर गाँव की सभी औरतें चली गई।”
“अरी टीशनवाली, तो रोती है काहे!” बिरजू की माँ ने पुकारकर कहा, “आ जा झट से कपड़ा पहनकर। सारी गाड़ी पड़ी हुई है! बेचारी!—आ जा जल्दी!”
बगल के झोंपड़े से राधे की बेटी सुनरी ने कहा, “काकी, गाड़ी में जगह है? मैं भी जाऊँगी।”
बाँस की झाड़ी के उस पार लरेना खवास का घर है। उसकी बहू भी नहीं गई है। गिलट का झुनकी-कड़ा पहनकर झमकती आ रही है।
“आ जा! जो बाकी रह गई हैं, सब आ जाएँ जल्दी!”
जंगी की पुतोहू, लरेना की बीवी और राधे की बेटी सुनरी, तीनों गाड़ी के पास आई। बैल ने पिछला पैर फेंका। बिरजू के बाप ने एक भद्दी गाली दी—“साला! लताड़ मारकर लँगड़ी बनाएगा पुतोहू को!”
सभी ठठाकर हँस पड़े। बिरजू के बाप ने घूँघट में झुकी दोनों पुतोहुओं को देखा। उसे अपने खेत की झुकी हुई बालियों की याद आ गई।
जंगी की पुतोहू का गौना तीन ही मास पहले हुआ है। गौने की रंगीन साड़ी से कड़वे तेल और लठवा-सिन्दूर की गन्ध आ रही है। बिरजू की माँ को अपने गौने की याद आई। उसने कपड़े की गठरी से तीन मीठी रोटियाँ निकालकर कहा, “खा ले एक-एक करके। सिमराहा के सरकारी कूप में पानी पी लेना।”
गाड़ी गाँव से बाहर होकर धान के खेतों के बगल से जाने लगी। चाँदनी, कातिक की!—खेतों से धान के झरते फूलों की गन्ध आती है। बाँस की झाड़ी में कहीं दुद्धी की लता फूली है। जंगी की पुतोहू ने एक बीड़ी सुलगाकर बिरजू की माँ की ओर बढ़ाई। बिरजू की माँ को अचानक याद आई चम्पिया, सुनरी, लरेना की बीवी और जंगी की पुतोहू, ये चारों ही तो गाँव में बैसकोप का गीत गाना जानती हैं।—खूब!
गाड़ी की लीक धनखेतों के बीच होकर गई। चारों ओर गौने की साड़ी की खसखसाहट-जैसी आवाज़ होती है।—बिरजू की माँ के माथे के मँगटीक्के पर चाँदनी छिटकती है।
“अच्छा, अब एक बैसकोप का गीत गा तो चम्पिया!—डरती है काहे? जहाँ भूल जाओगी, बगल में मासटरनी बैठी ही है!”
दोनों पुतोहुओं ने तो नहीं, बिन्तु चम्पिया और सुनरी ने खँखारकर गला साफ़ किया।
बिरजू के बाप ने बैलों को ललकारा—“चल भैया! और जरा जोर से!—गा रे चम्पिया, नहीं तो मैं बैलों को धीरे-धीरे चलने को कहूँगा।”
जंगी की पुतोहू ने चम्पिया के कान के पास घूँघट ले जाकर कुछ कहा और चम्पिया ने धीमे-से शुरू किया—“चन्दा की चाँदनी—”
बिरजू को गोद में लेकर बैठी उसकी माँ की इच्छा हुई कि वह भी साथ-साथ गीत गाए। बिरजू की माँ ने जंगी की पुतोहू की ओर देखा, धीरे-धीरे गुनगुना रही है वह भी। कितनी प्यारी पुतोहू है! गौने की साड़ी से एक खास किस्म की गन्ध निकलती है। ठीक ही तो कहा है उसने! बिरजू की माँ बेगम है, लाल पान की बेगम! यह तो कोई बुरी बात नहीं। हाँ, वह सचमुच लाल पान की बेगम है!
बिरजू की माँ ने अपनी नाक पर दोनों आँखों को केन्द्रित करने की चेष्टा करके अपने रूप की झाँकी ली, लाल साड़ी की झिलमिल किनारी, मँगटीक्का पर चाँद।—बिरजू की माँ के मन में अब और कोई लालसा नहीं। उसे नींद आ रही है।
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