दुख, दर्द और उम्मीद का मौसम
विश्व कैंसर दिवस के मौके पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, अनन्या मुखर्जी की कैंसर डायरी 'ठहरती साँसों के सिरहाने से' का अंश 'दुख, दर्द और उम्मीद का मौसम।'

कुछ अच्छी नीयत वाले लोग जब मुझसे मिलने आते हैं तो मेरा हाथ पकड़कर रोने भी लगते हैं और कहते हैं, उन्हें यह जानकर बहुत दुख हुआ, तो मैं उनकी जाँघों को (मात्र महिलाओं की) थपथपाते हुए कहती हूँ, फिक्र मत करो मैं ठीक हो जाऊँगी। इस पर वह अजीब निगाहों से मुझे देखते हुए बुदबुदाती हैं कि मैं तो बड़ी बहादुर हूँ।

मैं सदा से मजबूत दिल की रही हूँ और इस बात का मुझे गर्व भी है। तो क्या मैं उदास नहीं हूँ? जब पहले पहल मुझे एक आक्रामक प्रकार के स्तन कैंसर के पहले चरण का पता चला तो मैं स्तब्ध रह गई और बहुत निराश भी हुई। पर जल्दी ही मैंने अपने आपको सँभाल लिया। मैंने तय कर लिया कि मैं ख़ुशदिल रहकर यह लड़ाई लड़ेंगी। सबसे अच्छे डॉक्टर्स का चुनाव कर, सेहतमंद खाना खाकर, प्रार्थनाबद्ध होकर पूरी दुनिया में बहुत निष्ठा और विश्वास के साथ यह सकारात्मक संदेश भेजूँगी कि मैं ठीक हो जाऊँगी। फिर मैंने जाना, उम्मीद कोई बहुत अच्छी चीज नहीं।

एक वर्ष बाद मुझे बताया गया कि मेरा स्तन कैंसर बढ़ गया है और मेटास्टेसिस शुरू हो गया है (यानी आपका कैंसर अपनी मुख्य जगह से हटकर दूसरे अंगों में फैल गया है) इसे बढ़ा हुआ कैंसर भी कहते हैं। इस दिशा में निवारण की बात भी चल रही है। मैंने अपने फ़ोन से गूगल किया और दोहरी सतर्कता बरतते हुए अपने लैपटॉप पर भी चैक किया और वहाँ भी यही बात पता चली। मेरी निराशा अब अन्तहीन हो गई। मैं बेहद उदास हो गई। फिर भी मैंने अपने होंठ भींचे और धोखेबाजों (डॉक्टर्स) और मेरी देखभाल करने वाले प्रियजनों (परिवार वालों) के सामने सिर ऊँचा करके जीने का तय किया। किसी रद्दी बॉलीवुड फ़िल्म में जैसे होता है, मैंने पहले आँख में कुछ गिर जाने का बहाना किया। फिर मेरी आँखों से पानी बहने लगा। मैं तकिये में मुँह छिपाकर रोई, कभी शीशे के सामने तो कभी पर्दो में और कभी शॉवर लेते समय—कभी-कभी चन्द बेख़बर क्षणों में कुछ लोगों के सामने भी रो पड़ी। वैसे मैं ऐसे पलों से बचकर ही चलती थी। हालाँकि अपने हिस्से का रोना तो जायज़ ही हैं, फिर भी मेरा यह विश्वास है कि जैसे शोक का उचित समय होता है उतना ही उससे झटके से बाहर निकलने का भी मतलब होता है। अपने ऊपर दया अन्तहीन अंधे कुएँ के जैसी होती है। मैं अब इसमें से रेंग-रेंग कर बाहर निकल आई हूँ और सारे घर में भड़-भड़ करती इधर-उधर घूम रही हूँ, कंधे पे शॉल डाले 'आनन्द' के राजेश खन्ना की तरह। लगे हाथों दो सौवीं बार पतिदेव को समझाया कि तौलिए को कैसे सही सिरा ऊपर रखते हुए तह करना है। मैं अपने दुख से उबर चुकी हूँ।

क्या मुझे दर्द होता है? (हाँ, क्यों नहीं! ऐसी बीमारी में तरह-तरह के दर्द साथ चले आते हैं। पर सही अर्थों में दिल टूटने और बिकनी पहनने से पहले की वैक्सिंग जितना दर्द नहीं होता।)

क्या मन में कहीं आशा है? (बड़ा मुश्किल है जवाब। लम्बा भी होगा। पति कहते हैं, “सबसे बुरा क्या हो सकता है वहाँ से शुरू करो। " मैं उनकी बात को अनसुना करने का बहाना करती हूँ।)

मैं अब ठाणे की एक बिल्डिंग के 19वें माले पर रह रही हूँ और अब मेरा दोस्त 'का' कौआ तो यहाँ नहीं आता (एक तो बांद्रा से इतनी लम्बी उड़ान ऊपर से रास्ते में हवाई जहाज की भीड़)। हाँ, नीचे की झोपड़पट्टी में एक पगला मुर्गा जरूर रहता है, जो दिन भर तेज बाँगें लगाता रहता है। थोड़ा शालीन होकर हम उसे 'क्रेजी रूस्टर' नाम दे सकते हैं। पहले तो सुबह होते ही उसकी दमदार बॉंग सुनाई देती है फिर 10.30 बजे यह मुर्गा पूरे पड़ोस में शोर मचा देता है। फिर इन श्रीमान् की लाउडस्पीकर सी आवाज़ दोपहर 1.21 पर आती है और फिर इनकी चिंघाड़ दोपहर 3.00 बजे सुनाई देती है। इस सिलसिले से पूरा दिन हराम होता है। निश्चय ही मुर्गे की शरीर में जो समय घड़ी है उसमें गड़बड़ी है। तभी मुझे अचानक याद आता है कि बसन्त का मौसम आ गया है और यह मेरा प्रिय मौसम है, पागलपन्थी और उम्मीद से भरा। मेरी दुख-सुख की साथिन, नेहा खुल्लर मुझसे मिलने आई हुई है। हम दोनों खिड़की पर खड़े ठाणे की धुँधली नीली झील को देखते रहते हैं। इस झील की स्थिरता से मुझे घबराहट होती है, मैं नेहा से कहती हूँ। किसी भी अच्छे दोस्त की तरह वह ध्यान से मेरी बात सुनती है और किसी भी अच्छे दोस्त की तरह मेरा मन बढ़ाने के लिए कोई जोक सुनाती है। मैं बेफ़िक्री से हँसती हूँ।

भूरी-नीली पहाड़ियों के बीच सूरज छिपता है और चाँदी सा चन्द्रमा पानी से उग आता है-किसी वॉटर कलर की जीवित तस्वीर जैसा।

हम दोनों ठूंसकर खाना खाते हैं, रात के अँधेरे में खिलखिलाकर हँसते रहते हैं और रात के 2 बजे चल रहे हाई वे ट्रेफिक को देख रहे होते हैं, कि तभी क्रेजी रूस्टर की बाँग सुनाई देती है। हैरानी की बात है कि मैं साँस ले सकती हूँ, शोर मचाती चल सकती हूँ, मुर्गे की बाँग सुन सकती हूँ, पति को डाँट सकती हूँ, दोस्त के साथ हँस सकती हूँ और देख सकती हूँ प्रकृति के सौंदर्य को कौन चिन्ता करे एक बेहतर भविष्य की। आज का बसन्त का यह दिन ही काफ़ी है। जिंदगी का एक दिन भी जिंदगी तो है ही।

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