पुस्तक की भूमिका ‘अनभै साँचा’ में एक वाक्य है—‘हिन्दी संस्कृति में वाद-विवाद को अच्छा नहीं समझा जाता।’ बावजूद इसके यदि डॉ. नामवर सिंह वाद-विवाद को करणीय मानते हैं तो उद्देश्य उनका संवाद ही है, क्योंकि साहित्य हो या समाज, संवादहीनता ठहराव और घुटन को जन्म देती है।
‘वाद विवाद संवाद’ के तमाम निबन्धों की रचना इसी पृष्ठभूमि में हुई है और वह भी इस महत्त्वपूर्ण, आत्मस्वीकृति के साथ कि ‘अपने आप से असहमति का जोखिम उठाकर भी दूसरे के साथ संभाव्य सहमति की तलाश वांछनीय है और मानवीय भी। सुसंगति की वेदी पर इस मानवीय दुर्बलता की बलि देने का मन नहीं होता।’ क्योंकि साहित्य न तो तर्कशास्त्र है और न मनुष्य। वस्तुतः यही वह भावना है जो संवाद को रचनात्मक बनाती है। उल्लेखनीय है कि यहाँ संकलित निबन्धों में से अधिसंख्य पिछले तीन दशकों के दौरान हिन्दी आलोचना के अन्तर्गत तीव्र वाद-विवाद के केन्द्र में रहे हैं। नामवर जी ने इनमें अत्यन्त बारीकी और बेबाकी से उन मुद्दों पर विचार किया है जो कि समकालीन भाषा, साहित्य और आलोचना-कर्म की बुनियादी चिन्ताओं से सम्बद्ध हैं जिन्हें प्रायः अनदेखा कर दिया जाता है। ऐसे निबन्धों में ‘आलोचना की संस्कृति और संस्कृति की आलोचना’, ‘प्रासंगिकता का प्रमाद’, ‘प्रगतिशील साहित्य-धारा में अंध लोकवादी रुझान’, ‘प्रगीत और समाज’, ‘युवा लेखन पर एक बहस’, ‘विश्वविद्यालय में हिन्दी’ तथा ‘आलोचना और संस्थान’ विशेष रूप से पठनीय हैं।
निश्चय ही यह एक ऐसी आलोचनात्मक कृति है जो हमारे साहित्यिक संस्कार और समझ को अधिकाधिक सार्थक और प्रासंगिक बनाती है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 1989 |
Edition Year | 2023, Ed. 7th |
Pages | 144p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 1.5 |