Mansarover : Vols. 1-8-Paper Back

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ISBN:9789393603159
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जब हम एक बार लौटकर हिन्दी कहानी की यात्रा पर दृष्टि डालते हैं और पिछले सत्तर-अस्सी वर्षों के सामाजिक विकास की व्याख्या करते हैं, तो अगर कहना चाहें तो बहुत सुविधापूर्वक कह सकते हैं कि कहानी अब तक प्रेमचन्द से चलकर प्रेमचन्द तक ही पहुँची है। अर्थात् सिर्फ़ प्रेमचन्द के भीतर ही हिन्दी कहानी के इस लम्बे समय का पूरा सामाजिक वृत्तान्त समाहित है। समय की अर्थवत्ता जो सामाजिक सन्दर्भों के विकास से बनती है, वह आज भी, बहुत साधारण परिवर्तनों के साथ जस की तस बनी हुई है। आप कहेंगे कि क्या प्रेमचन्द के बाद समय जहाँ का तहाँ टिका रह गया है? क्या समय का यह कोई नया स्वभाव है? नहीं, ऐसा नहीं। फिर भी सन्दर्भों के विकास की प्रक्रिया जो सांस्थानिक परिवर्तनों से ही रेखांकित होती है और समय ही उसका कारक है, वह नहीं के बराबर हुई। आधारभूत सामाजिक बदलाव नहीं हुआ। इस लम्बे काल में नया समाज नहीं बन पाया। धार्मिक अन्धविश्वास और पारम्परिक कुंठाएँ जैसी की तैसी बनी रहीं। भूमि-सम्बन्ध नहीं बदले। अशिक्षा और सामाजिक कुरीतियों का अन्धकार लगातार छाया रहा।

यत्र-तत्र परिस्थितियों और परिवेश के साथ ही सामान्य सामाजिक परिवर्तन अथवा मनोवैज्ञानिक बारीकियों को छोड़ दें तो शिल्प के क्षेत्र में भी जहाँ सीधे-सादे वाचन में ‘पूस की रात’, ‘कफ़न’, ‘सद्गति’ जैसी कहानियाँ वर्तमान हों, कोई परिवेश अथवा परिवर्तन की बारीक लक्षणा और चरित्रांकन की गहराई के लिए किसी दूसरी कहानी का नाम ले तो भी इन कहानियों को छोड़कर नहीं ले सकता। अपने समय और समाज का ऐतिहासिक सन्दर्भ तो जैसे प्रेमचन्द की कहानियों को समस्त भारतीय साहित्य में अमर बना देता है।

—मार्कण्डेय

More Information
Language Hindi
Format Hard Back, Paper Back
Publication Year 2014
Edition Year 2022, Ed. 2nd
Pages 2400p
Price ₹1,200.00
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Lokbharti Prakashan
Dimensions 21 X 13.5 X 9
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Premchand

Author: Premchand

प्रेमचन्द

प्रेमचन्द (1880-1936) का जन्म बनारस के पास लमही गाँव में हुआ था। उस समय उनके पिता को बीस रुपए तनख़्वाह मिलती थी। जब वे सात साल के थे, तभी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया। जब वे पन्द्रह साल के हुए, तब उनकी शादी कर दी गई और सोलह साल के होने पर उनके पिता का भी देहान्त हो गया। जैसाकि लोग कहते हैं—लड़कों की यह उम्र खेलने-खाने की होती है लेकिन प्रेमचन्द को तभी से घर सँभालने की चिन्ता करनी पड़ी। तब वे नवें दर्जे में पढ़ते थे और उनकी गृहस्थी में दो सौतेले भाई, सौतेली माँ और ख़ुद उनकी पत्नी थीं।

स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद अनेक प्रकार के संघर्षों से गुज़रते हुए उन्होंने 1919 में अंग्रेज़ी, फ़ारसी और इतिहास लेकर बी.ए. किया; किन्तु उर्दू में कहानी लिखना उन्होंने 1901 से ही शुरू कर दिया था। उर्दू में वह नवाब राय नाम से लिखा करते थे और 1910 में उनकी उर्दू में लिखी कहानियों का पहला संकलन ‘सोज़े वतन’ प्रकाशित हुआ। इस संकलन के ब्रिटिश सरकार द्वारा ज़ब्त कर लिए जाने पर उन्होंने नवाब राय छोड़कर प्रेमचन्द नाम से लिखना शुरू किया। ‘प्रेमचन्द’—यह प्यारा नाम उन्हें एक उर्दू लेखक और सम्पादक दयानारायन निगम ने दिया था। जलियाँवाला बाग हत्याकांड और असहयोग आन्दोलन के छिड़ने पर प्रेमचन्द ने अपनी बीस साल की नौकरी पर लात मार दी। 1930 के अवज्ञा-आन्दोलन के शुरू होते-होते उन्होंने ‘हंस’ का प्रकाशन भी आरम्भ कर दिया।

प्रेमचन्द को कथा-सम्राट बनाने में जहाँ उनकी सैकड़ों कहानियों का योगदान है, वहीं ‘गोदान’, ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘ग़बन‘, ‘रंगभूमि’, ‘निर्मला’ आदि उपन्यास आनेवाले समय में भी उनके नाम को अमर बनाए रखेंगे।

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