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शैलेन्द्र के गीतों से मुहब्बत करने वाले बहुत कम लोग जानते हैं कि 'हर जोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है' जैसा सुप्रसिद्ध आस्थान गीत शैलेन्द्र की ही रचना है। जिसके ये सिर्फ रचयिता ही नहीं थे, गायक भी थे–मंचों से जागृत प्रस्तोता। जो विद्वान कहते हैं कि शैलेन्द्र फिल्मों में नहीं गये होते तो हिन्दी काव्य संसार उन्हें सिर माथे पर बिठाता तो कुछ गलत नहीं कहते हैं। पर एक बार फिल्मों से नाता जोड़ लेने के बाद वे समूचे सिनेमा के हो गए।
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महार जाति में पैदा होनेवाला आदमी इतना तेजस्वी हो सकता है, इस बात पर मुझे विश्वास ही न होता। उजला व्यक्तित्व, ऊँचा माथा। पूरे सूर में थे। सिर पर हैट भी। परन्तु उनका चेहरा बीमारी के कारण बहुत क्लान्त दिख रहा था। उन्हें पैरों में तकलीफ़ थी। चलते समय दूसरे लोगों की मदद लेनी पड़ती। एक बार कुलाबा में घूमते हुए मैंने देखा कि बाबासाहब धीरे-धीरे छड़ी के सहारे नीचे उतर रहे हैं। हम लड़के बाबासाहब को ऐसे देख रहे थे, जैसे कोई महान आश्चर्य देख रहे हों।
डॉ. भीमराव अम्बेडकर की पुण्यतिथि पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, मराठी के शीर्षस्थ दलित लेखक दया पवार के आत्मकथात्मक उपन्यास ‘अछूत’ से एक संस्मरणात्मक अंश।...मैंने बाबासाहब को बहुत बचपन में देखा था। स्पष्ट याद न रहते। बोर्डिंग में जब था, तब ख़बर आती है कि बाबासाहब
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नामवर सिंह ने कमानी सभागार में प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी की मौजूदगी में हरिवंशराय बच्चन ग्रन्थावली के रिलीज कार्यक्रम पर जो भाषण दिया था, उसे इन्दिरा गांधी मन्त्रमुग्ध होकर एक घंटे से ज्यादा सुनती रही थीं।
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राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, विष्णु नागर के संस्मरणों की किताब 'डालडा की औलाद' के कुछ अंश। इन संस्मरणों में लेखक ने बचपन से अब तक समाज को जितने रूपों में देखा है, उसे केन्द्र में रखकर अपने आसपास के जीवन के बारे में लिखा है।
भाग्यशाली हम
बहुत दिनों से मैं सोच रहा हूँ कि हम साधारण लोग किस-किस अर्थ में भाग्यशाली हैं। एक तो इस अर्थ में हम किस्मतवाले हैं कि हमारे माँ-बाप न टाटा-बिड़ला थे, न अंबानी-अडाणी, न बड़े राजनेता थे, न बड़े कलाकार थे या फिल्मी हीरो-हीरोइन थे। न महान सन्त थे, न नाथूराम गोडसे जैसे हत्यारे थे। हम अपने माता-पिता की प्रसिद्धि या धन या महानता या कलंक के बोझ तले दबे हुए नहीं हैं। हम जो भी हैं, जैसे भी हैं, अपने किए या अनकिए से हैं। इसके दुख कम, सुख ज्यादा हैं। हो सकता है इनमें से किसी की सन्तान होते तो पता नहीं कितनी सीढ़ियाँ अपने आप चढ़ चुके होते या और अधिक गिरकर भी बड़े बन चुके होते। मगर यह हजार गुना बेहतर है कि हम नीचे हैं, जमीन पर हैं। हम न जाने कितनी आवाजें, कितनी गूँजे