Pratigya

Author: Premchand
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Pratigya
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प्रेमचन्द  हर व्यक्ति की, पूरे समाज की और देश की समस्याओं को सुलझाना चाहते थे, पर हिंसा से नहीं, विद्रोह से नहीं, अशान्ति से नहीं और अलगाव से भी नहीं। वे समस्याओं को सुलझाना चाहते थे प्रेम से, अहिंसा से, शान्ति से, सौहार्द से, एकता से और आदर्श से। 'प्रतिज्ञा' उपन्यास भी उनकी इसी लेखकीय मुहिम का एक पड़ाव है जिसमें उन्होंने विधवाओं की समस्या पर अपना ध्यान केन्द्रित किया है। उनके समय में विधवाओं की स्थिति आज के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा दुखद थी। विधवाओं की दुर्दशा से ही उद्वेलित होकर इस उपन्यास में अमृत प्रतिज्ञा करते हैं कि वे किसी विधवा से ही शादी करेंगे ताकि उनके चलते किसी एक स्त्री को तो दुखों से त्राण मिले। ये प्रतिज्ञा वे तब करते हैं; जब समाज विधवाओं के पुनर्विवाह तक के लिए तैयार नहीं था। प्रेम, पीड़ा और आदर्शों की नाटकीय यात्रा से गुजरते हुए उपन्यास उस बिन्दु पर पहुँचता है जहाँ अमृत राय की प्रतिज्ञा एक बड़े फलक पर पूरी होती है। वे विधवाओं के लिए एक आश्रम खोलते हैं, और अपना तन-मन-धन उसे ही समर्पित कर देते हैं। इस उपन्यास में स्वतंत्रता पूर्व भारत के सामाजिक-पारिवारिक मूल्यों को भी नज़दीक से देखा जा सकता है जिन्हें प्रेमचन्द ने बहुत प्रामाणिकता से अंकित किया है।

More Information
Language Hindi
Format Hard Back, Paper Back
Publication Year 2023
Edition Year 2023, Ed. 1st
Pages 100p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Lokbharti Prakashan
Dimensions 21.5 X 14 X 1
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Premchand

Author: Premchand

प्रेमचन्द

प्रेमचन्द (1880-1936) का जन्म बनारस के पास लमही गाँव में हुआ था। उस समय उनके पिता को बीस रुपए तनख़्वाह मिलती थी। जब वे सात साल के थे, तभी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया। जब वे पन्द्रह साल के हुए, तब उनकी शादी कर दी गई और सोलह साल के होने पर उनके पिता का भी देहान्त हो गया। जैसाकि लोग कहते हैं—लड़कों की यह उम्र खेलने-खाने की होती है लेकिन प्रेमचन्द को तभी से घर सँभालने की चिन्ता करनी पड़ी। तब वे नवें दर्जे में पढ़ते थे और उनकी गृहस्थी में दो सौतेले भाई, सौतेली माँ और ख़ुद उनकी पत्नी थीं।

स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद अनेक प्रकार के संघर्षों से गुज़रते हुए उन्होंने 1919 में अंग्रेज़ी, फ़ारसी और इतिहास लेकर बी.ए. किया; किन्तु उर्दू में कहानी लिखना उन्होंने 1901 से ही शुरू कर दिया था। उर्दू में वह नवाब राय नाम से लिखा करते थे और 1910 में उनकी उर्दू में लिखी कहानियों का पहला संकलन ‘सोज़े वतन’ प्रकाशित हुआ। इस संकलन के ब्रिटिश सरकार द्वारा ज़ब्त कर लिए जाने पर उन्होंने नवाब राय छोड़कर प्रेमचन्द नाम से लिखना शुरू किया। ‘प्रेमचन्द’—यह प्यारा नाम उन्हें एक उर्दू लेखक और सम्पादक दयानारायन निगम ने दिया था। जलियाँवाला बाग हत्याकांड और असहयोग आन्दोलन के छिड़ने पर प्रेमचन्द ने अपनी बीस साल की नौकरी पर लात मार दी। 1930 के अवज्ञा-आन्दोलन के शुरू होते-होते उन्होंने ‘हंस’ का प्रकाशन भी आरम्भ कर दिया।

प्रेमचन्द को कथा-सम्राट बनाने में जहाँ उनकी सैकड़ों कहानियों का योगदान है, वहीं ‘गोदान’, ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘ग़बन‘, ‘रंगभूमि’, ‘निर्मला’ आदि उपन्यास आनेवाले समय में भी उनके नाम को अमर बनाए रखेंगे।

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