क्या हमारा ‘सेल्फ़’ संसार की विरोधी इकाई है? क्या किसी कलाकृति का काम केवल हमारे विश्वासों को पुष्ट करना होता है? उपन्यास विधा जिसका जन्म व्यक्ति की विशिष्ट अवधारणा से जुड़ा था, आज इतनी क्लान्त और थकी हुई क्यों दिखती है? कहानी और उपन्यास कहाँ अलग होते हैं? क्या भाषा की सामर्थ्य को रचना की अर्थवत्ता से अलग किया जा सकता है?
ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिन पर निर्मल वर्मा के निबन्ध अकसर ठहरकर सोचते हैं। कभी ख़ुद के सामने बैठकर और कभी दूसरों के साथ संवाद करते हुए। ‘ढलान से उतरते हुए’ में शामिल निबन्धों में यह प्रक्रिया और सजग दिखाई देती है।
जिन प्रश्नों को ‘शब्द और स्मृति’ तथा ‘कला का जोखिम’ में उन्होंने बस छुआ-भर था, उन्हें यहाँ अधिक ठोस और व्यापक फलक पर जाँचने-परखने की कोशिश की गई है। निबन्धों के विषय विभिन्न हैं, लेकिन कला और कलाकृति, मनुष्य तथा उसके परिवेश से जुड़े मूलगामी प्रश्नों की विवेचना इन्हें एक सूत्र में भी जोड़ती है।
अंतिम खंड ‘रास्ते पर’ में निर्मल जी की डायरी के कुछ अंश भी इस पुस्तक का हिस्सा हैं जिनसे हम उनके उस ‘मन’ को समझ सकते हैं जो उन्हें अकसर यथार्थ के सूक्ष्मतर पक्षों तक लेकर जाता है।
Language | Hindi |
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Binding | Paper Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 2024 |
Edition Year | 2024, Ed. 1st |
Pages | 222p |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22 X 12.5 X 1 |