मृत्यु और हँसी
राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, प्यार की पीड़ादायी कथा, प्रदीप अवस्थी के उपन्यास 'मृत्यु और हँसी' का एक अंश। 

“प्लीज़...समझो मेरी बात को। मैंने जो सब कहा वह ग़ुस्से में कहा। माफ़ कर दो मुझे। एक बार मिलने आने दो। मिलकर सब ठीक हो जाएगा।”

इसी चक्रव्यूह में यह रिश्ता फँस गया था। लेकिन ऐसा सिर्फ़ वृंदा के लिए था। वह पानी को मुट्ठी में बाँधने की कोशिश कर रही थी। पानी जानता था कि यह असम्भव है। कुणाल जानता था कि यह असम्भव है। इसी तरह दिन-पर-दिन बातों में ज़हर घुलता चला गया। वृंदा की लगातार फ़ोन कॉल्स और मैसेज से कुणाल परेशान रहने लगा। उसे यह भी लगा कि वृंदा उस पर नज़र रख रही है। एक दिन ऑडिशंस के दौरान लगातार फ़ोन कॉल्स से परेशान होकर उसने फ़ोन उठाया और फट पड़ा—

“छोड़ दो मेरा पीछा...बख़्श दो मुझे”—इतना कहकर उसने फ़ोन काट दिया। इसके बाद कुछ दिनों तक उसके पास वृंदा का फ़ोन नहीं आया।

अन्दर की सारी आग राख में तब्दील होना कब शुरू होती है, यह स्वयं वह इनसान भी ठीक-ठीक नहीं समझ पाता जिसके साथ ऐसा हो रहा होता है। भला अंश कैसे समझ पाता। थोड़ा समय ज़रूर हो गया था लेकिन अंश अब तक अपनी माँ से नाराज़ फिरता था। वह उसे तकलीफ़ पहुँचाने के तरीक़े ढूँढ़ने लगा था। लेकिन वह यह नहीं जानता था कि उसकी माँ को अब इस बात की फ़िक्र नहीं थी। पीड़ा भी हम उन्हीं को देते हैं जिन पर हमारा थोड़ा हक़ होता है। हम जिसे पीड़ा पहुँचाते हैं, वह पीड़ा पहुँचाने का हक़ भी हमें वही शख़्स देता है जिसे हम पीड़ा पहुँचा रहे हैं। अंश अपने पिता का कुछ नहीं कर सकता था। अपनी माँ को ठेस पहुँचाने में वह सुकून ढूँढ़ता था। यही पीड़ा का उद्गम था। ऐसा करने में उसे ख़ुद से घृणा भी होती थी, तब भी वह ऐसा करता था। वह बात-बात में वृंदा को याद दिलाना चाहता था कि क्या हुआ था। जब वृंदा पर कोई असर नहीं पड़ता तो वह ख़ुद झुँझलाने लगता। होता बस इतना कि वृंदा के मन में भी अंश के लिए नफ़रत पनपती।

घर की हवाओं में ही दुख तैरने लगा था। वृंदा बहुत बुझी-बुझी रहती। अंश का लहजा गम्भीर हो गया था। ध्रुव पर इतना असर नहीं पड़ा था। लक्ष्मी आती थी तो देखती थी कि घर के माहौल में कैसा काटने वाला ख़ालीपन छा गया है। उसका सोचना यही था कि औरत ही घर को सँभालकर रख सकती है। जब औरत ने बाहर की ओर रुख़ किया तो घर बर्बाद हो गया। कुणाल को लेकर वृंदा के मन में मिले-जुले भाव चलते रहते थे। अपने अपमान पर वह तिलमिला उठी थी लेकिन अब भी कोशिश करना चाहती थी। लेकिन इस बार कुणाल ने उसे पूरी तरह धराशायी कर दिया। वृंदा ने उसे बस एक बार मिलने के लिए कहा इस भरोसे पर कि वह ऐसी कोई बात नहीं करेगी जिससे कुणाल को दिक़्क़त है। बाहर एक कैफ़े में मिलना तय हुआ।

“कैसे हो?”—पूछकर वृंदा कुणाल को देखती रही।

“ठीक हूँ”—कुणाल ने जवाब दिया। उसकी ओर देखकर पूछा—“तुम कैसी हो?”

उसकी ओर देखते ही कुणाल के मन में इच्छा उठी...उसे एक बार फिर पा लेने की। उसके शरीर को अपनी बाँहों में जकड़ने की। उसकी नँगी टाँगों में अपना चेहरा रखने की। उसे लगा कि वृंदा ने शादी वग़ैरह का चक्कर नहीं डाला होता तो यह अब भी सम्भव था। वह चाहता तो अभी उसके कहने पर वृंदा उसके साथ चल देती उसके घर। लेकिन उसे लगा कि अब रोकना ज़रूरी है। कुछ देर और इधर-उधर की बातों के बाद वृंदा ने कहा—“यार मेरी बात सुन लो बस। मैं नहीं कह रही कि एकदम जल्दी है। अभी तो राघव से भी अलग होना है क़ानूनी तौर पर। तब तक का समय तो वैसे भी है।” कुणाल झुंझला गया।

“मैंने लगातार एक ही बात कही है। मैं शादी नहीं कर सकता। इतनी बात तुम्हारी समझ में क्यों नहीं आ रही?”

वृंदा ने कुछ नहीं कहा। उसकी आँखों से आँसू बह निकले।

“अगर तुमने इस बात को यहीं नहीं ख़त्म किया तो मुझे मजबूरी में वह करना पड़ेगा जो मैं बिलकुल नहीं करना चाहता। उस राघव से बात करने का मेरा मन तो बिलकुल नहीं लेकिन अगर तुम यहीं नहीं रुकीं तो मुझे यह शादी और प्रॉपर्टी में हिस्सा देने वाली बात उसे बतानी पड़ेगी। फिर तुम जानो और वह जाने।”

इस बिंदु पर राघव और कुणाल एक हो गए वृंदा के लिए। एक टीम। एक ही टीम के दो खिलाड़ी जो उसके ख़िलाफ़ खेल रहे थे। वह उठकर चली गई।

आत्मसंयम ख़ुद को मारने की एक कला है जो वर्षों तक सब कुछ चुपचाप सहते चले जाने के बाद हासिल होती है। फिर जब वह संयम टूटता है तो दोबारा कोशिश करनी पड़ती है। वृंदा सोने की कोशिश करती थी। रात-भर विचारों की चकरघिन्नी नसों को मथती रहती थी। यदि रात में ठीक से नींद आ भी जाती तो नींद में कुछ ऐसा हो जाता जिससे अगला पूरा दिन तय हो जाता था। पूरे दिन वह अकेली और उदास रहती। जब आत्मसम्मान को इतनी-इतनी ठोकरें मारी जाती हैं, तो क्या बचता है इनसान में? क्या बचा था वृंदा में? प्यार पाने की इच्छा अगर ग़लत है तो क्या सही है दुनिया में? अकेले लोगों से यह दुनिया उन्हें और अकेला करके निपटती है। कितनी बड़ी विडम्बना है कि आप लगातार किसी के बारे में सोचते हुए मानसिक प्रताड़ना के दलदल में धँसते चले जाते हैं और उस इनसान को ज़रा भी अन्दाज़ा नहीं होता कि वह किसी के लिए कितना ज़रूरी है।

जो सपने हम देख तक नहीं पाते, वे हमें दिखाए जाते हैं और फिर उन्हें तोड़ दिया जाता है। वृंदा एक अबूझ घेरे में घूम रही थी। रात में कभी नींद खुलती थी तो खिड़की से अँधेरे में दूर तक दुख साफ़ नज़र आता था। बेचैनी होती थी। पीछे ही छूट गया था सब। वह कहाँ आगे जा रही थी। कितना कुछ बस छूटता जाता है। पीछे मुड़कर देखती थी तो लगता था कि सारे पुल ख़ुद ही तो ध्वस्त किए हैं। जब ग़ुस्सा आए तो क्या करना चाहिए। आप जिनको बहुत महत्त्व देते हैं, उनके लिए आप उतने ज़रूरी न रह जाएँ तो क्या करना चाहिए? कुछ तो करना चाहिए। वृंदा ने सोचा। उसे साहिर का ख़याल आया। उसने फ़ोन किया।

“यहाँ आ सकते हो? मेरे घर?”

साहिर थोड़ा हिचकिचाया।

“मुझे बस थोड़ी बात करनी है। कुणाल से तो हो नहीं पाती अब। सोचा तुम कुछ मदद कर पाओ।”

“ठीक है। शाम को आता हूँ।”

साहिर ने फ़ोन काट दिया। उसने सोचा कि कुणाल से बात करे। वह जानता था कि क्या चल रहा है। कुणाल ने ही बताया था सब। उसे लगा कुणाल उसे वहाँ जाने से रोकेगा। साहिर जाना चाहता था। जितना भी सम्भव हो सके, वह वृंदा को सुनना चाहता था। शाम को जब वह पहुँचा तो वृंदा अकेली थी। बच्चे बाहर खेलने गए थे। वृंदा को देखकर उसे थोड़ा दुख हुआ। उसका चेहरा बुझा हुआ था।
आँखों के नीचे काले गड्ढे पड़ गए थे। उसे देखकर कोई भी कह सकता था कि वह अपना ख़याल नहीं रख रही थी। अंश उसे उस हाल में देखता लेकिन कुछ नहीं पूछता। ध्रुव पूछता तो कहती कि तबीयत ख़राब है। और किसी को कोई फ़िक्र नहीं थी।

साहिर घर की चीज़ों को देखता रहा। इससे पहले वह यहाँ कुणाल के साथ आया था। कितना ख़ुशनुमा माहौल था और अब सब ख़ाली-ख़ाली। किसी चीज़ की कोई कमी नहीं थी इनके पास। हर तरह का वैभव था। वृंदा असहज-सी कुछ देर चुप रही जैसे किसी बात का इन्तज़ार हो, फिर उसने एक झटके में कह डाला—

“कुणाल अलग होना चाहता है। गालियाँ देता है मुझे मैं बात करने की कोशिश करती हूँ तो। मुझे क्या करना चाहिए?”

साहिर थोड़ा झिझका। उसे उम्मीद नहीं थी कि यूँ एकदम से वृंदा ख़ुद को खोलकर रख देगी।

“यह मैं कैसे बता सकता हूँ”...—उसने कहा। थोड़ा रुककर फिर उसने कहा—“...वैसे मुझे नहीं लगता कि आप कुछ कर सकती हैं।”

“मतलब कोई यूँ अपनी मर्ज़ी से, जब मन चाहे जाना चाहे तो उसे जाने दिया जाए...कुछ भी नहीं किया जा सकता?” यह सवाल वह जैसे साहिर से नहीं, बल्कि ख़ुद से कर रही थी।

“नहीं। कुछ नहीं किया जा सकता। जो जाना चाह रहा है, वह दरअसल जा चुका है। वह है ही नहीं। बस आपकी सोच में है”—साहिर ने इस तरह कहा जैसे ख़ुद पर बीती कोई बात कह रहा हो।

“और जो पीछे छूट जाए, उसका क्या?”

“उसका कुछ नहीं...सच में...उसका कुछ नहीं...वह कुछ नहीं कर सकता।”

“मैं उससे अलग नहीं होना चाहती”—वृंदा की आवाज़ में रुदन था।

“आप हो चुकी हैं।”

“क्या इनसान ऐसे ही जीने को अभिशप्त है?”

“पता नहीं...शायद...”—साहिर जैसे अतीत के किसी अध्याय में गिर रहा था।

“मैं उसके बिना जीने के बारे में सोच भी नहीं पाती। शुरू से जानती थी कि सब बहुत मुश्किल रहेगा। लेकिन सब कुछ मेरे हाथ से निकलता चला गया। तुम कुछ तो करो। तुम्हारा दोस्त है। तुम्हारी बात सुनेगा।”

“आप नहीं समझतीं। आपको लगता है कि सब ठीक हो सकता है। मुझे यह नहीं कहना चाहिए लेकिन कह रहा हूँ कि कुछ ठीक नहीं हो सकता। मैं अपनी ज़िन्दगी में अपने लिए कुछ ठीक नहीं कर पाया, आपके लिए क्या करूँ? कोई दूसरा मेरी बात क्या सुनेगा जब मैं ख़ुद अपनी बात नहीं सुन पाया। आपको बताता हूँ। मुझे सब साफ़-साफ़ दिखने लगा था लेकिन मैं नज़रंदाज़ करता था। इसलिए कि नाराज़ इनसान से सवाल पूछकर उसे और नाराज़ न करूँ। इसलिए कि इस ताक़त के खेल में मैं कमज़ोर प्यादा था, जैसे अभी आप हैं। जैसे भविष्य का सच मुझे नहीं पता था, उसे पता था। सच पूछिए तो मुझे आप पर तरस आता है। आप पर और आपके कारण ख़ुद पर। ऐसे हर इनसान पर जिसे सच नहीं दिखता। बार-बार दिखाया जाने वाला सच भी नहीं। सच अपने होने का कोई सबूत लेकर नहीं आता। वह आपसे कहता है कि उसे आपके साथ नहीं रहना, लेकिन आपको यह सच सुनाई नहीं देता। देता भी है तो आप इस पर भरोसा नहीं करना चाहतीं। मैं भी भरोसा नहीं करना चाहता था। आपको लगता है वह लौट आएगा। आप जितना कोशिश करेंगी, वह उतना और दूर भागेगा। इसलिए छोड़ दीजिए। रहने दीजिए। जाने दीजिए।”

वृंदा आश्चर्य में थी। उसे ख़राब भी लगा। उसका ध्यान इस बात पर गया ही नहीं कि साहिर अपनी कोई बात बता रहा था। वृंदा शायद इस मन:स्थिति में थी भी नहीं कि उसका ध्यान किसी और पर जाता।

“याद करने को हज़ार बातें हैं। भूलने को एक चेहरा। मैं भुला नहीं पाती। भुला पाऊँगी ही नहीं”—बोलते-बोलते वृंदा ने अपना चेहरा एक ओर घुमा लिया, आँसू छुपाने के लिए।

“किस तरह हम अपनी सोच में असलियत को अपने हिसाब से देखकर ख़ुद को ख़ुश रखने के जतन करते हैं। यह ख़ुद को धोखा देने जैसा है।”

“अगर ख़ुद को धोखा देकर ही हम बचा पाएँ ख़ुद को, तो क्या हर्ज़ है?”

“ठीक है। आप कोशिश कीजिए। मन में यह बात बची नहीं रहनी चाहिए कि काश थोड़ी और कोशिश की होती तो स्थितियाँ कुछ और होतीं। मैंने भी तो मर जाने की हद तक कोशिश की थी”—साहिर ने उठते हुए कहा।

“तुम बस एक बार उससे बात करना।”

“उम्मीद बहुत घातक शब्द है”— साहिर ने उसकी ओर देखते हुए कहा और बाहर निकल गया। वह सीढ़ियों तक पहुँचा ही था कि वृंदा दरवाज़े तक आई। साहिर ने मुड़कर उसकी ओर देखा।

“मेरा उसे नुक़सान पहुँचाने का भी मन करता है”—वृंदा ने कहा।

“पहुँचाइएगा मत। आपको ख़ुद तकलीफ़ होगी”—साहिर ने कहा और सीढ़ियों से नीचे उतरने लगा।

 

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