नागरिक पत्रकारिता की ताक़त
ब्लॉग के इस अंक में पढ़ें, रवीश कुमार की किताब 'बोलना ही है' का अंश 'नागरिक पत्रकारिता की ताकत'। यह रवीश कुमार द्वारा मनीला में 6 सितंबर, 2019 को रैमॉन मैगसेसे सेंटर में दिए गए भाषण का संपादित अंश है जिसे इस किताब में संकलित किया गया।

दुनिया भर में, सूरज की आग में तपते लोकतंत्र को चाँद की ठंडक तो चाहिए। यह ठंडक आएगी कहाँ से? सूचनाओं की वास्तविकता से, प्रामाणिकता से, पवित्रता से और साहस से, न कि नेताओं की ऊँची आवाज़ से। सूचना जितनी पवित्र होगी, प्रामाणिक होगी, नागरिकों के बीच भरोसा उतना ही गहरा होगा। देश सही सूचनाओं से बनता है। फ़ेक न्यूज़, प्रोपगैंडा और झूठे इतिहास से हमेशा भीड़ बनती है।

यह समय नागरिक होने के इम्तिहान का है। नागरिकता को फिर से समझने का है और उसके लिए लड़ने का है। यह जानते हुए कि इस समय नागरिकता पर चौतरफ़ा हमले हो रहे हैं और सत्ता की निगरानी बढ़ती जा रही है, एक व्यक्ति और एक समूह के तौर पर जो इस हमले से ख़ुद को बचा लेगा और इस लड़ाई में माँज लेगा, वही नागरिक भविष्य के बेहतर समाज और सरकार की बुनियाद रखेगा। दुनिया ऐसे नागरिकों की ज़िद से भरी हुई है। नफ़रत के माहौल और सूचनाओं के सूखे में कोई है जो इस रेगिस्तान में कैक्टस के फूल की तरह खिला हुआ है। रेत में खड़ा पेड़ कभी यह नहीं सोचता कि उसके यहाँ होने का मतलब क्या है। वह दूसरों के लिए खड़ा होता है, ताकि पता चले कि रेत में भी हरियाली होती है। जहाँ कहीं भी लोकतंत्र को हरे-भरे मैदान से रेगिस्तान में तब्दील किया जा रहा है, वहाँ आज नागरिक होने और सूचना पर उसके अधिकार की लड़ाई थोड़ी मुश्किल ज़रूर हो गई है, मगर असंभव नहीं है।

नागरिकता के लिए ज़रूरी है कि सूचनाओं की स्वतंत्रता और प्रामाणिकता हो। आज मीडिया और उसके बिज़नेस पर स्टेट का पूरा कंट्रोल हो चुका है। मीडिया पर कंट्रोल का मतलब है, आपकी नागरिकता का दायरा छोटा हो जाना। मीडिया अब सर्विलांस स्टेट का पार्ट है जो निगरानी करता है। वह अब फोर्थ एस्टेट नहीं है, बल्कि फ़र्स्ट एस्टेट है। प्राइवेट मीडिया और गवर्नमेंट मीडिया का अंतर मिट गया है। इसका काम ओपिनियन को डाइवर्सिफ़ाई करना नहीं है, बल्कि कंट्रोल करना है। ऐसा भारत सहित दुनिया के कई देशों में हो रहा है।

न्यूज़ चैनलों की डिबेट की भाषा लगातार लोगों को राष्ट्र की उनकी अपनी समझ से भटकाने में सक्रिय है। इतिहास की सामूहिक स्मृतियों को हटाकर उनकी जगह एक पार्टी का ‘राष्ट्र’ और ‘इतिहास’ लोगों पर थोपा जा रहा है। मीडिया की भाषा में दो तरह के नागरिक हैं—एक तो नेशनल और दूसरे, एंटी-नेशनल। एंटी-नेशनल वह है जो सवाल करता है, असहमति रखता है। असहमति लोकतंत्र और नागरिकता की आत्मा है। उस आत्मा पर रोज़ हमला होता है। जब नागरिकता ख़तरे में हो या उसका मतलब ही बदल दिया जाए, तब उस नागरिक की पत्रकारिता कैसी होगी? नागरिक तो दोनों हैं, जो ख़ुद को नेशनल कहता है और जिसे एंटी-नेशनल कहा जाता है।

दुनिया के कई देशों में यह स्टेट सिस्टम, जिसमें न्यायपालिका भी शामिल है, लोगों के बीच लेजिटिमाइज़ हो चुका है। फिर भी हम कश्मीर और हांगकांग के उदाहरण से समझ सकते हैं कि लोगों के बीच लोकतंत्र और नागरिकता की क्लासिक समझ अभी भी बची हुई है और वे उसके लिए संघर्ष कर रहे हैं। आख़िर क्यों हांगकांग में लोकतंत्र के लिए लड़ने वाले लाखों लोगों का सोशल मीडिया पर विश्वास नहीं रहा। उन्हें उस भाषा पर भी विश्वास नहीं रहा, जिसे सरकारें जानती हैं। इसलिए उन्होंने अपनी नई भाषा गढ़ी और उसमें आंदोलन की रणनीति को कम्यूनिकेट किया। यह नागरिक होने की रचनात्मक लड़ाई है। हांगकांग के नागरिक अपने अधिकारों को बचाने के लिए उन जगहों के समानांतर, नई जगह पैदा कर रहे हैं, जहाँ लाखों लोग नए तरीक़े से बात करते हैं, नए तरीक़े से लड़ते हैं और पल भर में जमा हो जाते हैं। अपना एप्प बना लिया और मेट्रो के इलेक्ट्रॉनिक टिकट ख़रीदने की रणनीति बदल ली। फ़ोन के सिमकार्ड का इस्तेमाल बदल लिया। कंट्रोल के इन सामानों को नागरिकों ने कबाड़ में बदल दिया। यह प्रोसेस बता रहा है कि स्टेट ने नागरिकता की लड़ाई अभी पूरी तरह नहीं जीती है। हांगकांग के लोग सूचना संसार के आधिकारिक नेटवर्क से ख़ुद ही अलग हो गए।

कश्मीर में दूसरी कहानी है। वहाँ कई दिनों के लिए सूचना-तंत्र को बंद कर दिया गया। एक करोड़ से अधिक की आबादी को सरकार ने सूचना संसार से अलग कर दिया। इंटरनेट शट डाउन हो गया। मोबाइल फ़ोन बंद हो गए। सरकार के अधिकारी प्रेस का काम करने लगे और प्रेस के लोग सरकार का काम करने लग गए। क्या आप बग़ैर कम्यूनिकेशन और इन्फ़ॉर्मेशन के सिटिज़न की कल्पना कर सकते हैं? क्या होगा, जब मीडिया, जिसका काम सूचना जुटाना है, सूचना के तमाम नेटवर्क के बंद होने का समर्थन करने लगे और वह उस सिटिज़न के ख़िलाफ़ हो जाए जो अपने स्तर पर सूचना ला रहा है या ला रही है या सूचना की माँग कर रहा है/कर रही है।

यह उतना ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत के सारे पड़ोसी प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में निचले पायदान पर हैं। पाकिस्तान, चीन, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार और भारत। नीचे की रैंकिंग में ये सब पड़ोसी हैं। पाकिस्तान में एक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रेगुलेटरी अथॉरिटी है जो अपने न्यूज़ चैनलों को निर्देश देती है कि कश्मीर पर भारत के ख़िलाफ़ किस तरह से प्रोपगैंडा करना है, कैसे रिपोर्टिंग करनी है। इसे वैसे तो सरकारी भाषा में सलाह कहते हैं, मगर होता यह निर्देश ही है। बताया जाता है कि कैसे 15 अगस्त के दिन स्क्रीन को ख़ाली रखना है, ताकि पाकिस्तान कश्मीर के समर्थन में काला दिवस मना सके। जिसकी समस्या का एक बड़ा कारण वह भी है। महात्मा गांधी ने 1 जनवरी, 1948 को कहा था—‘फ़ुजूल की बेएतबारी जहालत और बुज़दिली की निशानी है।’

दूसरी तरफ़, जब कश्मीर टाइम्स की अनुराधा भसीन भारत के सुप्रीम कोर्ट जाती हैं तो उनके ख़िलाफ़ प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया कोर्ट चला जाता है, यह कहने कि कश्मीर घाटी में मीडिया पर लगे बैन का वह समर्थन करता है। मेरी राय में प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया और पाकिस्तान के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रेगुलेटरी अथॉरिटी के दफ़्तर एक ही बिल्डिंग में होने चाहिए। गनीमत है कि एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया ने कश्मीर में मीडिया पर लगी रोक की निंदा की और प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया की भी आलोचना की। पी.सी.आई. बाद में स्वतंत्रता के साथ हो गया। दोनों देशों के नागरिकों को सोचना चाहिए, लोकतंत्र मज़ाक़ नहीं है, वह एक गंभीर मसला है। क्या वे बगैर सूचनाओं के, बगैर सही सूचनाओं के अपने देश के भीतर और दुनिया के साथ संवाद कायम कर सकते हैंॽ और अगर करेंगे भी तो क्या उसमें यह विश्वसनीयता रहेगी, जिसके लिए वो चाहते हैं कि माहौल अच्छा हो। प्रोपगैंडा के ज़रिये क्या वे एक-दूसरे में भरोसा पैदा कर पाएँगे? होली नहीं है कि इधर से गुब्बारा मारा तो उधर से गुब्बारा मार दिया। वैसे, भारत के न्यूज़ चैनल दर्शकों को परमाणु हमले के समय बचने की तैयारी का लेक्चर दे रहे हैं। बता रहे हैं कि परमाणु हमले के वक़्त बेसमेंट में छिप जाएँ। आप हँसें नहीं। वे अपना काम काफ़ी सीरियसली कर रहे हैं।

यह वही मीडिया है, जिसने अपने खर्चे में कटौती के लिए ‘सिटिज़न जर्नलिज़्म’ को गढ़ना शुरू किया था। इसके ज़रिये मीडिया ने अपने रिस्क को आउटसोर्स कर दिया। मेनस्ट्रीम मीडिया के भीतर सिटिज़न जर्नलिज़्म और मेनस्ट्रीम मीडिया के बाहर के सिटिज़न जर्नलिज़्म दोनों अलग-अलग चीज़ें हैं। लेकिन जब सोशल मीडिया के शुरुआती दौर में लोग सवाल करने लगे तो यही मीडिया सोशल मीडिया के ख़िलाफ़ हो गया। न्यूज़रूम के भीतर ब्लॉग और वेबसाइट बंद किए जाने लगे। आज भी कई सारे न्यूज़रूम में पत्रकारों को पर्सनल ओपिनियन लिखने की अनुमति नहीं है। यह अलग बात है कि उसी दौरान बगदाद बर्निंग ब्लॉग के ज़रिये 24 साल की छात्रा रिवरबेंड (असल नाम सार्वजनिक नहीं किया गया) की इराक पर हुए हमले, युद्ध और तबाही की रोज़ की स्थिति ब्लॉग पोस्ट की शक्ल में आ रही थी और जिसे साल 2005 में ‘Baghdad Burning: Girl Blog from Iraq’ शीर्षक से किताब की शक्ल में पेश किया गया तो दुनिया के प्रमुख मीडिया संस्थानों ने माना कि जो काम सोशल मीडिया के ज़रिये एक लड़की ने किया, वह हमारे पत्रकार भी नहीं कर पाते। यह सिटिज़न जर्नलिज़्म है जो मेनस्ट्रीम मीडिया के बाहर हुआ।

रवीश कुमार की किताबें यहाँ उपलब्ध हैं।