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इमरोज़ साहब ने पिछले दिनों दुनिया को अलविदा कह दिया पर वे अपने पी़छे उनको याद करते रहने की अनेक वजहें छोड़ गए हैं। अपने अनूठे चित्रों की बदौलत वे हमारी स्मृतियों में हमेशा बने रहेंगे। साहित्यिक दुनिया में अमृता-इमरोज़ का प्रेम सम्बन्ध अत्यन्त चर्चित रहा है। लगभग मिथकीय गरिमा हासिल कर चुके इस प्रेम सम्बन्ध को युवा कलाकार कुनाल हृदय ने अपने नाटक ‘इमरोज़’ में एक नई निगाह से देखते हुए प्रासंगिक ढ़ंग से प्रस्तुत किया है। राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, हाल ही में प्रकाशित इस नाटक का एक अंश।
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बिरसा मुंडा की पुण्यतिथि पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, उन पर आधारित हृषीकेश सुलभ के नाटक 'धरती आबा' का एक अंश।
करमी : तू इतना बेचैन क्यों है रे बेटा?...तुझे नींद नहीं आती क्या? तू रात-रात भर जागता है...। सारी-सारी रात छटपट करता है तू बिन पानी की मछरी जैसे...।
बिरसा : मैं मछरी नहीं हूँ माँ।
करमी : हाँ रे जानती हूँ...बाघ है तू...बाघ। इसीलिए फन्दे में फँसे बाघ की तरह छटपटाता है तू। अब तो तू धरती का आबा है रे।
बिरसा : तुझे कैसे मालूम कि मैं सारी-सारी रात जागता हूँ...सोता नहीं हूँ? क्या तू भी जागती है सारी रात?
करमी : हाँ रे...जब से तू धरती का आबा बना, मेरी नींद चली गई।...तू भी मेरे कलेजे का दुख नहीं समझता। तुझे क्या लेना-देना मेरे इस दुख से। तू तो अब सारी दुनिया का दुख लिये घूम रहा है।...कल तक इस करमी को कोई नहीं जानता था।...चीन्हते नहीं थे सब। अब सब देखते ही उठकर खड़े हो जाते हैं। बनिया...महाजन...पहान, सब कहते हैंµतू तो भगवान की माँ है...।
बिरसा : तुझे अच्छा