सारा शगुफ़्ता की त्रासद ज़िंदगी और इन्क़िलाबी शायरी

राजकमल प्रकाशन समूह के ब्लॉग के इस अंक में पाकिस्तानी शायरा सारा शगुफ़्ता की ज़िंदगी और उनकी शायरी के बारे में चर्चा की गई हैं। सारा शगुफ़्ता की दो किताबें राजकमल प्रकाशन से हाल ही में प्रकाशित हुई हैं।

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इज़्ज़त की बहुत-सी क़िस्में हैं

घूँघट, थप्पड़, गंदुम

इज़्ज़त के ताबूत में क़ैद की मीखें* ठोकी गई हैं

घर से लेकर फ़ुटपाथ तक हमारा नहीं

इज़्ज़त हमारे गुज़ारे की बात है

इज़्ज़त के नेज़े** से हमें दाग़ा जाता है

इज़्ज़त की कनी हमारी ज़बान से शुरू होती है

 

*कीलें, **भाला

(आँखें, औरत और नमक, पृष्ठ 52)

 

सारा शगुफ़्ता, पाकिस्तान की एक मशहूर/चर्चित मगर बहिष्कृत शायरा, जिसने अपनी शायरी को समाज में स्त्रियों का शोषण करने वाली परम्पराओं के खिलाफ़ आवाज़ कायम करने का जरिया बनाया। पाकिस्तान के गुजरांवाला में जन्मी सारा का जीवन दर्द और त्रासदियों से भरा रहा। उन्हें बचपन से ही पढ़ने-लिखने का शौक था लेकिन उनके पिता ने परिवार को छोड़कर दूसरा घर बसा लिया जिसके कारण उनका गुजारा भी बड़ी मुश्किल से हो पाता था।

बचपन इस तंगहाली में बीता और महज चौदह वर्ष की उम्र में उनकी शादी कर दी गई। इसके बावजूद उन्होंने पढ़ने-लिखने की ललक जिंदा रखी और जैसे-तैसे नौवें दर्जे की पढ़ाई पूरी की। उनकी यह शादी दस साल चली जिससे उनके तीन बच्चे हुए। तलाक के बाद उनसे बच्चे भी छीन लिए गए। इसके बाद उन्होंने तीन और शादियां की लेकिन बदकिस्मती से वे सब भी नाकाम रहीं।

दूसरी शादी उन्होंने एक शायर से की जिसके साथ रहते हुए उन्हें किताबें पढ़ने और दूसरे शायरों से मिलने-जुलने के मौके तो मिले लेकिन शायर पति की लापरवाही के कारण उन्हें अपने नवजात बच्चे को खोना पड़ा। पति ने सारा को दर्द से कराहते छोड़ दिया। मकान मालकिन उसे अस्पताल ले गई जहां उन्होंने एक बच्चे को जन्म दिया। बच्चे को लपेटने के लिए उनके पास कोई कपड़ा तक नहीं था। सर्दी ज्यादा होने के कारण कुछ ही मिनटों में बच्चे ने दम तोड़ दिया। बच्चे की लाश को गिरवी रखकर वो एक दोस्त के पास अस्पताल का बिल चुकाने के लिए पैसे मांगने के लिए गई। इसका उनकी मानसिक स्थिति पर गहरा असर पड़ा। जब वो घर पहुंची तो उनकी छाती से दूध बह रहा था। उस दूध को एक गिलास में भरकर सारा ने कसम खाई कि वो अब शायरी करेगी और उस दूध के बासी होने से पहले ही उन्होंने एक नज़्म लिख डाली। इस वाकये का बहुत ही मार्मिक विवरण उन्होंने अपने पहले काव्य संग्रह 'आँखें' में 'पहला हर्फ़' शीर्षक से लिखा है।

बच्चे को खो देने के गम और जगह-जगह से मिली ठोकरों ने सारा को विद्रोही शायर बना दिया। औलाद को गंवाने के इस दु:ख को सारा ने कई प्रतीकों के माध्यम से अपनी रचनाओं में उकेरा है।

 

परों का दुख जब ज़मीनों पे गिरने लगे

तो इन्सान की आंखें अंधेरों में डूबने लगती हैं

जब पौदा जन्म लेता है तो मिट्टी अपना रंग खो नहीं देती

बल्कि और सच बोलने लगती है...

 

सारा को जीवन में जो भी मिला उसने सिर्फ उसका इस्तेमाल किया। जीते जी उनको साहित्य जगत से कोई खास तव्वज़ो नहीं मिली। अपनी नज़्मों में सच लिखने और मर्दों की आँखों में आँखें डालकर बोलने के तेवर के कारण उनको मुशायरों में जगह नहीं मिलती थी। विपरीत हालात और तमाम परेशानियों के बावजूद हर हाल में उन्होंने लिखना जारी रखा।

अमृता प्रीतम से उनकी पत्राचार के माध्यम से बातचीत होती थी। उनके दोस्त बहुत सीमित थे और जो थे वो उनकी बातों को नहीं समझ पाते थे। इसलिए वे अपने तमाम दु:खों और उलझनों को चिट्ठियों में लिखकर अमृता से साझा करती थी। उसकी कहानी ने अमृता को बहुत विचलित कर दिया था। लगातार इन चिट्ठियों के आदान-प्रदान से सारा और अमृता के बीच एक रिश्ता कायम हो गया। अमृता ने लिखा है कि वे सारा के लिए रोती थी और उसके जीने की कामना करती थी। सारा के जीवन के सबसे कठिन और अकेले समय में अमृता ने उसे सहारा और हौंसला दिया, जिससे वो थोड़ा और जी पाई।

आत्महत्या के चार असफल प्रयासों के बाद केवल उनतीस वर्ष की आयु में उन्होंने कराची में एक ट्रेन के आगे कूदकर दु:खों से भरे उस जीवन से मुक्ति पा ली। उनकी मौत के बाद अमृता प्रीतम ने उन चिट्ठियों के आधार पर 'एक थी सारा' शीर्षक से उपन्यास लिखा। इस उपन्यास के प्रकाशित होने के बाद साहित्य जगत का ध्यान सारा की तरफ गया।

एक विशिष्ट प्रकार की इक़बालिया कविताएं लिखने के कारण सारा की तुलना अमेरिकी कवियत्री सिल्विया प्लाथ (Sylvia Plath) से की जाती है। इन दोनों की निजी ज़िन्दगी व्यथापूर्ण रही और दोनों ने ही आत्महत्या से जीवन समाप्त किया।

 

मैं टूटे चाँद को सुबह तक गँवा बैठी हूँ

इस रात कोई काला फूल खिलेगा

मैं अनगिनत आँखों से टूट गिरी हूँ

मेरा लहू कंकर-कंकर हुआ

मेरे पहले क़दम की ख़्वाहिश दूसरा क़दम नहीं

मेरे ख़ाक होने की ख़्वाहिश मिटी नहीं

ऐ मेरे पालने वाले ख़ुदा ?

मिरा दुख नींद नहीं, तिरा जाग जाना है

 

(यह रोज़ कौन मर जाता है / आँखें)

 

सारा का ज्यादातर लेखन उर्दू और पंजाबी भाषाओं में मिलता है। उर्दू में उनके दो काव्य संग्रह, आँखें (1985) और नींद का रंग (1993) उनकी मृत्यु के बाद उनके दोस्तों ने प्रकाशित करवाए। ये दोनों संग्रह हाल ही में हिन्दी में पहली बार राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुए हैं। इनका लिप्यंतरण और सम्पादन दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफ़ेसर अर्जुमंद आरा ने किया हैं। दोनों किताबें प्रकाशन की वेबसाइट के अलावा अमेज़न और फ्लिपकार्ट पर भी उपलब्ध हैं।