अब तक वी नॉट मेट
राजकमल ब्लॉग के इस अंक में पढ़ें, मलय जैन की किताब 'हलक़ का दारोग़ा' से एक व्यंग्य।

ऊप्स...! वह कितने फ़िल्मी ढंग से हमें मिली थी! मगर उतने ही ग़ैर फ़िल्मी ढंग से चली गई थी। कैसी अजब बात है, उसके एक फोन के लिए पिछले कई बरस से हम एक बचकाना ख़्वाब देखते रहे कि कब वह बिना हैलमेट पहने सड़कों पर निकले और पुलिस उसे धर दबोचे।

यह बाँका सजीला नौजवान यानी बन्दा ख़ुद, तब चालीस पार था। भोपाल के लिए शताब्दी एक्सप्रेस में चढ़ा था और मना रहा था कि बगल वाली सीट पर कोई ख़ब्ती, बड़बोला या नींद में ऊपर लुढ़कने वाला उबाऊ यात्री आकर न बैठ जाए। मगर हुज़ूर, उस रोज़ हमारी किस्मत मेहरबान थी। क्योंकि तभी हू-ब-हू वह होना शुरू हुआ जैसा केवल फ़िल्मों में होता था...हम, यानी हीरो (हो सकता है आप हमें हीरो न मानें, मगर हम ऐसी ख़ुशफ़हमी के लिए स्वतंत्र हैं) के बगल की खाली सीट पर हीरोइन की एंट्री और प्रेम की फुलझड़ियों की फस्किलास शुरुआत।

चूँकि कोई हसीना जब आती है तो ख़ुशबू का झोंका अपने साथ लाती है, ऐसी परम्परा हिन्दी साहित्य के शृंगार से जुड़े प्रसंगों में अनिवार्यतः पाई जाती है। तो साहब, एक हसीना आई। अपने वाले ही डिब्बे में। हिन्दी साहित्य की शृंगार परम्परा के अनुरूप ख़ुशबू का एक झोंका भी लाई। ग्वालियर स्टेशन से अचानक मुँह पर नक़ाब डाले, आँखों पर गॉगल चढ़ाए काँच के स्लाइडिंग डोर को खोलकर वह अन्दर दाख़िल हुई थी। चुस्त लो वेस्ट जीन्स, कसा हुआ टॉप और दूर तक लहराती केश राशि...मतलब टिप से टॉप तलक एकदम टिप्पे टॉप।

हम उस भाग्यशाली यात्री की कल्पना कर रहे थे जिसकी बगल में वह बैठने वाली थी। काश, वह भाग्यशाली और कोई नहीं, हम ही हों, फिर भले रास्ते भर अगली बक झक करे, नींद में ऊपर लुढ़के, बल्कि कन्धे पर सिर रखकर सो ही क्यों न जाए, सब मंज़ूर कि तभी हमें चिकोटी काट कर देखना पड़ा कि हम जाग रहे हैं।

आपको क्या बताएं, हमारे ठीक क़रीब आकर उसने नक़ाब की दीवार गिरा दी और फिर उसकी मिश्री-सी आवाज़ हमारे कानों में घुली, “एक्सक्यूज़ मी, इज़ इट ट्वेंटी फ़ोर?”

वह अपनी कमसिन हथेलियों में ई टिकट थामे थी और देखिए हमारी क़िस्मत, वह सीधे हमसे ही मुख़ातिब थी। हमने पाया कि हमारी बांछें बगिया के गुलाब की भाँति खिल उठी थीं। हमने सहमति में सिर हिलाते हुए झट उसकी सीट पर से अपनी मैगज़ीन खींच ली और मन के लड्डुओं को यथासम्भव छिपाते हुए हौले से मुस्करा दिए।

उसके पीछे-पीछे एक बड़ा-सा सूटकेस और भारी-भरकम दो बैग लादे कुली भी आया था जिसे उसने बड़े ही लापरवाह अन्दाज़ में सौ-सौ के दो नोट पकड़ा दिए थे। वह धप्प से हमारे बगल में आ बैठी और अपना वज़न हमारे ऊपर लादते हुए जीन्स की पिछली पॉकेट में वालेट रखने लगी।

‘ओह आजकल की लड़कियाँ!’ हम सकुचाए। सकुचाए क्या, छुई-मुई की भाँति एक ओर सिकुड़ गए।

उसने सर्र से हैंडबैग की ज़िप खोल आईपैड निकाला और उसे ऑन करते करते दूसरे हाथ में पकड़े स्मार्ट फोन पर बतियाने लगी। गहरे नीले और फ़िरोज़ी के बीच के किसी रंग की नेलपॉलिश से सजी अपनी नाज़ुक उँगलियों से आईपैड पर खेलती वह कोई पन्द्रह मिनट हँस-हँस कर बतियाती रही। किससे और क्या बतिया रही थी, यह हम कोशिश करने पर भी नहीं जान सके। जब वह उन्मुक्तता के साथ खिलखिलाती, हम लटपटा जाते। यूँ तो चोरी क़ानूनन गलत थी, मगर न जाने क्यों हम सारे क़ायदे और क़ानून भूलकर उसकी मुस्कराहट को पेशेवर चोट्टे की भाँति कनखियों से चुराने में मशगूल हो गए थे। अचानक लगा कि चोरी पकड़ ली गई। वह फोन बीच में ही काटकर हमारी ओर घूम गई, “हाय हैंडसम,” वह मुसकराकर बोली।

अबोले की दीवार टूट गई। एक अनजान मगर ख़ूबसूरत और जवान लड़की से पहली मुलाकात के पहले ही वार्तालाप में अपने लिए हैंडसम का विशेषण टैग होते ही हमारे मन में लड्डुओं की फूटमफाट होने लगी।

वह हाथ बढ़ाकर बोली, “आय एम सुश...आई मीन सुष्मिता, मैनेजमेंट स्टूडेंट।” हमने चट से हाथ मिलाया और इस गोल्डन हैंडशेक पर अपने हाथ को धन्य माना कि वह चहकी, “ओ के...तो हम भोपाल तक साथ हैं, हाऊ लकी”

एक पल को हम चक्कर में पड़े। वह किसे लकी बताना चाह रही है, लॉटरी तो फ़िलहाल हमारी लगी थी।

हमने मुस्कराकर कहा, “बिलकुल, भोपाल तक साथ हूँ,” फिर अगली के बारे में और जानकारी जुटाने की गरज़ से पूछा, “आप इतना सारा सामान लेकर अकेले ही जा रही हैं?”

“मैं अपने पेरेंट्स के साथ नहीं रहती और अकेले ही आती जाती हूँ,” उसने अपने अकेलेपन पर कुछ ज़्यादा ही ज़ोर देते हुए कहा।

‘अकेली लड़की खुली तिजोरी की तरह होती है,’ हमारे दिमाग में ‘जब वी मेट’ का डायलॉग कौंधा। मगर यह भी ख़याल आया कि घर पर हमारी एक अदद श्रीमती जी भी हैं जिन्हें नक़ाब में बँधी हुईं इस प्रकार की खुली तिजोरियाँ सख़्त और ख़ब्त की हद तक नापसन्द हैं। बल्कि वह वास्कोडिगामा एवं कोलम्बस से कहीं ज्यादा खोजी भावना के साथ इस खोज में रहती हैं कि कहीं हम किसी ऐसे ही खुली तिजोरियों वाले ख़ज़ाने की खोज में न लग जाएँ।

शुक्र था, आज श्रीमती जी साथ नहीं थीं और हम दोनों हाथों से ख़ज़ाना उलीचने के लिए स्वतंत्र थे।

हमें श्रीमती जी के विचारों में खोया देख उसने हमारे आगे चुटकी बजाई और लपककर बोली, “कहाँ खो गए बॉस?”

हम चुटकी की आवाज़ से यथार्थ में लौटे। उसने एक बार फिर ति‌‌िलस्मी मुस्कराहट का इन्द्रजाल रचा और अगले आधे घंटे के लिए उस जाल में हमें फँसाकर ज़ालिम आईपैड में मशगूल हो गई। हम मोबाइल में दीदे घुसा नाहक ही वाट्स एप्प के घिसे मैसेज खँगालते मसरूफ़ियत का दिखावा करते रहे। मगर सच यह था कि हम चुप्पी के निष्ठुर निर्वात से मुक्त होने के लिए व्यग्र थे और अचानक जैसे फिर उसने हमारी मंशा भाँप ली।

“एक्ट्रीमली सॉरी, मैंने आपको बोर किया,” वह हमारी आँखों में देखकर हौले से मुस्कराई। ऐसा लगा मानो सचमुच उसे अफ़सोस हो आया हो। उसने अपने सुनहले हैंडबैग में हाथ डाला और एक बड़ी चॉकलेट बार खींचकर बाहर निकाली।

“यू लव चॉकलेट्स?” सवाल उसने पूछा मगर हमारे जवाब का इन्तज़ार किए बग़ैर ही बोली, “इट्स ऑसम मैन, मेरी जान बसती है इस स्विस चॉकलेट में,” उसने चॉकलेट का रैपर निकालकर एक पीस हमारी ओर बढ़ाया। हम शरीफ़ निग़ाहों के साथ मुस्कराए मगर बिना किसी शराफ़त को प्रदर्शित किए चॉकलेट लपक भी ली।

उसने बड़े प्यार से चॉकलेट को देखते हुए अपने मुँह में डाल लिया, “उम्म...यम्मी...,” फिर पूरे स्वाद को अपने दिल में उतारते हुए पूछा “यू डू सम काइंड ऑफ बिजनेस या एनी नौकरी-वौकरी टाइप का कुछ?”

उसकी भाषा और व्याकरण अजब थी मगर सवाल साफ था। हमने अपने चश्मे को आँखों से हटाकर माथे से ऊपर स्थापित किया फिर ति‌लस्मी अन्दाज़ में कहा, “बिज़ी रहने वाली नौकरी करता हूँ।”

“मीन्स?” उसने चॉकलेट का एक टुकड़ा मुँह में रखा और करीना की तरह पलकें झपकाकर पूछा।

हमने अपनी मन्दवाणी को यथासम्भव दबंगवाणी में तब्दील करते हुए कहा, “मैं पुलिस ऑफिसर हूँ।”

“ओ...नो...पुलिस? पुलिस वाले बड़े ख़राब होते हैं,” वह एकदम से बोली। उसका मुँह, जो अब तक स्विस चॉकलेट के प्रभाव से यम्मी यम्मी कर रहा था, एकाएक कसैलेपन से भर गया। उसकी इस तिरस्कार भरी प्रतिक्रिया पर हम निराशा से भर गए और दबंगवाणी यथास्थिति में लौट आई। हमारी ग़लतफ़हमी थी कि हमारे ओहदे और महक़मे का उस पर अच्छा रोब पड़ेगा और वह ख़ुश हो जाएगी। “ऐसा क्यों?” हमारे स्वर में हैरानी भी थी और नैराश्य भी।

“जब देखो, तब मेरी गाड़ी का चालान बना देते हैं। अब बताइए, भला मैं हेलमेट पहनना भूल जाती हूँ तो कौन सा गुनाह कर देती हूँ? आख़िर पुलिसवालों को ख़ूबसूरत नादान लड़कियों का कुछ तो ख़याल रखना चाहिए।”

“हाँ यह बात तो है,” हमने प्रशंसा भरी निगाहों से अगली के ख़ूबसूरत नादानपन को खोजते हुए कहा। उसने हमारी प्रशंसा भरी निगाहों को पूरा ऐहतराम प्रदान करते हुए आँखों में आँखें डालकर चुलबुले अन्दाज़ में कहा, “लेकिन, यू आर नॉट दैट काइंड ऑफ ख़राब पुलिसवाले, आप तो एकदम सिंघम की तरह नजर आते हो।”

तारीफ़ भरा अन्दाज़ ऐसा था कि कौन न लटपटा जाए। अपने मन के बौराए वन में एक साथ कई मयूर पंख फैलाकर चुलबुल पांडे की तरह हुड़ हुड़ करते दबंगनृत्य करने लगे। भीतर के वरदी वाले पांडे जी एकाएक ड्यूटी पर आकर सीटियाँ बजाने लगे।

वह एक बार फिर बोली, “यू लुक लाइक सिंघम इनडीड बट...” उसने फिर हमें रहस्य की ओर धकेला।

“बट?” हम ति‌लस्म से बाहर आने को बेताब थे। वह लापरवाह अन्दाज़ में बोली, “नथिंग टू टशन मैन, थोड़ा टमी ज्यादा है।”

“टमी?” हमें अंग्रेज़ी के अपने अल्पज्ञान पर शर्म आई।

वह समझ गई। उसने हमारी तोन्द में अपनी नाज़ुक उँगली का वही नीला फ़िरोज़ी पैना सा नाखून कोंचा और बोली, “यू आर सो डंबबैल यार। मैं कह रही हूँ, आपकी तोन्द बड़ी ख़राब है।”

यों नाखून तोन्द में कोंचा गया मगर ज़ुबान की इस निर्दयी कोंच से हमारी खुशफ़हमी का गुब्बारा एकाएक फूट गया। प्रेम की सीटियाँ बजाते मन के पांडे जी ड्यूटी से एकदम ग़ैरहाज़िर हो गए। दबंगनृत्य करते मनमयूर चकनाचूर हो गए। झेंप से दबे हम विंडो से बाहर झाँकने लगे। ‘उल्लू की पट्ठी को हमारे शरीर में बस एक तोन्द ही नजर आई। सँवारे हुए बाल, रोबदार मूँछें और पुलिसिया अन्दाज़, सब फ़िज़ूल!’ लेकिन, इसने हमें सिंघम का ख़िताब क्यों दिया...तारीफ़ या तौहीन, हम फिर चक्कर में फँस गए और खिड़की से बाहर देखने का प्रयास करते देर तक गुत्थी में उलझे रहे।

वह बड़े देर से मोबाइल नेटवर्क की खोज में थी और व्यग्र हो रही थी। नेटवर्क मिलते ही खिलखिलाहट के साथ उस अनजान से बतियाने में मशगूल हो गई।

बीस मिनट फिर उसी मन्द स्वर में खिलखिलाने के बाद उसे दोबारा हमारी फ़िक्र हो आई। वह हमारे मायूस चेहरे को देखकर मिनरल वाटर की बोतल गटकती हुई बोली, “चिलैक्स मैन चिलैक्स।”

हम फिर उज्बकों की भाँति उसका मुँह ताकने लगे। इंगलिश तो थोड़ा-बहुत हमारी समझ में आती है, हिंगलिश भी समझ आती है, मगर आजकल के ये फेसबुकिया लड़के-लड़कियाँ कौन सी गच्च-पच्च ज़ुबान बोलते हैं, समझ ही नहीं आता।

अगली इस भाषायी बेचारगी को झट समझ गई और हमारे भाषाज्ञान में इज़ाफ़ा करती हुई बोली, “चिलैक्स मीन्स चिल एन रिलैक्स।”

“ओह,” हमने झेंपते हुए कहा।

“फिकर नॉट मैन, थोड़ी-बहुत टमी सभी की निकलती है। मेरे बाप को देखोगे तो हँसोगे, टमी नहीं, टमा है उसका, “अपने दोनों हाथों को पेट से आगे ले जाकर तोन्द का इशारा करती वह फिर खिलखिलाई।

हम टमी टशन से उबरे नहीं थे। यहाँ तक कि उसके बाप (?) वाले दृष्टान्त से भी हमारा कष्टान्त नहीं हुआ था।

हमने स्पष्टीकरण देने का प्रयास किया, “दरअसल, कुछ दिनों से जिम नहीं जा पा रहा न, इसीलिए पेट थोड़ा बढ़ गया है।”

“ओ ऽऽ हो ऽऽ बडी, तो आप जिम भी जाते हैं,” हमें टमी टशन से बाहर खींचती हुई वह फिर चहकने लगी।

“हाँ-हाँ, बिलकुल रेग्युलरली।”

“तभी आपकी बॉडी एकदम फिट है, माचोमैन,” कहते हुए उसने अपनी स्लीवलैस संगमरमरी बाँहों को कोहनी से मोड़कर मसल्स दिखाने का यत्न किया।

“रियली?” हम बेचैन हो उठे।

“रियली,” उसने अपनी बात पर मोहर लगाकर हमें पूरे अधिकार के साथ फिटनेस सर्टीफिकेट जारी कर दिया। हमारा ग़ुमशुदा जोश एक बार फिर दस्तयाब हो गया और बन्दा फिर आसमान में उड़ने लगा। उसने कुछ इतने तेज स्वर में रियली बोला था कि हमारे आसपास बैठी सवारियाँ पलटकर हमारी ओर देखने लगीं। ख़ासतौर पर खिचड़ी बालों और चुँधियाई आँखों वाला वह बुड्ढा, जो दूसरी ओर साथ वाली सीट पर बैठा था और जिस भूखी निगाह से हमारे बगल में बैठी इस हुस्न की परी को देख रहा था, उससे साफ़ तौर पर यह अन्दाज़ लगाया जा सकता था कि कब्र में पैर लटकाए बैठा यह बुड्ढा पैदाइशी लम्पट है। इस परी से हमारी मुलाक़ात को जुम्मा-जुम्मा कुछेक मिनट हुए थे, मगर न जाने क्यों हम उस पर अपना हक़ मानने लगे थे और किसी की भी भूखी निगाहें हमारी बरदाश्त के बाहर हो रही थीं। हुस्न की परी इन सब भुक्खड़ और जल-भुनकर स्याह होते डाहपुरुषों से एकदम बेपरवाह रहते हुए केवल हम, और हम पर मेहरबान रही। यह दीगर बात है कि बुड्ढे समेत बाकी सवारियों के चेहरे पर ईर्ष्या के साँप लोटते देखकर हमें बड़ी ठंडक महसूस हो रही थी और हम दोतरफा आनन्द उठाने में बिलकुल भी नहीं चूक रहे थे।

आसमानी साफ़ वरदी में बैयरे यहाँ से वहाँ होते चाय-नाश्ता परोस रहे थे। कुछ वक़्त हमने बटर टोस्ट और गरम समोसा निबटाने में बिताया। अगली खाने की शौकीन थी, बल्कि यह कहें कि एकदम खाऊ थी। सब कुछ निबटाकर अन्त में कैडबरी एकलेयर्स को मुँह में डाल कहने लगी, “डोंट माइंड बॉस, मैं बड़ी फूडी हूँ।” फिर एकाएक बोली, “एक बात पूछूँ?”

“अ...अअअ...पूछिए।”

वह ऐन हमारे कान के पास अपना मुँह लाकर फुसफुसाई, “आपका फ़र्स्ट क्रश क्या है...बताओ न मज़ा आएगा?”

“क्रश...?” हम चक्कर में पड़ गए। आधी अँग्रेजी तो भावार्थ की पटरियों पर दौड़कर ही पल्ले पड़ती है। इस वक़्त इस शब्द का क्या भावार्थ निकालना चाहिए! हमारा दिमाग़ भी शताब्दी की तरह इस ख़ब्ती सवाल पर दौड़ रहा था। क्रश मतलब तो कचूमर निकालना होता है। यह अजीबोगरीब लड़की क्या कुछ अजीबोगरीब सवाल पूछती है!

“बताइए न...” मादक मुस्कान के साथ उसने बेसबर होने का प्रदर्शन कर कहा।

हमें याद आया, सबसे पहले हमने मिडिल स्कूल में अपने एक सहपाठी की मरम्मत कर उसका कचूमर निकाला था।

हम गर्व से बोले, “ओ हो फ़र्स्ट क्रश? यह तब की बात है जब मैं सिक्स्थ क्लास में पढ़ता था।”

“क्या बात कर रहे हो बॉस, इतनी कम एज में क्रश? ग्रेट....यू आर सो इंटरेस्टिंग...मैन” वह जिज्ञासा में एकाएक हमसे सट गई। हमें इस अचानक सटने पर जितना उम्दा अहसास हुआ, उतनी ही हैरानी भी हुई, आखिर इस छोकरी को मारधाड़ में इतनी दिलचस्पी क्यों है? फिर भी हमने ख़ुलासा करते हुए कहा, “हाँ, बस दस साल का था मैं, वह भी मेरी क्लास में पढ़ता था।”

“पढ़ता था?...था? शिट...” उसने था पर कुछ ज्यादा ही गुस्सा जताकर कहा, “छिः यू डर्टी गाय,” वह छिटककर दूर खिसक गई।

हमें समझ नहीं आया। पहले क्रश की बात डर्टी कहाँ से हो गई और चलो जैसी भी हो, मारधाड़ के बीच में यह गाय कहाँ से घुस आई। हमने अन्दाज़ लगाया, यह गाय भी ऐसा ही कोई बडी वडी, चिलैक्स विलैक्स जैसा ही कोई गच्च-पच्च शब्द है।

उसके ग़ुस्से को क़ाबू में लाने की नीयत से हमने बाँहों की मछलियों को एक बार फिर वीरता के समन्दर में तैराते हुए कहा, “इसके बाद तो कई लोगों को क्रश किया।”

“मीन्स?” उसने फिर आश्चर्य से हमारी ओर देखा।

“मतलब, इसके बाद हमने कई बदमाशों का कचूमर निकाला। यू नो आई एम अ पुलिस ऑफिसर।” हमने ढिशुम-ढिशुम का इशारा कर बताया।

उसने अपना माथा ठोंक लिया। फिर झिड़की देकर बोली, “माई गॉड, यू एंग्री बर्ड, तुम यूँ क्रश करने की बात बता रहे थे और मैं तुम्हें गे समझ बैठी थी। रियली, यू आर सो फ़नी।” वह आप से सीधे तुम पर आती हमें कोहनी मारकर बोली, “मैं तो पहले इश्क़ के बारे में पूछ रही थी, आई मीन तुम्हारे प्यार की पहली पुंगी कहाँ बजी थी?” एकाएक वह आइटम सांग की तरह फ़ोश और सस्ती होती दिखी। उसने जितना ज़ोर ‘इश्क़’ पर दिया, उतनी ही तेज़ी से ‘प्यार की पुंगी’ बोलते वक़्त अपनी बाईं आँख दबाई। इस दबाव में हम भीतर तक लजा गए। कैसे कहें प्यार की पुंगी तो होश सँभालने के पहले ही बजनी शुरू हो गई थी। वह खिलखिला पड़ी, “यार तुम तो शरमाते भी हो। कितने शाय हो।”

हमें हँसी आ गई। लो, अभी इसके लिए हम डर्टी गाय थे, अब शाय हो गए।

उसने एक बार फिर चॉकलेट हमारी ओर बढ़ाई। हम झिझकते हुए रैपर खोल ही रहे थे कि भोपाल पहुँचने का एलान होने लगा। वह झटके से खड़ी हो गई। पर्स से उसने अपना गॉगल निकालकर आँखों पर चढ़ाया फिर अपने हुस्न को वापस स्कार्फ के नक़ाब में क़ैद करती हुई बोली, “आई डोंट नो, कुली अन्दर आएगा या नहीं, आप मेरा सूटकेस ऊपर से उतार देंगे प्लीज़,” शायद काम का स्वार्थ था न, तभी तो वह आग्रह करती हुई तुम से फिर आप पर आ गई।

हमने उसके विशालकाय सूटकेस और बैग्स को जैसे-तैसे प्लेटफार्म पर उतारा। इस दौरान चुँधी आँखों वाला बुड्ढ़ा व्यंग्य से हमारी ओर देखकर मुंडी हुई मूँछों में शैतानी से मुस्कराया। मगर हमारा ध्यान जल्द आँखों से ओझल होने जा रही उस अनजान नक़ाबपोश पर था जिसने नक़ाब की तरह अपने मन में भी न जाने क्या-क्या छिपा रखा था। उसके भारी सूटकेस को नीचे रखते ही उसने तारीफ़ का अन्तिम जाल फेंका, “थैंक्स...थैंक्स...यू आर सो स्ट्रांग मैन...ओ यस, तुमने अपना क्रश तो बताया नहीं, कम से कम सैल नम्बर ही बता दो।”

हमारे मन के लड्डुओं में एक बार फिर फूटने के लिए भगदड़ मच गई। इसका मतलब है सम्भावनाएँ ज़िन्दा हैं और अगली आगे भी मिलती रहेगी।

हमारा मोबाइल नम्बर सेव करती हुई वह बोली, “अब बिना हैलमेट के पकड़ी जाऊँगी तो आप ही को फोन करूँगी।”

हमारे मन का गुस्ताख़ चोर संकोच की हवालात तोड़कर एकाएक बाहर आ गया हम लड़ियाकर बोले, “ओहहोह...केवल पकड़ी जाने पर फोन करोगी, वैसे नहीं करोगी?”

“अकेली लड़की को देखकर छेड़ रहे हो अंकल? नॉटी एट फॉट्टी न?...” उसने शरारत भरे स्वर में ‘अंकल’ पर ज़ोर दिया।

हम आईने के सामने शर्मिंदा होते, इससे पहले उसने फिर गुगली डाली, “सी यू सिंघम,” जाते-जाते एक बार फिर ख़ुशफहमी के गड्ढे में हमें ढकेलकर उसने लापरवाही से हाथ हिलाया और उतने ही लापरवाह ढंग से कुली के पीछे दौड़ती भीड़ में गुम हो गई।

हम बडी, हैंडसम, सिंघम, एंग्री बर्ड और माचोमैन जैसे विशेषणों को लाइफ़ टाइम एचीवमेंट अवार्ड की तरह गले में लटकाए बरसों उसके एक फोन की प्रतीक्षा करते रहे। कुछ रोज़ पहले याद आया, उसने हमें गाय ही नहीं, बैल जैसा भी कुछ कहा था। क्या कहा था! हाँ, याद आया, उसने टमी वाली बात पर कहा था, यू आर सो डंबबैल यार। यही एक लफ़्ज़ था, जिसका अर्थ हमने अब तक नहीं जाना था। ज़िंगल बैल गाते हमने डिक्शनरी खोली और अगले ही पल उसमें लिखा ‘मूर्ख’ हमें मुँह चिढ़ा रहा था।

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