Samay Se Samvad

Author: Namvar Singh
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Samay Se Samvad
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नामवर सिंह की विचार-यात्रा और आलोचना-यात्रा को प्रगतिशील आन्दोलन की यात्रा से जोड़कर देखा जाना चाहिए। वे इस आन्दोलन की सबसे प्रभावशाली आवाज़ों में से एक थे। जन-पक्षधर और प्रतिबद्ध विचारों के लिए संघर्ष करने का साहस उन्हें इसी से मिलता था।

आज आन्दोलन पर चौतरफा दबाव है। भारतीय समाज और राजनीति में लोकतांत्रिकता, जनवाद और संवाद पर गहरा आक्रमण हो रहा है। फ़ासीवाद, कट्टरपन्थी और अधिनायकवादी विचारों को प्रतिबन्ध, दुष्प्रचार और शक्ति-प्रयोग से लादा जा रहा है। प्रगतिशील, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष विचारों को कैद, हिंसा और हत्या के रास्ते चुप कराने की कोशिश की जा रही है।

ऐसे में विभिन्न विचारधाराओं को माननेवाले लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और जन-पक्षधर लोगों को ‘अप्रतिहत गरज रहा अम्बुधि विशाल’ आन्दोलन पैदा करना ही होगा। नामवर जी अतीत में इस ‘गरज’ में एक अनिवार्य 'स्वर' की तरह मौजूद थे।

‘समय से संवाद’ नामवर जी की निर्भ्रान्त समझ और बौद्धिक संघर्षशीलता का आइना है। इस पुस्तक को सामयिक विषयों पर प्रकाशित स्वतंत्र पुस्तक ‘जमाने से दो दो हाथ’ की शृंखला में देखा जा सकता है।

More Information
Language Hindi
Format Hard Back
Publication Year 2022
Edition Year 2022, Ed. 1st
Pages 192p
Translator Not Selected
Editor Ashish Tripathi
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22.5 X 14.5 X 1.5
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Namvar Singh

Author: Namvar Singh

नामवर सिंह

जन्म-तिथि : 28 जुलाई, 1926; जन्म-स्थान : बनारस ज़ि‍ले का जीयनपुर नामक गाँव। प्राथमिक शिक्षा बग़ल के गाँव आवाजापुर में। कमालपुर से मिडिल। बनारस के हीवेट क्षत्रिय स्कूल से मैट्रिक और उदयप्रताप कॉलेज से इंटरमीडिएट। 1941 में कविता से लेखक जीवन की शुरुआत। पहली कविता उसी साल क्षत्रियमित्रपत्रिका (बनारस) में प्रकाशित। 1949 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से बी.ए. और 1951 में वहीं से हिन्दी में एम.ए.। 1953 में उसी विश्वविद्यालय में व्याख्याता के रूप में अस्थायी पद पर नियुक्ति। 1956 में पीएच.डी. (पृथ्वीराज रासो की भाषा’)। 1959 में चकिया चन्दौली के लोकसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार। चुनाव में असफलता के साथ विश्वविद्यालय से मुक्त। 1959-60 में सागर विश्वविद्यालय (म.प्र.) के हिन्दी विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर। 1960 से 1965 तक बनारस में रहकर स्वतंत्र लेखन। 1965 में जनयुगसाप्ताहिक के सम्पादक के रूप में दिल्ली में। इस दौरान दो वर्षों तक राजकमल प्रकाशन (दिल्ली) के साहित्यिक सलाहकार। 1967 से आलोचनात्रैमासिक का सम्पादन। 1970 में जोधपुर विश्वविद्यालय (राजस्थान) के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष-पद पर प्रोफ़ेसर के रूप में नियुक्त। 1971 में कविता के नए प्रतिमान पर साहित्य अकादेमी का पुरस्कार। 1974 में थोड़े समय के लिए क.मा.मुं. हिन्दी विद्यापीठ, आगरा के निदेशक। उसी वर्ष जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (दिल्ली) के भारतीय भाषा केन्द्र में हिन्दी के प्रोफ़ेसर के रूप में योगदान। 1987 में वहीं से सेवा-मुक्त। अगले पाँच वर्षों के लिए वहीं पुनर्नियुक्ति। 1993 से 1996 तक राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फ़ाउंडेशन के अध्यक्ष। आलोचना त्रैमासिक के प्रधान सम्पादक। महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलाधिपति रहे। वे आलोचनात्रैमासिक के प्रधान सम्पादक भी रहे।

प्रमुख कृतियाँ : बकलम ख़ुद, हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ, पृथ्वीराज रासो की भाषा, इतिहास और आलोचना, कहानी : नई कहानी, कविता के नए प्रतिमान, दूसरी परम्परा की खोज, वाद विवाद संवाद, आलोचक के मुख से, हिन्दी का गद्यपर्व, ज़माने से दो दो हाथ, कविता की ज़मीन ज़मीन की कविता, प्रेमचन्द और भारतीय समाज (आलोचना); कहना न होगा (साक्षात्कार); काशी के नाम (पत्र) आदि। 

रामचन्द्र शुक्ल रचनावली सहित अनेक पुस्तकों का सम्पादन।

निधन : 19 फरवरी, 2019

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