शिवानी की कहानी 'अपराधी कौन'

राजकमल प्रकाशन समूह के ब्लॉग के इस अंक में पढ़ें, शिवानी की कहानी 'अपराधी कौन।' यह उनके कहानी संग्रह 'अपराधी कौन' की शीर्षक कहानी है। 

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अमला बार-बार बाहर आती और अपने सजे बँगले की अनूठी सज्जा देखकर स्वयं ही मुग्ध हो जाती। रंगीन नीली मद्धिम रोशनी के लट्टू पेड़ की हर पत्ती पर जुगनू बने चमक रहे थे। शामियाने की रंगीन छाँह में कई सोफेष् और कुर्सियाँ मंडलाकार घेरे में रखवाते श्यामबिहारी एकसाथ कई निर्देश देते किसी कुशल बैंडमास्टर की भाँति हवा में दोनों हाथ उठा-उठाकर गिरा रहे थे। अमला को पति की हड़बोंग देख, हँसी आ गई। एक तो वैसे ही सामान्य-सी घटना से उत्तेजित हो उठते थे, उस पर आज पहली पुत्री का विवाह था। वह पति से कहीं अधिक मात्र में आश्वस्त हो बारात की प्रतीक्षा कर रही थी। आखिर घबराती भी क्यों? सब ही कुछ तो दे रही थी कनक को! फ्रिज, रेडियोग्राम, फियेट और फिर एक तगड़ा-सा चेक। बीसियों भूखी शेरनी-सी माताओं के मुख से वह अपने भावी जामाता को पुष्ट ग्रास लुभावने दहेज के बूते ही तो छीन पाई थी। उसकी कनक साँवली थी पर इस युग में क्या जामाता भावी पत्नी का रंग देखता है? उसे तो अब भावी श्वसुर के ओहदे का रंग ही अधिक आकर्षित करता है। जहाँ तक इसका प्रश्न था, श्यामबिहारी अपने ओहदे के चोखे रंग से किसी भी सुपात्र को चुम्बक की भाँति खींच सकते थे। एक तो वे कमिश्नर थे, उस पर आई.सी.एस.।

‘हम आई.सी.एस. अब रीवाँ के अलभ्य सफेद शेरों की भाँति, अपनी वंश-वृद्धि की क्षीण सम्भावनाओं के कारण अनमोल हो उठे हैं।’—ये प्रायः ही हँसकर अमला से कहते रहते। आज तो उन्हें बात करने की भी फुर्सत नहीं थी। सुबह से जनवासे का ही प्रबन्ध देख रहे थे। नाऊ, तम्बोली, धोबी, सबके तम्बू तन चुके थे और तीनों किसी अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी के-से विभिन्न स्टॉल में खडे़ अधिकारियों की ही तत्परता से मुस्कराते खडे़ थे। यह भी इस अनोखे युग का एक अनोखा रिवाज़ चल पड़ा था। आएँगे छैला बाराती बनकर पर दर्जनों घड़े से निकाले गए सूट इस्तरी करवाने कन्या के पिता के यहाँ ही लाएँगे। जिसे देखो, वही हजामत बनवाने बैठ जाएगा, चाहे घराती हो या बाराती! ‘मुफष्त का चन्दन घिस मेरे नन्दन’ इसी को कहते हैं। कहीं बारातियों के आने के पहले ही सब पान निगोडे़ घर ही के मेहमान न चर डालें—अमला मन-ही-मन भुनभुना रही थी। एक तो घर के ही मेहमानों ने चार दिनों में उसका पटरा बैठा दिया था। पाँच दर्जन तो बच्चे ही भिनभिना रहे थे, उस पर देवरानी-जेठानी और चचेरी-ममेरी ननदों के नख़रे देख उसका ख़ून खौल रहा था। इसी से भागकर बाहर आ गई थी। बरेलीवाली ममिया सास को लहसुन-प्याज की बदबू से दिल के दौरे पड़ने लगते थे, उनका कमरा अलग करके उठी ही थी कि दो चचेरी ननदों में बच्चों को लेकर भयानक युद्ध छिड़ गया था। दोनों सगी बहनें थीं, पर आज आमने-सामने तनी रणचंडी ही बन गयी थीं। उन्हें छुड़ाकर अलग किया, तो उसकी स्विस भाभी एक ही पेटीकोट और बिना बाँहों का ब्लाउज़ पहने अर्धनग्नावस्था में अर्दली-चपरासियों के सामने ही उससे साड़ी पहना देने का अनुरोध करने आ धमकी। पिछले माह उसका छोटा भाई विदेश से एक लम्बतड़ंगी ब्याह लाया था। क्या करती बेचारी अमला! भाई को बुलाती और भाभी को कैसे छोड़ देती! उसकी ताड़-सी देह में साड़ी लपेटना आकाश में चँदोवा टाँकना था। साड़ी पहनाते ही वह चटपट बाहर निकल आई थी। बारात भी तो आती ही होगी। उसने घड़ी देखी, अभी देर थी। पर बारात के आने से भी अधिक चिन्ता उसे एक और व्यक्ति के आने की थी और वह थी उसकी फ्रांस-प्रवासिनी ननद मीना, जो पूरे बीस वर्ष बाद माइके लौट रही थी।

कभी यह ननद उसकी प्राणप्रिया सखी थी। वही उसे सिर-आँखों पर बिठाकर इस गृह में लाई थी। उसकी सास ने तो दूसरी लड़की पसन्द की थी।

कुछ दिनों तक दोनों की मैत्री मुहल्ले-भर की स्त्रिायों के हृदय में विष घोलती रही। दोनों एक-से कपड़े पहनतीं, हँसती-खिलखिलाती एक-दूसरे को बाँहों में लिए फिरती रहीं, फिर जैसे प्रायः ऐसी प्रगाढ़ मैत्री का अन्त होता है, वैसा ही हुआ। अचानक दोनों में ऐसी ठनकी कि आँखों ही आँखों में नंगी तलवारें लपलपाने लगीं और दो टूटे हृदयों की दरार मीना की विदा तक नहीं जुड़ी। झगड़े का सूत्रपात हुआ था आभूषण को लेकर। मीना की विधवा माँ का पूरा गहना, एक सामान्य-सी पोटली में बँधा काठ के बक्स में पड़ा रहता। कई बार पुत्र के समझाने पर भी वे बैंक में रखने को राज़ी नहीं हुई थीं, तो खीझकर श्यामबिहारी ने कहना ही छोड़ दिया, पर इधर उनका अधिकांश समय तीर्थयात्र में ही निकलने लगा था और वे एक-एक कर अपने आभूषण कभी बद्रीनाथ चढ़ा आतीं, कभी रामेश्वरम्। एक दिन अमला और मीना ने मन्त्रणा की, जैसे भी हो, अम्मा के इस धार्मिक औदार्य के सैलाब को बाँधना ही होगा।

“अम्माजी, अब मीना की सगाई हो गई है, आप ऐसे गहने मत लुटाइए।” अमला ने एक दिन सास को टोक दिया।

“हाँ, अम्मा, आज फैसला ही कर दो, क्या मुझे दोगी और क्या भाभी को,” मँुहलगी मीना ने दोनों बाँहें अम्मा के गले में डाल दीं, “कहीं ऐसा न हो कि कभी इसी करमजली पोटली के पीछे हम दोनों लड़ पड़ें।”

अमला हो-हो कर हँस उठी थी।

तब तक दोनों ननद-भाभी, अटूट मैत्री के इस रस-सागर में आकंठ डूबी थीं, इसी से कलह की काल्पनिक सम्भावनाओं का प्रसंग भी हास्यास्पद लग उठा था।

“ला मरी, निकाल ला पोटली, आज ही बाँट-बूँटकर झगड़ा निबटा दूँ।” अम्मा ने चाबी का गुच्छा हँसकर पटक दिया था और मीना चटपट पोटली निकाल लाई।

ओफ, कैसे-कैसे भारी गहने थे—टोंक, मगर, अनन्त, जयपुरी झूमर, रामपुरी मछलियाँ, चन्द्रहार, बेसर और कुन्दन की पहुँची।

मीना के नाना सिविल सर्जन थे। अम्मा इकलौती पुत्री थीं, इसी से नाना ने गहनों से लाद दिया था। सबसे विलक्षण आभूषण था एक लम्बी नीली मख़मली डिबिया में बन्द नागिन के आकार की लचकती करधनी।

उसकी जालीदार नक्काशी पहले भी कई बार ननद-भाभी को झुमा चुकी थी, पर तब ईर्ष्या का सर्प फन फैलाकर दोनों में से एक को भी डसने नहीं दौड़ा था।

आज दोनों के कलेजे एकसाथ धड़क उठे। पता नहीं अम्मा करधनी किसे देंगी!

मीना सोच रही थी—‘मैं तो अम्मा की इकलौती बिटिया हूँ, करधनी मुझे ही देंगी।’

अमला सोच रही थी—‘कितने अरमानों की बहू हूँ मैं! करधनी हो न हो, मेरे ही हिस्से में आएगी।’—अम्मा की ख़याली हँडिया में उधर उबाल पर उबाल आ रहे थे। सब गहना मन-ही-मन बाँट चुकी थीं, पर दोनों की तृष्णा के प्राण उनकी करधनी पर ही अटके हैं, वे जान गई थीं। बेटी तो पराया धन है, कल-परसों ब्याह होगा तो परायी हो जायेगी। ज़िन्दगी तो उन्हें बहू के साथ ही काटनी थी। फिर करधनी भी साधारण नहीं थी। एक चिररुग्ण जड़िया को, मीना के नाना ने उसका खोया पौरुष लौटा दिया था। अपनी मूक कृतज्ञता को उसी अनूठी करधनी की कारीगरी में वह सदा के लिए अमर कर गया था। कैसी लपलपाती जीभ थी नागिन की! आँखों में जगमगाती दो हीरों की कनियाँ जड़ी थीं। उस चमत्कारी करधनी का एक और आकर्षण था। एक पेंच घुमाते ही वह अपनी केंचुली छोड़ देती, जो क्षण-भर में सिमटकर, बाईं ओर चाबी का गुच्छा बनकर लटक जाती थी। अम्मा कहा करती थीं, जब करधनी बनकर आई तो उसे देखने लाट साहब की मेम भी आई थीं। वही करधनी आज किस भाग्यशालिनी को मिलेगी!

अम्मा ने एक-एक कर गहनों की दो ढेरियाँ बना दीं।

टोंक, बेसर, चन्द्रहार अमला का।

कंकण, झूमर, सतलड़ी मीना की।

राजस्थानी बोरला, अटर-बटर आया अमला की ढेरी में।

कुन्दन की चम्पाकली, उड़ीसा की कटकी, सोने की कंघी मीना की।

दोनों ढेरियाँ ऐसी न्यायपूर्ण सूझबूझ का प्रतीक थीं कि किसी में भी घट-बढ़ का प्रश्न ही नहीं उठता था।

अकेली करधनी बच गई।

मीना अचानक मचल गई, “अम्मा, चाहे हमारी ढेरी के दो-तीन गहने भाभी की ढेरी में डाल दो, पर हम तो करधनी ही लेंगी।” उसने करधनी सचमुच उठा ली।

सास ने बहू की गम्भीर मुखमुद्रा देखी, तो बड़े चातुर्य से बिगड़ती स्थिति सँभाल ली।

“अच्छा-अच्छा, देखा जाएगा, अभी तो तू दोनों पोटलियाँ बक्से में डाल दे। करधनी अलग रख दी है मैंने। पुर्जी डाल दें। क्यों, है ना बहू?”

पर अम्मा की पुर्जी के पहले ही नियति की पुर्जी पड़ गई।

मीना के विवाह की तिथि निश्चित हुई तो गहने झलवाने सुनार बुलवाया गया। दोनों पोटलियों के गहने ज्यों के त्यों धरे थे, अकेली करधनी ही नहीं थी।

अम्मा तो पागल-सी ही हो गयी थीं। एक तो शुभकार्य के पहले सोना खो गया था, महाअपशकुन, उस पर उनका सबसे प्रिय आभूषण। अम्मा ऐसा फूट-फूटकर बाबूजी की मृत्यु पर भी नहीं रोई थीं।

पर यह हो कैसे गया, चाबी तो निरन्तर उन्हीं के पास रहती थी, कभी-कभी बहू माँग लेती और कभी बिटिया। शीशम का वह बक्सा उन्हीं के कमरे में धरा रहता और वे दिन-रात उसी कोठरी में खजाने पर बैठे सर्प की भाँति कुंडली मारे बैठी रहतीं।

भोली अम्मा भागती-भागती भृगुसंहिता के पंडितजी के पास भी गई थीं।

‘खोई वस्तु का चोर घर ही में है, पर मिलेगा बीस साल में।’

‘भाड़ में जाए करधनी!’ मीना के आँसू टपकने लगे थे। बीस वर्ष तक क्या उसकी कमर ऐसी लचीली रह जाएगी? क्या करेगी करधनी का, जब कमर ही नहीं रहेगी?

फिर बेचारी रिक्त कमर लेकर ही ससुराल चली गई थी। श्वसुर फ्रांस में इत्र के प्रसिद्ध व्यवसायी थे। पति के साथ मीना ने स्वदेश त्याग दिया। धीरे-धीरे वह माँ, भाई-भाभी सबको भूल गई, पर करधनी को नहीं भूल सकी।

इतना वह खूब समझती थी कि चतुरा नटिनी-सी भाभी की फुर्तीली उँगलियों ने ही भोली अम्मा की चाबी तिड़ी कर रात ही रात में करधनी गायब कर दी थी।

आज पूरे बीस वर्ष पश्चात् वह भाई का पत्र पाकर स्वदेश लौट रही थी। अम्मा अब नहीं रहीं, पर फिर भी मायका, मायका ही था। भैया को देखा, तो वह रही-सही पूर्वशत्रुता भी बिसर गई। भैया ने मूँछें रख ली थीं, कनपटी के बाल सफेष्द हो गए थे और क्षण-भर को उसे लगा जैसे बाबूजी ही हँसते खड़े हो गए हैं, और मौसी! कितना बुढ़ा गई थीं मौसी। सामने के दो दाँत टूट गए थे, ठीक जैसे अम्मा की पोपली हँसी का नक्शा फिर से उतारकर रख दिया था विधाता ने।

वह तो आँसू ही नहीं रोक पाई, “क्यों री मुनिया, दामाद को नहीं लाई?”

मौसी ने पूछा।

“अरी मौसी, उन्हें क्या अपने कारोबार से फुर्सत रहती है!” उसने बड़े गर्व से कहा और भाभी की ओर बाँहें फैला दीं।

उसकी तन्वी भाभी बेहद फूल गई थी। करधनी धरी भी होगी तो इस विराट् परिधि को कहाँ घेर पाएगी! उसे मन-ही-मन गहरा सन्तोष हो गया। उसकी कमर तो अभी भी विदेशी कौर्सेट के बन्धन में कसी, उसकी कौमार्यावस्था का इक्कीस इंच घेरा निभा रही थी।

“तुम तो मीना, वैसी की वैसी ही धरी हो,” भाभी का कंठ-स्वर भी शरीर के साथ-साथ मांसल हो उठा था।

“भतीजी कहाँ है मेरी?” मीना ने बडे़ लाड़ से पूछा और भाभी ने एक साँवली-सी लड़की को उसकी ओर ठेल दिया।

मीना ने भतीजी का माथा चूमकर कहा, “मेरी दिव्या से सवा महीने बड़ी है तू।”

“उसे क्यों नहीं लाईं बुआ?” भतीजी ने पूछा।

“उसे अपनी दुकान सौंप आई हूँ रानी! एक दिन भी बन्द रहती तो लाखों का नुकसान हो जाता, क्रिसमस आ रहा है,” बुआ ने दर्पपूर्ण उक्ति से महिलावृन्द को घायल किया और धम्म से कुर्सी पर बैठ गईं।

मीना की दुकान ‘भारती’ वास्तव में फ्रांसीसी सुन्दरियों के लिए एक बहुत बड़ा आकर्षण थी। भारतीय गहने, साड़ियाँ, आलता, नकली चोटियाँ, झूमर, यहाँ तक कि माँग भरने का सिन्दूर और बिछुए का जोड़ भी मिल सकता था वहाँ। कभी फ्रांस में इक्के-दुक्के भारतीय विवाहों के लगन खुलते तो मीना की दुकान ही सोहान-पिटारी जुटाती।

काश, अम्मा की करधनी होती तो वह टिकट लगाकर प्रदर्शनी से ही मालामाल हो जाती! ऐसी व्यावसायिक खटकेबाजी में उसकी कल्पना बेजोड़ थी।

“कुल जमा तीन दिन के लिए आई हूँ भाभी, इधर तुम्हारी रानी विदा हुई और मैं उड़ी फ्रांस को।”

अपने तीक्ष्ण, रँगे नखों को उसने चिड़िया के उड़ जाने की मुद्रा में चमकाकर भतीजी को बुरी तरह प्रभावित कर दिया। जयमाल का समय हुआ तो अतिथियों की दृष्टि सलोनी दुल्हन के चेहरे पर टिकने के बजाय उसकी प्रौढ़ा बुआ की साँवली गर्दन पर जम गई।

मीना, एक अद्वितीय हीरों का हार पहने द्वार पर खड़ी मुस्करा रही थी।

फुसफुसाहट तीव्र हो उठी।

“कैसे जगमगा रहे हैं!”

“असली हीरे हैं।”

“चल हट, विदेशी नकली हार भी ऐसे ही जगमगाते हैं। पिछले साल मेरा छोटा भाई माण्ट्रीयल से लाया था।”

“नहीं-नहीं, फ्रांस में इनके श्वसुर का लाखों का व्यापार है, इनकी भी तो दुकान है।”

“क्या बेचती हैं?”

ही-ही-ही—ईर्ष्यालु स्त्रिायों का अशिष्ट स्वर उनके कानों के पास ही सरक आया, पर उस जगमगाती बुलन्द इमारत के सामने छोटे-मोटे आभूषण पहने भड़कीली नारियों की आभा सहसा तुच्छ हो उठी, जैसे झोंपड़ियों पर धरे दीये टिमटिमा रहे हों।

“क्यों री मुनिया, हार तो असली लगै है, आठ-दस हजार का तो होगा ही!” मौसी ने बड़ी ललक से हार के लोलक को हाथों में ले लिया।

“अस्सी हजार का है मौसी,” मीना ने कुछ ऊँचे ही स्वर में कहा। अपने दामी आभूषण का मूल्य बताने में क्या कभी नारी चूकती है! फिर तो दूल्हे को देख ही कौन रहा था! आँखों ही आँखों में हार की आलोचना चल रही थी।

“कहा था ना मैंने, अस्सी हजशर का है।”

“ऊँह, सूरत तो सवा सौ की भी नहीं है!” पर एक-एक कर झोंपड़ियों के टिमटिमाते दीये बुझ गए, बुलन्द इमारत जगमगाती रही। दूसरे दिन बारात विदा हो गई और अतिथियों के बिस्तर बँधने लगे। एक तो लड़की के विवाह की रौनक, विद्युत-छटा-सी क्षण-भर में ही लुप्त हो जाती है, उस पर गृहस्वामिनी भी अतिथियों को रोकने के मूड में नहीं थी। मीना ने भी भाभी के तुच्छ स्वभाव को परख लिया था। उसने जाने का प्रसंग उठाया, तो अमला ने औपचारिक स्नेह की सामान्य दलीलें दीं, फिर मान गई।

“बाजार से तुम्हारे लिए मेवे और ताजी मिठाई लेती आऊँ,” कह वह झोला लेकर चली गई, तो मीना विवाह के भब्भड़ के बाद पहली बार घर में अकेली रह गई।

जाने के पहले मायके की ममता और घनेरी हो आई। घूम-घुमाकर वह अम्मा का बचा-खुचा सामान देख रही थी और स्मृतियों के पट खुलते जा रहे थे।

बाबूजी की आरामकुर्सी, अम्मा का पीढ़ा, उसका बोर्डिंग का सहचर काला स्टील का बक्सा। सहसा वह ठिठक गई।

शीशम का वह बक्सा, जिसके अभेद्य ताले को बिना खोले ही किसी कुशल हुडूनी ने करधनी गायब कर दी थी।

बडे़ लाड़ से उसने ताले को हाथ में लिया, और न जाने किस ममता के अदृश्य स्पर्श से ताला खट से खुल गया।

शायद बाजशर जाने की हड़बड़ी में भाभी ठीक से बन्द नहीं कर पाई थी।

देखूँ, भाभी इसमें अब क्या रखती हैं, मीना ने दोनों हाथ से भारी ढकना उठाया। पर क्या केवल इसी कौतूहल ने उसे प्रेरित किया? पुराना किनारी-गोटा, टूटे प्लग और अम्मा का फुलवरी दुपट्टा। कैसी प्यारी-प्यारी कस्तूरी की-सी महक थी, ठीक अम्मा की देह-परिमल की-सी परिचित लपट!

बड़े लाड़ से भावुकता के आवेश में उसने दुपट्टे को गालों से लगाने को उठाया तो एक भारी-सी पोटली भी उसी के साथ-साथ उठ आई।

उसका कलेजा उछलकर बाहर आ गया। वही चमक-दमक और वे ही चमकती आँखें! अनुभवी हाथों के अनुभूत स्पर्श ने पेंच घुमाया, क्षणभर में सर्पिणी की केंचुली चाबी का गुच्छा बनकर लटक गई। कुछ देर तक वह सोचती रही, फिर एक तड़प से करधनी लेकर उठ गई। काठ का बक्सा फिर ज्यों का त्यों ताला लटकाए निर्जीव बन गया।

भाभी लौटी तो मीना अपनी साड़ियाँ तह कर रख रही थी। भोले चेहरे पर शिकन भी तो नहीं उभरी।

“हाय मीना, तुमने अभी से सामान बाँध लिया?” अमला ने पूछा और हाथ का बैग जमीन पर पटक, ननद के गले में बाँहें डाल, धम्म से वहीं बैठ गई, “हाय, मत जाओ मीना, इतने सालों में तो लौटी हो!” वह रुआँसे स्वर में बोली। मन-ही-मन वह जानती थी कि ननद का एयर-पैसज भी बुक हो गया है और वह रुक नहीं सकती, इसी से वह दुलार-भरा बनावटी आग्रह कर रही थी। “मैं जानती हूँ,” उसने रूमाल से आँखें पोंछीं, “तुम अभी भी हमसे रूठी हो। उस सड़बिल्ली करधनी का सत्यानाश हो, जिसने हमें चीरकर धर दिया। तुम्हारे भैया की कसम खाकर कहती हूँ मीना, मैंने उस हरामखोर महाराजिन को रात के दो बजे अम्मा के कमरे से निकलते अपनी आँखों से देखा था।”

“सच भाभी!” मीना को बड़ा आनन्द-सा आ रहा था। साँप का पैर आखिर साँप ही पहचानता है। “फिर तुमने पकड़ क्यों नहीं लिया बदजशत को?”

“हाय, मेरा कलेजा तो तुम जानती हो, एकदम पिद्दी-सा है। सोचा, एक तो अम्मा के गौने में महाराजिन आयी थी, कितना मानती थीं अम्मा, कहीं करधनी नहीं निकली तब?” भाभी के चेहरे पर ऐसा बचपना खेलने लगा, जैसे दूध के दाँत भी न टूटे हों।

“हाय रे मेरी पिद्दी!” मीना ने बड़े लाड़ से भाभी को बाहुपाश में कस लिया, “अब खबरदार जो उस करधनी का नाम लिया, मुझसे बुरी कोई नहीं होगी, हाँ! सामान बाँध लूँ, फिर रात को खूब आराम से बातें करेंगे।”

करधनी सबसे नीचे धरी फ्रेंच शिफषैन की साड़ी के नीचे, हीरों के हार के साथ, कुंडली मारे पड़ी थी।

उस रात को बारह बजे तक ननद-भाभी बतियाती रहीं।

“हार सहेजकर रख लिया ना मीना, कहीं बटुए में ही धरकर तो नहीं भूल गईं? बड़ी लापरवाह हो तुम।” भाभी ने पूछा तो मीना अँधेरे ही अँधेरे में मुँह फेरकर मुस्करा ली।

“हाँ भाभी, वह तो मैंने कल ही सूटकेस में बन्द कर लिया था।”

“मैं तो आज तुम्हारे ही साथ सोऊँगी, पता नहीं फिर कब मिलना हो!” वह कूदकर मीना के साथ लिपट गई।

सुबह उठी तो भाभी उठकर उसके साथ धरी जानेवाले पकवानों की टोकरी सजा रही थी।

भाई-भाभी दोनों उसके साथ स्टेशन भी आए, पर तीनों ऐसे ठीक समय पर पहुँचे कि सामान लगाते ही गार्ड ने झंडी हिला दी। बड़ी हड़बड़ी में मीना द्वार पकड़कर ही खड़ी रह गई। अपने वातानुकूलित डिब्बे में वह अकेली थी।

“दामी चीज़ लेकर सफर कर रही हो मीना, सूटकेस को सिरहाने धर लेना।” भाभी उसके पास ही आकर फुसफुसाई तो मीना का चित्त पश्चात्ताप से खिन्न हो गया।

कितनी नीच थी वह! बीस वर्ष पहले भाभी ने उसकी गर्दन पर छुरी फेरी थी, आज वह उसी जघन्य अपराध को दुहरा रही थीं। अब तो उसके जी में आ रहा था, वह करधनी निकालकर भैया-भाभी के चरणों में लोट, अपना अपराध स्वीकार कर ले। विदा की बेला पुनः अम्लान हो उठेगी।

पर गाड़ी स्टेशन छोड़ रही थी, किसी भी भावुकता के लिए अब समय नहीं था। भाई और भाभी की आँखें गीली हो आई थीं। अमला बुरी तरह नाक झिंझोड़ती सिसक रही थी।

मीना भी अब अपने को नहीं रोक सकी और बच्चों की भाँति सुबक उठी।

एक घंटे बाद तूफषन धड़धड़ाती पटरियों का कलेजा रौंदती चली जा रही थी और मीना दोनों हाथों से माथा पकड़े, शून्य दृष्टि से अपने चारों ओर बिखरे साड़ियों के अम्बार को अविश्वास से देख रही थी। वह बार-बार एक-एक साड़ी को झटक रही थी, यह क्रम वह पिछले एक घंटे में बीसियों बार दुहरा चुकी थी।

नहीं, कहीं नहीं थी—आखिर सुई तो थी नहीं।

रात-भर भाभी उसे गलबहियों में घेरकर सोई थी, चाबी का गुच्छा पार करने में उन अद्वितीय उँगलियों ने फिर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर दिया था। करधनी तो गई ही, साथ में उसके हीरों का हार भी ले गई।

अब वह अतुल को क्या मुँह दिखलाएगी! जल्दी-जल्दी में बीमा भी तो नहीं करा पाई थी। फिर मायके में गहने की चोरी क्या कुछ कम लज्जास्पद घटना है?

अब क्या करे? क्या फिर मायके लौट जाए? क्या कहेगी भाभी से? यही ना कि ‘भाभी, तुमने मेरे हीरे का हार चुरा लिया!’

पर भाभी तो पलटकर जिह्ना का घातक प्रहार सिद्ध कर सकती थी— ‘मीना, तुम क्या मेरी करधनी चुराकर नहीं भागीं?’

उसके हीरे के हार का केवल लोलक ही बेचने पर भाभी के पूरे खानदान की बेटियाँ ब्याही जा सकती थीं। हाय, कितने छोटे अपराध की कितनी बड़ी सजा दे गई भाभी।

 

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