Nirmala

Author: Premchand
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Nirmala
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निर्मला मुंशी प्रेमचन्द का अत्यन्त लोकप्रिय उपन्यास है। सन् 1927 में प्रकाशित इस उपन्यास के केन्द्र में बेमेल विवाह और दहेज की समस्या है जिन्हें प्रेमचन्द ने अपनी गहरी सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समझ के साथ उकेरा है। कहा जाता है कि इस उपन्यास में प्रेमचन्द ने उपदेशात्मकता की जगह पहली बार अपनी 
यथार्थवादी दृष्टि का व्यापक प्रयोग किया था। दहेज न दे पाने के कारण निर्मला की शादी उससे उम्र में बहुत बड़े और तीन बच्चों के पिता मुंशी तोताराम से कर दी जाती है। फिर शुरू होता है शक-संदेह और मानसिक जटिलताओं का अन्तहीन सिलसिला जिसके चलते पूरा परिवार बिखर जाता है, और निर्मला का मन और शरीर धीरे-धीरे क्षीण होता जाता है। उसकी इहलीला समाप्त हो जाती है! स्त्री और पुरुष की मन:स्थितियों को यह उपन्यास जितनी बारी‍की से उजागर करता है, उतनी ही प्रामाणिकता के साथ मध्यवर्गीय कस्बाई परिवार के आपसी रिश्तों को भी रेखांकित करता है। साथ ही समाज के रीति-रिवाजों के अमानवीय पहलू को भी उतनी ही गहराई से सामने लाता है। इस उपन्यास पर आधारित इसी नाम से बना टीवी धारावाहिक भी अत्यन्त चर्चित रहा है।

More Information
Language Hindi
Format Hard Back, Paper Back
Publication Year 2018
Edition Year 2023, Ed. 2nd
Pages 140p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Lokbharti Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 1
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Premchand

Author: Premchand

प्रेमचन्द

प्रेमचन्द (1880-1936) का जन्म बनारस के पास लमही गाँव में हुआ था। उस समय उनके पिता को बीस रुपए तनख़्वाह मिलती थी। जब वे सात साल के थे, तभी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया। जब वे पन्द्रह साल के हुए, तब उनकी शादी कर दी गई और सोलह साल के होने पर उनके पिता का भी देहान्त हो गया। जैसाकि लोग कहते हैं—लड़कों की यह उम्र खेलने-खाने की होती है लेकिन प्रेमचन्द को तभी से घर सँभालने की चिन्ता करनी पड़ी। तब वे नवें दर्जे में पढ़ते थे और उनकी गृहस्थी में दो सौतेले भाई, सौतेली माँ और ख़ुद उनकी पत्नी थीं।

स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद अनेक प्रकार के संघर्षों से गुज़रते हुए उन्होंने 1919 में अंग्रेज़ी, फ़ारसी और इतिहास लेकर बी.ए. किया; किन्तु उर्दू में कहानी लिखना उन्होंने 1901 से ही शुरू कर दिया था। उर्दू में वह नवाब राय नाम से लिखा करते थे और 1910 में उनकी उर्दू में लिखी कहानियों का पहला संकलन ‘सोज़े वतन’ प्रकाशित हुआ। इस संकलन के ब्रिटिश सरकार द्वारा ज़ब्त कर लिए जाने पर उन्होंने नवाब राय छोड़कर प्रेमचन्द नाम से लिखना शुरू किया। ‘प्रेमचन्द’—यह प्यारा नाम उन्हें एक उर्दू लेखक और सम्पादक दयानारायन निगम ने दिया था। जलियाँवाला बाग हत्याकांड और असहयोग आन्दोलन के छिड़ने पर प्रेमचन्द ने अपनी बीस साल की नौकरी पर लात मार दी। 1930 के अवज्ञा-आन्दोलन के शुरू होते-होते उन्होंने ‘हंस’ का प्रकाशन भी आरम्भ कर दिया।

प्रेमचन्द को कथा-सम्राट बनाने में जहाँ उनकी सैकड़ों कहानियों का योगदान है, वहीं ‘गोदान’, ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘ग़बन‘, ‘रंगभूमि’, ‘निर्मला’ आदि उपन्यास आनेवाले समय में भी उनके नाम को अमर बनाए रखेंगे।

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