नामवर सिंह पाठ से गहरा, आत्मीय और संवादी तादात्म्य स्थापित कर सकने वाले आलोचक थे। अपने व्याख्यानों और साक्षात्कारों में वे उपन्यासों, कहानियों, कविताओं, निबन्धों, नाटकों और आलोचना-निबन्धों पर जिस तरह बात करते थे, उससे इसकी पुष्टि होती है।
पाठ का आस्वाद करने की क्षमता आलोचक के संवेदनात्मक आधारों पर निर्भर करती है और उसका विवेचन कर पाने की शक्ति उसकी ज्ञानात्मक तैयारी पर। यदि वह अपनी तैयारी के दौरान अन्तरानुशासित होकर जीवन-जगत को देखने की दृष्टि विकसित कर पाया है, तभी वह रचना के पाठ के जीवन-जगत में फैले आधारों को देख पाएगा।
प्रत्येक कृति अन्तत: एक विशिष्ट भाषा, उसकी साहित्यिक परम्परा और विधागत विरासत से संबद्ध होती है। एक परम्परा-सजग आलोचक ही इस बात की पहचान कर सकता है कि रचना परम्परा में कहाँ और किस वैचारिक-सौन्दर्यात्मक धारा में स्थित है। नामवर सिंह एक आलोचक के रूप में ‘पाठ’ से ऐसा गहरा और संवादी रिश्ता बना पाते थे, जहाँ उनकी ये सारी खूबियाँ एक साथ देखी जा सकती हैं।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Ashish Tripathi |
Publication Year | 2021 |
Edition Year | 2023, Ed. 2nd |
Pages | 535p |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22.5 X 14.5 X 3.5 |
Author: Namvar Singh
नामवर सिंह
जन्म-तिथि : 28 जुलाई, 1926; जन्म-स्थान : बनारस ज़िले का जीयनपुर नामक गाँव। प्राथमिक शिक्षा बग़ल के गाँव आवाजापुर में। कमालपुर से मिडिल। बनारस के हीवेट क्षत्रिय स्कूल से मैट्रिक और उदयप्रताप कॉलेज से इंटरमीडिएट। 1941 में कविता से लेखक जीवन की शुरुआत। पहली कविता उसी साल ‘क्षत्रियमित्र’ पत्रिका (बनारस) में प्रकाशित। 1949 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से बी.ए. और 1951 में वहीं से हिन्दी में एम.ए.। 1953 में उसी विश्वविद्यालय में व्याख्याता के रूप में अस्थायी पद पर नियुक्ति। 1956 में पीएच.डी. (‘पृथ्वीराज रासो की भाषा’)। 1959 में चकिया चन्दौली के लोकसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार। चुनाव में असफलता के साथ विश्वविद्यालय से मुक्त। 1959-60 में सागर विश्वविद्यालय (म.प्र.) के हिन्दी विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर। 1960 से 1965 तक बनारस में रहकर स्वतंत्र लेखन। 1965 में ‘जनयुग’ साप्ताहिक के सम्पादक के रूप में दिल्ली में। इस दौरान दो वर्षों तक राजकमल प्रकाशन (दिल्ली) के साहित्यिक सलाहकार। 1967 से ‘आलोचना’ त्रैमासिक का सम्पादन। 1970 में जोधपुर विश्वविद्यालय (राजस्थान) के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष-पद पर प्रोफ़ेसर के रूप में नियुक्त। 1971 में कविता के नए प्रतिमान पर साहित्य अकादेमी का पुरस्कार। 1974 में थोड़े समय के लिए क.मा.मुं. हिन्दी विद्यापीठ, आगरा के निदेशक। उसी वर्ष जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (दिल्ली) के भारतीय भाषा केन्द्र में हिन्दी के प्रोफ़ेसर के रूप में योगदान। 1987 में वहीं से सेवा-मुक्त। अगले पाँच वर्षों के लिए वहीं पुनर्नियुक्ति। 1993 से 1996 तक राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फ़ाउंडेशन के अध्यक्ष। आलोचना त्रैमासिक के प्रधान सम्पादक। महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलाधिपति रहे। वे ‘आलोचना’ त्रैमासिक के प्रधान सम्पादक भी रहे।
प्रमुख कृतियाँ : बकलम ख़ुद, हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ, पृथ्वीराज रासो की भाषा, इतिहास और आलोचना, कहानी : नई कहानी, कविता के नए प्रतिमान, दूसरी परम्परा की खोज, वाद विवाद संवाद, आलोचक के मुख से, हिन्दी का गद्यपर्व, ज़माने से दो दो हाथ, कविता की ज़मीन ज़मीन की कविता, प्रेमचन्द और भारतीय समाज (आलोचना); कहना न होगा (साक्षात्कार); काशी के नाम (पत्र) आदि।
रामचन्द्र शुक्ल रचनावली सहित अनेक पुस्तकों का सम्पादन।
निधन : 19 फरवरी, 2019
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