घुमक्कड़ी की मानसिकता का यह संसार

ब्लॉग के इस अंक में पढ़ें, नागार्जुन की पुण्यतिथि पर शोभकान्त द्वारा लिखित उनकी जीवनी 'ठक्कन से नागार्जुन' का एक अंश। इसमें उनके बुढ़ापे के दिनों में दिल्ली में रहने के दौरान का वर्णन है।

 

दिल्ली रहते हुए अपने ठौर पर होते, तो नागार्जुन अपने कमरे में पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों के बीच बैठे नजर आते। बिस्तर पर ही उनका पूरा लेखकीय कर्मकांड चलता रहता। कभी-कभी कविताएँ उतरती हैं कॉपी पर या फिर पत्र-लेखन होता। पत्र पढ़ना और लिखना, दोनों प्रिय और आवश्यक काम लगता उन्हें। यात्रा के लिए जो छटपटाहट रहती, उससे कम पत्र-लेखन के लिए नहीं। डाक विभाग की महिमा ऐसी हो गई अब कि सामान्य डाक न जाने कहाँ गुम होती रहती! मेहनत से और मनोयोगपूर्वक लिखे गए विस्तृत पत्र यदि सही ठिकाने तक न पहुँचे, तो कितने दुख की बात होती है! इसी से नागार्जुन अब ज्यादातर पत्र सूत्र-शैली में यानी संक्षिप्त ही लिखते। सूत्रात्मक संक्षिप्त शैली उन्हें ज्यादा कारगर लगती पत्र-व्यवहार में, पर कभी-कभी उन्हें यह भी लगता कि सूत्र-शैली में चार पंक्तियाँ हमेशा काफी नहीं हुआ करतीं। कभी-कभी उन्हें किसी-किसी को लिखना पड़ता—‘तुम विस्तारपूर्वक पत्र क्यों नहीं लिखते हो?’

नई-पुरानी पुस्तकें और ढेर सारी पत्र-पत्रिकाएँ देखने का क्रम यात्रा में भी छूटता नहीं। पुस्तकों के कारण यायावरी में थैला काफी वजनी तो रहता ही था, अब पठन-सामग्रियों से भरा एक छोटा बक्सा भी साथ चलने लगा। बांग्ला, पंजाबी, मराठी, गुजराती, संस्कृत आदि भाषाओं की पुस्तकें उनके साथ यात्रा करती रहतीं। कोई दूसरा उन पुस्तकों को यदि हाथ लगाता, तो नागार्जुन बड़े ही गौर से उसे देखा करते। कारण यह कि कुछ महत्त्वपूर्ण समाचारों की कटिंग वे उन पुस्तकों के भीतर रखा करते। उन समाचारों के भीतर उनके काव्य-बिम्ब और बीज छिपे रहते। इच्छा यह भी रहती कि जो पुस्तकें उन्हें अच्छी लगती हैं, उसको निकट के प्रियजन जरूर देखे-पढ़ें और उस पर बातें करें। कभी-कभी दूसरों के लिए भी पुस्तकें खरीद लेते। यदि पटना के किसी व्यक्ति की पसन्द की कोई पुस्तक नागपुर या इन्दौर में दिखती, तो उसे निश्चित रूप से खरीद लेते...कई लोगों के पास उनके द्वारा खरीदी पुस्तकें मिलेंगी। कई पुस्तकों पर कुछ लिखा भी मिलता—‘प्रिय बन्धु..., इसका पूरा स्वाद लेंगे और बोर न होंगे...’ या फिर ‘...के लिए यह (पुस्तक का नाम) बाजार से प्राप्त किया, बीच में कोई अन्य चतुर (चाईं और उचक्का टाइप) व्यक्ति न लपक ले जाए, यह डर था।’ और नीचे उनका हस्ताक्षर तिथि के साथ दर्ज रहता। उनके पास पड़ी पुस्तकों में कभी-कभी अनुत्तरित पत्र पड़े रहते, तो कभी उसमें सौ रुपये के एक या दो नोट भी मिला करते, जिसे देखकर कभी-कभी नागार्जुन खुद भी चौंक जाते।

नागार्जुन को अब शासकीय साहित्यिक आयोजनों में बुलाया जाने लगा है। पूना में हिन्दी निदेशालय की तरफ से गैर-हिन्दी भाषी नव लेखकों के लिए प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया गया, तो उसमें नागार्जुन भी प्रशिक्षक बनाए गए। युवा पीढ़ी के प्रति ललक ने जोर मारी, और नागार्जुन सब कार्यक्रमों को उलट-पुलटकर वहाँ जा पहुँचे। शिविर तो मात्र सात दिनों का था यानी 5 फरवरी से 11 फरवरी, 1981 तक। पर रह गए लगभग बारह दिन। छन्द, भाषा और काव्य-बीज, बिम्ब पर बातें होती रहीं। रचनाएँ सुनी-सुनाई गईं। नागार्जुन से लोग उन रचनाओं को सुनना चाहते, जिसके लिए वे हमेशा चर्चा या विवाद में रहे हैं। नगर में कई जगहों पर गोष्ठियाँ हुईं। एक-दो गोष्ठियाँ प्राध्यापकों ने अपने घर पर रखीं, जहाँ उनसे कहा जाता, ‘यहाँ हमारे घर में आप चाहें जैसी भी रचनाएँ सुना सकते हैं।’ तो नागार्जुन ‘क्या हुआ-क्या हुआ’ आदि तिक्त रचनाएँ भी सुनाया करते। पूना के बाद लगभग अठारह-उन्नीस दिन बम्बई रह गए। उस यात्रा में लोगों से मिलने और पढ़ने के अलावा कुछ कर नहीं पाए। यों यदा-कदा पाँच-सात पंक्तियाँ निकलीं, पर अपना ही मन उसको स्वीकार नहीं कर पा रहा था।

उस बार पूना-बम्बई यात्रा के बाद तीन-चार दिनों के लिए नागपुर से सीधे जा पहुँचे पटना। मैथिली अकादमी की ओर से आयोजित कवि सम्मेलन में भाग लेना था। लगभग एक माह पटना में रहने का मन बनाया था। वहाँ कई दूसरे कार्यक्रमों में भी हिस्सा लेना था। मैथिली में यों भी अब लिखना कम हो गया था उनका। सारा समय हिन्दी और अखिल भारतीय माहौल में रहते-रहते मानो मैथिली लेखन छूट-सा गया है। यों अपने घर, किसी मैथिल परिवार या मैथिली भाषा-भाषी से मिलने पर मैथिली में ही बातचीत करना पसन्द था उन्हें। आखिर मातृभाषा ने आगे बढ़ने में उनका हमेशा साथ ही दिया है। मैथिली भाषा में यात्री को देखने-सुनने के लिए लोग सतत मौका तलाशते रहते। लेकिन वे स्वयं मैथिली के लिए समय नहीं निकाल पाते।

पटना में थे, तो अपराजिता आकर बता गई कि मई के प्रथम सप्ताह में सुकान्त के दोनों पुत्र और शोभाकान्त के एक पुत्र का मुंडन संस्कार होना है, तो उस अवसर पर नागार्जुन को निश्चित रूप से तरौनी में रहना होगा। बहुत दिनों के बाद घर में माँगलिक कार्यक्रम होगा, तो उर्मिला और मंजू भी आएँगी ही। परिवार के सभी सदस्य एक साथ मिल बैठेंगे। फिर, उस बार हफ्ते-दस दिनों के लिए पटना से दिल्ली लौटे। पटना से थोड़ा अस्वस्थ होकर ही वह अमूमन दिल्ली लौटते।

उस बार भी ऐसी ही हालत थी। पटना में लगा था कि दिल्ली की आबोहवा उन्हें लगेगी, तो वह ठीक हो जाएँगे। पर दिल्ली पहुँचने के तीसरे दिन दमा अपने रौद्र रूप के साथ प्रकट हुआ। बोलना एक तरह से बन्द-सा हो गया। बिस्तर पर पड़े रहते या सिर झुकाकर बैठे-बैठे हाँफते रहते। चलना-टहलना भी बन्द। डॉक्टरों ने सलाह दी कि अगले तीन-चार मास कहीं भी यात्रा न करें। नगर परिक्रमा भी नहीं। सिर झुकाकर बैठे-बैठे तरौनी और अपने परिवार के बारे में ही सोचते रहते। पौत्रों के मुंडन में पूरे परिवार के साथ रहने की इच्छा पूरी नहीं हो पाई। लगा, कहावत ठीक ही है—आपन मन कछु और, विधना के कछु और...नागार्जुन खुद तो गाँव नहीं जा सके, श्रीकांत भी नहीं पहुँच पाए। आखिर कोई न कोई चाहिए था उनकी सेवा के लिए।

अब यात्रा में उम्र के हिसाब से उन्हें कष्ट होने लगा था। यों भी रिजर्वेशन रहने पर भी आराम और सुविधा की कोई गारंटी नहीं...भीड़ दिनानुदिन बढ़ ही रही थी। यात्रा-खर्च भी खूब बढ़ गया था। लगभग दो माह दिल्ली से बाहर नहीं निकले। निकले तो जून के अन्तिम दिनों में काशीपुर, वाचस्पति के पास। सोचा था, जुलाई के मध्य के बाद जब बारिश का मौसम शुरू हो चुका होगा, दिल्ली वापस लौट आएँगे। नैनीताल करीब होने के कारण काशीपुर में गर्मी की तपिश कम थी। तीन-चार दिन नैनीताल में भी रहना हुआ, और कई जगह काव्य-पाठ और हल्का-फुल्का भाषण भी देना पड़ा। शोभाकान्त के बच्चे-पत्नी गाँव रहने लगे थे और उसने खुद दिल्ली में एक प्रकाशक के यहाँ नौकरी शुरू की। नौकरी पकड़ने के चौथे दिन ही बस से उतरने के क्रम में शोभाकान्त गिर पड़े और अपनी खराब बाईं टाँग के ठेहुना को फ्रैक्चर करा बैठे। काशीपुर में जब यह खबर नागार्जुन को मिली, तो वे परेशान हो उठे। नाना प्रकार की चिन्ताओं ने एक साथ उन्हें घेर लिया। शोभाकान्त की चिकित्सीय सुविधा के लिए उन्हें दिल्ली पहुँचना आवश्यक लगा, तो वे वापस लौट आए। श्रीकांत और श्यामाकांत ने बड़ी मुस्तैदी से शोभाकान्त की परिचर्या की। चालीस दिन का प्लास्टर लगा और फिर चार-छह दिन वैशाखी के सहारे। अगस्त (1981) के मध्य में शोभाकान्त को लेकर नागार्जुन पटना आ गए...सोचा था, गाँव में माँ और पत्नी की निगरानी में कुछ दिन रहेगा। तेल मालिश होगी, तो पाँव को ताकत मिलेगी।

हफ्ते भर बिहार रहकर नागार्जुन उज्जैन के लिए पटना से रवाना हुए। साथ लिया युवा कवि रवीन्द्र भारती को। कटनी-बीना वाले रूट से उज्जैन जाना तय किया, ताकि बीच में विदिशा रुककर एक-दो दिन आराम कर सकें। उज्जैन रह गए लगभग बारह दिन...नागार्जुन को लेकर उज्जैन में कई आयोजन हुए। शमशेर बहादुर सिंह उन दिनों उज्जैन विश्वविद्यालय के प्रेमचन्द पीठ में ही थे। साथ ही रहना हुआ। वहीं पर उन्हें भोपाल में आयोजित ‘महत्व : केदार नाथ अग्रवाल’ त्रिदिवसीय आयोजन में रहना आवश्यक लगा। लगभग चौबीस-पच्चीस दिनों के बाद पटना वापस लौटे, तो लगातार जारी मूसलाधार बारिश ने उनका स्वागत किया। इस बार मध्य प्रदेश की यात्रा में थके भी खूब। सोच लिया कि एक मास पटना रहकर विश्राम करेंगे, कहीं नहीं जाएँगे। शोभाकान्त लगातार गाँव में रह रहा था। उन्हें आश्चर्य होता कि शोभाकान्त को गाँव में लगातार रहना भला कैसे अच्छा लग रहा था! उनका मानना था कि किसी भी हालत में पन्द्रह दिनों से अधिक गाँव रह जाने से दिल-दिमाग में अन्दर फ्रस्टेशन भरेगा...यों अब उन्हें भी शोभाकान्त या घर के किसी सूझ-बूझ वालों का साथ न रहना अखरने लगा था। उस बार पटना बीस-पच्चीस दिन रहे...लगातार पत्र द्वारा शोभाकान्त को पटना आ जाने को लिखते रहे, पर वह गाँव से निकल नहीं पा रहा था। पटना में लगातार शोभाकान्त की प्रतीक्षा रही। कई आवश्यक काम उसके बिना नहीं हो पा रहे थे। बीस-पच्चीस दिन पटना में रहकर दिल्ली वापस आ गए अक्टूबर के मध्य में। शोभाकान्त से उस बार भेंट नहीं हुई। लगा, हर इनसान अपनी विवशताओं की परिधि में घुट रहा है...दिल्ली आकर फिर शोभाकान्त की जरूरत महसूस हुई, तो दो सौ रुपये का मनीऑर्डर भेजा और लिखा—‘तुम अविलम्ब गाँव से चल दो...पटना या इलाहाबाद रुकने की आवश्यकता नहीं...कई लोग तुम्हारे बारे में बार-बार पूछते हैं...’

नागार्जुन की पुस्तकें यहाँ उपलब्ध है।