पुस्तक अंश : जैनेन्द्र कुमार की जीवनी ‘अनासक्त आस्तिक’

उन दिनों अफ़वाहों का बाज़ार भी गर्म था। अफ़वाहें उड़तीं और दंगे हो जाया करते। कहीं कोई स्त्री इज्जत गवाँ बैठती, कहीं बच्चे जला दिये जाते, कहीं घर फूँक दिये जाते। हर तरफ़ 'हर-हर महादेव' और 'हनुमान बली की जय' की प्रतिक्रिया में 'अल्लाहो अकबर' की ललकार सुनाई देती। अँग्रेज़ी शासन को पता था कि उन्हें अब जाना होगा, पर जाने के पहले उसने जो जहर घोल दिया था उसकी क़ीमत चुकाता भारत जख्मी हो चला था। 

जैनेन्द्र कुमार की जयंती पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, ज्योतिष जोशी द्वारा लिखित उनकी जीवनी ‘अनासक्त आस्तिक’ का एक अंश। इसमें देश की आज़ादी के समय साम्प्रदायिक माहौल की एक झलक दिखलाई गई है।

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साम्प्रदायिकता तब केवल राजनीति में ही नहीं आयी थी, वह समाज और संस्कृति में भी व्याप्त हो गयी थी। गाँधी जी ने यही भाँपकर 1936 में 'भारतीय साहित्य परिषद्' बनाई थी जिसके वे अध्यक्ष थे और उसकी स्थापना में प्रेमचन्द, काका कालेलकर, पुरुषोत्तम दास टंडन, कन्हैयालाल मुंशी सहित स्वयं जैनेन्द्र का भी योग था। 1933 में एक अन्य संस्था बनी थी, 'हिन्दुस्तानी प्रचार सभा', जो हिन्दी-उर्दू को जोड़ने की पहल कर रही थी और लिपियों के फ़र्क से दोनों के बीच तनाजे को दूर करने का प्रयास भी। इस सभा में जैनेन्द्र सहित प्रेमचन्द, जाकिर हुसैन, जोश मलीहाबादी, अली बुखारी पतरस आदि शामिल हुए थे। 1947 के आरम्भ की बात है, जब सभी सदस्यों ने भाषायी एकता को मज़बूत करने के विचार से 'भारतीय साहित्य सम्मेलन' के अधिवेशन की योजना बनाई। यह समय बेहद नाजुक था और साम्प्रदायिक तनाव चरम पर था। उस समय सभी भाषाओं से एक-एक स्थानीय परामर्शदाता नियुक्त हुआ था। अपने प्रदेश के अतिथियों के स्वागत आतिथ्य का भार उन्हें उठाना था। जैनेन्द्र ने दक्षिण की भाषाओं के परामर्शदाताओं से कहा कि वे इस सम्बन्ध में राजगोपालाचारी से सलाह ले लें। पर यह जानकर आश्चर्य हुआ कि राजगोपालाचारी से सम्पर्क कर चुके एक दक्षिण भारतीया परामर्शदाता को उन्होंने फटकार दिया था और कहा कि हम दक्षिण वालों को एक होकर चलना चाहिए। जैनेन्द्र को इससे बड़ी चिन्ता हुई और उन्हें इस बात का बोध हुआ कि आज़ादी के बाद यही भाव रहा तो हिन्दी के प्रति हिकारत बढ़ेगी और भाषायी एकता नहीं बन पायेगी।

इस साहित्य सम्मेलन के उर्दू परामर्शदाता जामा मस्जिद के पास चितली क़बर की गली में रहते थे। एक दिन जैनेन्द्र उनके दरवाजे पर गये और घण्टी बजाई। वे घर की ऊपरी मंजिल से उतरकर आये और उन्हें सामने देख बेतरह परेशान हुए। जल्दी-जल्दी साथ लेकर वे एक अलग कमरे में गये और बोल पड़े"तौबा तौबा! यह आपने क्या किया? आप यहाँ क्यों आ गये?"

जैनेन्द्र ने आश्चर्य के साथ कहा "तो इसमें अचरज की बात क्या है भाई! मैं तो सम्मेलन के लिए मशविरा करने आया हूँ।"

"ओफ्फ़ जैनेन्द्र जी, आप कितने भोले हैं। क्या आपको मालूम नहीं कि हिन्दू-मुसलमान जानी दुश्मन बन गये हैं? यह मुसलमानों का इलाक़ा है। कोई हिन्दू यहाँ फटक नहीं सकता। गनीमत है कि आप बचे रह गये हैं, खैर ही मानिये इसे। आप ही बताइये, ख़ुदा ना खास्ते आपको कुछ हो गया होता तो मैं किसी को क्या मुँह दिखाने वाला रहता? आप वादा कीजिये जैनेन्द्र जी, कि आइन्दा इधर नहीं आयेंगे। लोगों पर दहशत छाई है। सब पर खून सवार है, ख़ामख़ाह उसका शिकार बनना नादानी है। मेरा कुछ भी ख़याल हो तो अर्ज है कि आप यहाँ दोबारा नहीं आयेंगे।"

जैनेन्द्र को जैसे काठ मार गया। "तो क्या इतनी बुरी हालत हो चली है?" उनके मुँह से अनायास निकला।

"हाँ, भई, हाँ।"

"नहीं आऊँगा। समझ गया। आप परेशान न हों।" कहकर वे लौटे। काम की बात हो न सकी थी। लौटे तो विचार करते आये, वे भयभीत होकर गये होते तो शायद हमला हो सकता था। वे दहशत में न थे, शायद इसीलिए न किसी ने ताड़ा और न हमला किया। अच्छा हुआ, जान बची।

वे वहाँ से कनॉट प्लेस की तरफ मुड़े। प्रस्तावित सम्मेलन की एक सदस्या सत्यवती मलिक भी थीं जिनसे मशविरा करना ज़रूरी था। वे उनसे मिले, बातचीत हुई और जब सीढ़ियाँ उतरने लगे तो देखते हैं, कुछ लोग घायल हालत में सड़क पर गिरे हैं और कुछ लोग बगल में कुछ सामान दबाये बेतहाशा भाग रहे हैं। सामने की दो दुकानों में लूट मची थी जिसके कामगार जख्मी होकर ज़मीन पर पड़े थे। ऐसी वारदातें हर तरफ हो रही थीं, कहीं कोई शान्ति न थी।

जैनेन्द्र के पड़ोस में एक मुस्लिम परिवार रहता था। इसके बगल में ही घटा मस्जिद थी। वहाँ भी कुछ मुस्लिम रहते थे। परिवार की बड़ी औरत को जैनेन्द्र मुमानी कहते थे। सब लोग दहशत में थे कि जाने कब क्या हो जाय। वहाँ रहने वालों में केवल जैनेन्द्र ही थे, जो जब-तब उस परिवार को भरोसा देते कि उनका कुछ न बिगड़ेगा। पर दूसरे लोग दहशत फैलाने में मज़ा लेते और वह परिवार डर के मारे सिहरा रहता। जैनेन्द्र सोच-सोचकर परेशान होते। क्या अब यही आज़ादी मिलने वाली है जिसमें कोई किसी का न हो पाये? हर आदमी डर से सिहरा रहे? हिन्दू इलाक़ों में मुसलमान ख़ौफ़ में रहें तो मुस्लिम इलाक़ों में हिन्दू। क्या इसी भय के रास्ते हम सुराज पायेंगे? क्या गाँधी की अहिंसा की यही फलश्रुति है। अब तक के किये-धरे पर सोचते तो लगता जैसे सब अकारथ हो गया है, यह तो न चाहा था हमने, जो दिख रहा है। 'भारतीय साहित्य सम्मेलन' की धुन सवार थी, मन खट्टा था, पर जो दायित्व लिया था, उसे तो निभाना था। बहुत-से लोग इस काम में जैनेन्द्र के साथ हो आये थे। इसमें प्रो. गुरुमुख निहाल सिंह आगे रह रहे थे जो बाद में मुख्यमन्त्री बने थे। उनका सहयोग जैनेन्द्र को बड़ी राहत दे रहा था। तैयारियों के बीच यह उपद्रव दिल हिला रहा था कि जाने क्या हो। लोग दिल खोलकर पैसे भी दे रहे थे। लेकिन अगस्त के आरम्भ में ही डाक-व्यवस्था बिगड़ गयी। लोग मनीऑर्डर से पैसे भेजते, पर डाक की गड़बड़ी से वे मिल नहीं पा रहे थे। एक समय सात दिन तक कोई चिट्ठी न आयी तो जैनेन्द्र कुछ लोगों को साथ लेकर गोल डाकखाने पहुँचे। पहुँचने पर डाक का ढेर देख सबका माथा ठनक गया। उसे कोई देखने-पूछने वाला न था। जैनेन्द्र ने लोगों से कहा "भई, इस हालत में सम्मेलन को टालना पड़ेगा। इसमें उसका विचार रखना फजीहत कराना होगा।" यशपाल जैन दफ़्तर का काम देखते थे, वे भी उनके कहे से नाखुश हुए। सबका इरादा यही था कि काम शुरू हो गया है, तो सम्मेलन कर लेना चाहिए। जैनेन्द्र ने कहा "देखते हैं। अगर सब ठीक रहा, तो होगा।"

पर होना क्या था। क़त्ल होने लगे और चारों तरफ़ खून-ख़राबा, मार-काट के सिवा कुछ भी न सुनाई पड़ता। सम्मेलन की तैयारी और उसका विचार वहीं रह गया, अब तो जान बचाने की नौबत आ पड़ी। सुनाई पड़ा कि घटा मस्जिद में बहुत-से मुसलमान हथियारों से लैस होकर हमले की ताक में हैं। अब यह तय हुआ कि दस-बारह लोग सिर पर मोटा साफा बाँधकर रातभर लाठी लिये छत पर जमे रहें। जब हमला होगा तो देख लेंगे। वही हुआ। जैनेन्द्र दस-बारह लोगों के साथ मोटा साफा सिर पर बाँधकर लाठी लिये छत पर जमे रहे और इस तरह वह रात दहशत में कटी। सम्मेलन का विचार जैसे उठा था, वैसे ही थम गया। ऐसे में वह होता भी तो कैसे।

उन दिनों अफ़वाहों का बाज़ार भी गर्म था। अफ़वाहें उड़तीं और दंगे हो जाया करते। कहीं कोई स्त्री इज्जत गवाँ बैठती, कहीं बच्चे जला दिये जाते, कहीं घर फूँक दिये जाते। हर तरफ़ 'हर-हर महादेव' और 'हनुमान बली की जय' की प्रतिक्रिया में 'अल्लाहो अकबर' की ललकार सुनाई देती। अँग्रेज़ी शासन को पता था कि उन्हें अब जाना होगा, पर जाने के पहले उसने जो जहर घोल दिया था उसकी क़ीमत चुकाता भारत जख्मी हो चला था। देश में फैली हिंसा और लीगी नेताओं की जिद से लगने लगा कि अगर गाँधी जी ने बँटवारे के प्रस्ताव का समर्थन किया है तो हो न हो, यह कारण भी रहा होगा। आज़ादी मिलने पर इतनी घृणा के बाद हिन्दू-मुसलमान साथ कैसे रहेंगे, कैसे उनमें परस्पर विश्वास जागेगा। मुहम्मद अली जिन्ना की एक ही टेर थी "हमें आज़ाद पाकिस्तान के सिवा कुछ न चाहिए।" काँग्रेस आहत थी, देश दहशत में था। फिर भी यह उम्मीद थी कि शायद गाँधी जी बँटवारे के पिछले प्रस्ताव को रद्द कर दें और कहें कि देश किसी भी सूरत में नहीं बँटेगा।

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